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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Tuesday, 25 August 2020

मेरे मित्र कैलाश झा किंकर / ज्वाला सान्ध्यपुष्प

  संस्मरण: तेरे जाने से शहर फीका है

कैलाश झा किंकर से जुड़े संस्मरण

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(नोट- कविवर कैलाश झा किंकर जी एक अतिगुणी और सुप्रसिद्ध कवि थे और उन्हें अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कार/ सम्मान अवश्य मिले होंगे हालाँकि इस लेख में उल्लखित अधिकांश पुरस्कार /सम्मान स्थानीय संस्थाओं या गोष्ठी के आयोजकों द्वारा दिए गए थे.)


साहित्यकारों का परिचय उनकी लेखनी और उनके साहित्य से होता है और परिचय की प्रगाढ़ता पत्राचार हुआ करता था और अब तो अनेकानेक सोशल मीडिया से ही नजदीकियां बढ़ती हैं। काफी विलम्ब से मैंने २०१६ में स्मार्ट फोन खरीदा। मोबाइल-प्रचालन में दक्षता न होने के कारण मेरे मित्रों की संख्या भी नगण्य ही थी।

उसी साल मुंगेर की संस्था 'कवि मथुरा प्रसाद गुंजन स्मृति पर्व समारोह' ने मुझे मेरे सद्य: प्रकाशित ग़ज़ल संकलन 'इंतज़ार के दिन' के लिए 'कवि मथुरा प्रसाद गुंजन स्मृति सम्मान' के लिए नामित कर दिया था जिसके सचिव या कहें कि कर्ता-धर्ता वहीं के वरिष्ठ साहित्यकार कवि एस बी भारती ने आमंत्रण पत्र ससमय भेज दिया था।उन्हीं से मुझे ज्ञात हो चुका था कि इस सारस्वत समारोह में खगड़िया के चर्चित साहित्यकार कविवर कैलाश झा किंकर भी शिरकत करने वाले हैं मगर वहां उनकी अनुपस्थिति से मेरा मन आह्लादित न हो सका था जबकि वहां तो उस इलाके के और दूर-दूर के भी अज़ीम शायरों की बड़ी महफ़िल सजी थी जिसमें सर्वश्री छंदराज , अनिरुद्ध सिन्हा, घनश्याम, एस के प्रोग्रामर, अशांत भोला , शहंशाह आलम, कुमार विजय गुप्त, बिकास मौजूद थे। मगर मेरी आंखें कैलाश भाई को खोजती रहीं क्योंकि उनसे कई बार पत्राचार से और कई पत्रिकाओं में साथ-साथ रचनाएं प्रकाशित होने से लगाव कुछ ज्यादा हो गया था। और असल बात तो यह भी थी कि सन् २००९ में मेरी बेटी डा प्रतिभा भी अलौली, खगड़िया में ब्याही गई थी ,जिस कारण से भी उनके प्रति एक अलग किस्म का खिंचाव महसूस हो रहा था।खैर ,वे नहीं आए।

फिर १९ नवंबर १८ को होनेवाले मथुरा प्रसाद गुंजन स्मृति पर्व समारोह में शामिल होने के लिए कवि एस बी भारती जी निमंत्रण मिला क्योंकि उस समारोह में ग़ज़लकार सुप्रसिद्ध मित्र डा शैलेन्द्र शर्मा त्यागी जी का सद्य: प्रकाशित ग़ज़ल संकलन ' पता पूछ लेंगे ' सम्मान हेतु चयनित हुआ।उस सम्लेलन में समस्तीपुर और बेगूसराय से मेरे अलाबे कविवर द्वारिका राय सुबोध,डा शैलेन्द्र शर्मा त्यागी, अशांत भोला और डा रामा मौसम पहुंच चुके थे ।बाद में पता चला कि कविवर कैलाश झा किंकर किसी दूसरे कवि-सम्मेलन में शिरकत करने के कारण यहां न आ सके थे। लेकिन इसी दरम्यान मोबाइल में उनके फेसबुक पर मेरी दृष्टि पड़ी तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने तुरंत फेसबुक मित्रता का आग्रह किया और उधर उन्होंने भी बिना विलंब किए मित्रता स्वीकार कर ली। और कुछ ही दिनों के बाद मैंने उनके फेसबुक पर देखा कि मुंगेर के ही किसी कवि सम्मेलन में भाग लेने जाते वक़्त उनका पर्स किसी पाकेटमार ने गाएब कर दिया।इस संदर्भ में मेरी की गई टिप्पणी भी उन्हें पसंद आई थी।

और २ जून १९१८ का की वह घड़ी जब वे साहित्यकार प्रियवर राहुल शिवाय जी के साथ कविवर ईश्वर करुण जी के विशेष निमंत्रण पर बतौर मुख्य अतिथि पं. हृदय नारायण झा जयंती सह कवि-सम्मेलन में शिरकत करने मोहीउद्दीन नगर पधारे थे। पहली बार उनसे मिलकर मन आह्लादित हो उठा था। राहुल जी से भी पहले-पहल ही मुलाकात हुई थी और दोनों के बहुआयामी साहित्यिक व्यक्तित्व से साहित्य-संस्कृति को समर्पित शाहपुर पटोरी अनुमंडल का यह इलाका मह-मह कर उठा था। उक्त समारोह में स्थानीय कवियों में चांद मुसाफ़िर,द्वारिका राय सुबोध, बैद्यनाथ पंडित प्रभाकर,हरिनारायण सिंह हरि , सीताराम शेरपुरी,अर्जुन प्रभात, आचार्य लक्ष्मीदास थे और मंच का सफल संचालन कर रहे थे दो युवा साहित्यकार मुकेश कुमार मृदुल और राहुल शिवाय। समारोह काफी सफल रहा जिसमें कैलाश झा किंकर और ईश्वर करुण की कविताओं की अनुगूंज से मोहीउद्दीन नगर उच्च विद्यालय की  समस्त वाटिका हर्षित हो गई थी। जैसे ही कार्यक्रम ने अपने चरम पर से ससरना शुरू किया किंकर जी ने श्रोता दीर्घा की द्वितीय पंक्ति से मुझे इशारे में बुला लिया और बगल में खाली आसन पर बैठने को मजबूर कर दिया और बीच-बीच में धीरे-धीरे मेरा समाचार पूछने लगे। मैंने अपनी ग़ज़लों के दोनों संकलन' हांफता हुआ दरख़्त' और ' इंतज़ार के दिन ' उन्हें दिए और उन्होंने स्वयं की संपादित  'कौशिकी' के दो-तीन अंक दिए और अपनी रचनाएं भेजते रहने को भी कहा।।फिर उन्होंने अपना मोबाइल नम्बर भी दिया ।तब तो हम दोनों पक्के मित्र हो गए।

२०१९ के मार्च माह में होली के बाद खगड़िया जाने का अवसर मिला। अपने स्टेशन सुपरिटेंडेंट जमाता का नागापट्टनम से धमारा घाट के लिए स्थानांतरण मेरे लिए अत्यंत खुशियां लेकर आया था ।सो , खगड़िया में ही नये आवास में वे सपरिवार रहने लगे थे ,जबकि उनका पैतृक आवास वहां से १८-२०किलोमीटर दूर अलौली है।नतनियों और बेटी के आग्रह को टालना संभव न था और-तो-और भाई किंकर जी से भी मिलने की उत्कट अभिलाषा ने मेरी सुसुप्त खगड़िया यात्रा की इच्छा को जगा दिया था।और मैं संभवतः २८ मार्च  की दोपहर को जनहित एक्सप्रेस से खगड़िया पहुंच ही गया।शाम को वहां के बाज़ार में घूमते-घामते ,किंकर जी खोजते ,पता पूछते आठ बज गए। किसी ने मुझे सही तरीके से कृष्णानगर का लोकेशन न बताया।अंत में मैंने कैलाश जी को फोन लगा ही दिया। तो उन्होंने जानकारी दी।और उनके बुलाने पर मैंने उनसे सुबह मिलने की बात पक्की कर ली।

बात तो पक्की हो गई थी ,मगर किधर किस जगह पर स्थित है कृष्णानगर आवासीय कोलोनी , ठीक से पता चले तब न।सुबह मार्निंग वाक के बहाने डेरे से निकल मैंने  सन्हौली से ही फ्लाईओवर की राह पकड़ ली और उसके बाद तो फिर किंकर जी मेरा मार्गदर्शन आनलाइन रहकर ही करते रहे और  मैं भी काफी मशक्कत के बाद उनतक पहुंचने में कामयाब रहा।देखा,वे अपने क्रांतिभवन के आगे खड़े हाथ से इशारा कर रहे हैं क्योंकि उनके घर तक पहुंचने के जिलेबिया मोड़ -जैसे अपरिचित रास्ते में मैं खो-सा गया था।उसके बाद तो हम दोनों काफी आह्लादित हो उठे ।वे मुझे अपने अध्ययन कक्ष में ले गए और अपनी हाल की  बहुत सारी किताबों और पत्रिकाओं से परिचित कराया तथा यहां की वर्तमान साहित्यिक गतिविधियों की जानकारी दी। तथा चलते वक्त अपनी कई किताबें और पत्रिकाएं भी भेंट की। हमलोग बाहर आए ।उसके बाद उन्होंने अपनी स्कूटर निकाल कर सीधे चंद्रनगर की ओर यानी हिंदी भाषा साहित्य परिषद खगड़िया के तत्कालीन अध्यक्ष कविवर रामदेव पंडित राजा जी के आवास पर ले गए, जहां किंकर जी ने मेरी मुलाकात राजा जी और उनके समस्त साहित्यिक परिवार कराई।प्रियवर अवधेश कुमार आशुतोष और उनकी साहित्यकार धर्मपत्नी डा विभा माधवी जी का परिचय पाकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई । तत्पश्चात राजाजी के समृद्ध पुस्तकालय के दर्शन कर मैं धन्य हो गया। राजा जी और अवधेश जी - दोनों ने मुझे अपनी-अपनी प्रकाशित पुस्तकें दीं। यहां आकर मुझे लगा कि किसी संत के मठ में हम पहुंच गए हैं जहां सिर्फ और सिर्फ ज्ञान-विज्ञान और साहित्य-संस्कृति रूपी अगरु की ही सुगंध नि:सृत होती रहती है। धन्य हैं राजा जी और उनकी साहित्यिक विरासत!

आठ बज चुके थे। हम दोनों जने ने उनसे छुट्टी मांग ली मगर राजा जी कहां माननेवाले थे। उन्होंने मुझ नाचीज़ के सम्मान में शाम के वक़्त अपने आवास पर एक काव्य संध्या का आयोजन रख दिया। इसमेें भी शायद भाई किंकर जी का ही  इशारा या संकेत था क्योंकि जिस अतिशयोक्ति में उन्होंने मेरा कवि-परिचय दिया वह किसी भी साहित्यिक हृदय में उत्सुकता का संचार करने को काफी था।फिर स्कूटर स्टार्ट हुई और दो तीन किलोमीटर के बाद हम दोनों अपनी बेटी के आवास के आगे वाली जनता रोड पर थे। उन्होंने  मुझे किताबें डेरे पर रख देने को कहा ।मैंने सारी किताबें डेरे में जाकर रख दीं।और फिर स्कूटर स्टार्ट हुई तो थोड़ी ही देर में हम दोनों हिंदी और अंगिका के वरिष्ठ साहित्यकार नंदेश निर्मल जी के आवास पर थे।किंकर जी ने बड़ी शालीनता से मेरा परिचय नंदेश निर्मल जी से कराया और जब उनका परिचय एक लेखक के रूप में दिया तो मुझे स्वाभाविक रूप से उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली न लगा। नाम बड़े और दर्शन थोड़े। नंदेश निर्मल जी के लेखकीय व्यक्तित्व और कायिक व्यक्तित्व में काफी अंतर दिखा--- बिल्कुल शिवपूजन सहाय जी की मानिंद कृशकाय!जो उनके अंदर के क्रांतिकारी उपन्यास लेखक से मेल ही नहीं खाता है।उनकी सादगी दर्शनीय और अनुकरणीय लगी। उन्होंने भी अपनी कई किताबें दी मगर मैंने उनके उपन्यास 'उत्सर्ग' की दो और प्रतियां यह कहते हुए मांग लीं कि ऐसी औपन्यासिक कृति को भारतीय साहित्यकार संसद , समस्तीपुर सम्मानित जरूर करेगा। और मैंने श्री नंदेश निर्मल जी के उपन्यास         'उत्सर्ग' और भाई कैलाश झा किंकर जी के ग़ज़ल ' तुझे अपना बना के लूटेगा ' को क्रमशः 'यशपाल शिखर सम्मान' और ' दुष्यंत कुमार शिखर सम्मान 'के लिए अपने प्रार्थना पत्र के साथ भेज दिया जिसपर संस्थाधिकारियों( श्री संजय तरूण और डा नरेश कुमार विकल आदि)ने अपनी सहमति देते हुए सम्मानितों की सूची प्रकाशित कर दीं ‌।अब तो २१ जून २०१९ का वह पवित्र दिन यानी महान साहित्यकार डा हरिवंश तरुण जी का जन्म दिवस भी है ,को श्री नंदेश निर्मल जी और किंकर जी उक्त सम्मान से भारतीय साहित्यकार संसद समस्तीपुर के सारस्वत समारोह में सम्मान हेतु शामिल होना था।वे दोनों उस दिवस को वहां गए भी। कैलाश जी ने फोन करके मुझसे बातें भी की और मुझे तलाशा भी। मुझे निमंत्रण नहीं था। अतः मैंने अफ़सोस के साथ कुछ बहाना बनाकर उनसे माफी मांग ली।

 नंदेश निर्मल जी के आतिथ्य और उनकी सदाशयता का प्रसाद पा मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। उनका अहंकारहीन और  मृदुभाषी होना मुझे बहुत प्रिय लगा। वे हम-दोनों को अपने बड़े आवासीय परिसर में स्थित बहुत पुराने मंदिर के दर्शन कराने ले गए तो मंदिर परिसर काफी आकर्षक लगा। वास्तव में यह दर्शनीय स्थल है। थोड़ी देर में कैलाश जी ने अपनी स्कूटर फिर स्टार्ट की और निर्मल जी लौटने की इजाज़त मांग ली।और मुझे मेरी बेटी के आवास तक ले आए।कुछ देर बैठकर बातें भी कीं। मगर चाय-नाश्ते के नाम पर माफी मांग ली क्योंकि अबतक स्नान जो न हुआ था।हाल में उनके असामयिक निधन से मेरी पुत्री और दामाद भी काफी मर्माहत हो गए थे--' ऐसे विद्वान और भले आदमी को भगवान क्यों जल्दी बुला लेते हैं?' अख़बारों में छपी तस्वीर देखने और मेरे फ़ोन करने पर उनका आहत होना स्वाभाविक था।

शाम चार बजे मुझे कैलाश जी का फोन आया कि मैं राजा जी के आवास पर औटो से आ जाऊं।घर देखा हुआ था ही। मैंने वैसा ही किया ।और मैं जैसे राजा जी के यहां पहुंचा कि कैलाश जी भी अपनी स्कूटर से हिंदी भाषा साहित्य परिषद 'कौशिकी 'के पूर्व अध्यक्ष और स्थानीय महिला महाविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक डा चंद्रिका प्रसाद सिंह विभाकर जी के  संग आ गए। समय के पाबंद जो ठहरे।

काव्य-गोष्ठी आरंभ हुई। एक सुंदर-से कमरे में कविगण जमे। राजा जी , उनके सुपुत्र और साहित्यकार अवधेश कुमार आशुतोष, आशुतोष जी की धर्मपत्नी और चर्चित कवयित्री -समीक्षक डा विभा माधवी, कैलाश झा किंकर, विभाकर जी मैं स्वयं अपना-अपना आसन ग्रहण कर चुके थे। कैलाश जी ने राजा जी का नाम काव्य गोष्ठी की  अध्यक्षता करने हेतु प्रस्तावित कर दिया और विभाकर जी ने समर्थन ।

गोष्ठी खूब जमी। विभाकर जी बीच-बीच में समीक्षा भी करते जाते थे। मैंने भी अपनी दो-तीन ग़ज़लें सुनाईं  मगर मुझे लगा लगा कि कहीं-न-कहीं मेरे लोटे में छेद जरूर है। वैसे तो ग़ज़लें कही ही जाती हैं मगर ग़ज़लों को लयात्मकता से गाने की प्रेरणा मुझे कैलाश जी से ही मिली। यहीं मुझे बेबह्र और बाबह्र ग़ज़लों के वास्तविक फ़र्क की समझ आई। बेबह्र ग़ज़लों में चाहे कितने भी भावों को हम भर दें मगर श्रोताओं तक लयात्मकता के अभाव में संप्रेषण में कामयाबी नहीं मिलती है।मैंने उसी समय निर्णय ले लिया कि अब  तो बाबह्र पतवार के सहारे ही ग़ज़ल-गंगा में नौका विहार करना है।यह सही है कि काजल की कोठरी रुपी अरकानों की कोठरी में नाचना आसान नहीं, वहां भाव कमजोर भी पड़ सकते हैं पर शैल्पिक दृष्टि से मजबूत और सधी हुईं ग़ज़लें निर्मित की जा सकती हैं जो श्रोताओं को ज्यादा आह्लादित कर सके।फिर तो मैं कैलाश जी, अनिरुद्ध सिन्हा, बाबा बैद्यनाथ झा,एस के प्रोग्रामर,दिनेश तपन प्रभृति ग़ज़लकारों का मुरीद हो गया और इस दिशा में रियाज़ और अभ्यास करना आरंभ कर दिया।आज भी मेरी डायरी में सौ-डेढ़ सौ बेबह्र ग़ज़लें  पड़ी-पड़ी आंसू बहा रही हैं।

कैलाश जी ने न सिर्फ अपना मोबाइल नंबर दिया बल्कि उन्होंने मुझे हिंदी भाषा साहित्य परिषद के 'कौशिकी' ह्वाट्सेप पटल से भी जोड़ दिया जहां साहित्य की हर विधा पर कार्यशाला आयोजित होती रहती है।लोग नये-नये साहित्यिक समाचार और उनकी गतिविधियों से वाक़िफ होते रहते हैं। अभी कुछ ही दिन बीते थे कि दिनांक २४-२५ अगस्त २०१९ को  हिंदी भाषा साहित्य परिषद कौशिकी के दो-दिवसीय वार्षिक अधिवेशन का समय आ गया। हरेक विधा से कुल बीस साहित्यकारों का उनकी कृतियों की उत्कृष्टता के आधार पर  सम्मान होना सुनिश्चित किया गया। तीन दिवसीय इस साहित्य सम्मेलन को महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री के नाम समर्पित किया गया था। सभी बीसों साहित्यकार के नाम प्रकाशित किए गए जिनका चयन जानकीवल्लभ शास्त्री शिखर सम्मान के लिए किया गया था जिसमें कुछ बड़े नाम भी थे। ऐसे अद्भुत और ऐतिहासिक साहित्य कुंभ का आयोजन खगड़िया में होना और उसे देखना भी गौरव की बात है जहां देश भर के साहित्यकारों का जमावड़ा होना था।मुझे भी कैलाश जी और प्रियवर राहुल शिवाय जी ने अनौपचारिक रूप से शिरकत करने का आग्रह किया। बाद में बीस अन्य साहित्यकारों की भी पुस्तकों की सूची प्रकाशित की गई थी जिनकी पुस्तकें सांत्वना हेतु प्रशंसित मानी गई थी जिसमें मेरे ग़ज़ल संकलन 'इंतज़ार के दिन ' का भी नाम था।मैं समझ गया कि यह सब केवल भाई कैलाश जी के प्रेम का प्रतिफल है।बाबह्र ग़ज़लों के मार्केट में इस बेबह्र ग़ज़लों की क्या हैसियत हो सकती है।फिर भी मेरा मन प्रसन्न था। मगर एक घटना घट गई।मुझे १९ अगस्त को साहित्य परिषद रोसड़ा द्वारा आयोजित कविवर आरसी प्रसाद सिंह जयंती में बतौर विशिष्ट अतिथि शामिल होना पड़ा। कथाकार डा विपिन बिहारी ठाकुर जी के साहित्यकार पुत्र प्रो प्रफुल्ल कुमार जी के आग्रह पर मैं भव्य कार्यक्रम में शामिल हुआ जहां कौशिकी के उपाध्यक्ष और ग़ज़लकार अवधेश्वर प्रसाद सिंह जी से मुलाकात हुई । आरसी बाबू के जयंती- कार्यक्रम के पश्चात वे 'कौशिकी '  के अधिवेशन के पर्चे बांटने लगे और मुझसे मिलते ही उन्होंने कई पर्चे थमाते पूछ दिया-- ' सांध्यपुष्प जी! आपका नाम तो सम्मानितों की सूची में नहीं है।' पता नहीं , उन्होंने मुझे इसकी सूचना दी या कार्यक्रम में शामिल न होने की ताकीद की।उनके लहज़े में स्वाभाविकता थी या व्यंग्य,पता नहीं। उनके दिए निमंत्रण के वे पुष्प भी मुझे मुरझाए-से लगे। मुझे लगा, अभी-अभी मंच से ही मेरी ग़ज़लों पर अवधेश्वर जी की प्रशंसा(?) के शीतल जल से सींचनेवाली मंदाकिनी तो मुझे मेरे जड़ सहित बहा कर ले गई है।और मैं दिनांक २४ की दोपहर में आकाशवाणी दरभंगा के कार्यालय में बैठा अपने काव्यपाठ की रिकार्डिंग करवाते हुए भाई किंकर जी के ह्वाट्सेप निमंत्रण की अनदेखी कर अफ़सोस कर रहा था।यह  इसलिए भी कि  साहित्यिकों के ऐसे विशाल मेले को देखने से वंचित हो गया था।एक बार फिर कैलाश जी से मिलने की इच्छा अधूरी रह गई।

हिंदी छंदों और उर्दू बह्रों की अच्छी पकड़ थी उनकी। हिंदी-संस्कृत व्याकरण हो फिर उर्दू अरुज़ ,या फिर अंगिका-मैथिली में लेखन--- उन्हें महारत हासिल थी।वे सभी भाषाओं को बराबर का सम्मान दिया करते थे। किसी भाषा और उसके लिखने वाले के साथ उन्होंने भेदभाव न किया,जैसा कि प्राय: अन्य साहित्यकारों में प्राय: देखने को मिल जाता है। साहित्यकारों को सम्मान देना उनके संस्कार में शामिल था। विद्यालय में शिक्षक होते हुए भी वे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर की मानिंद अपने सहयोगियों को बताने-समझाने में कभी न हिचकते थे बल्कि उन्हें प्रसन्नता ही होती थी। ग़ज़ल लिखने-सीखने के क्रम में उर्दू के अरकानों को समझाने और बारीकियों पर नज़र देने के लिए ,उसे दुरुस्त करने के लिए मुझे भी वे अपने व्यक्तिगत ह्वाट्सेप पर ही भेजने को कहते।

सितंबर -अक्टूबर २०१९ में किसी गुरुवार के दिन मेरे ह्वाट्सेप और कौशिकी पर भी समीक्षा-आत्मकथ्य, संस्मरण-लेखन की कार्यशाला की सूचना में विधा विशेषज्ञों के बीच  अध्यक्ष के रूप में अपना नाम देखकर मैंने उन्हें फोन पर ही टोक दिया--- आदरणीय भाई जी! इतने बड़े-बड़े और नामचीन साहित्यकारों के बीच आपने मेरा नाम...' और उन्होंने मुझे बोलने ही न दिया---" आप नहीं ,आपकी लेखनी को यह जिम्मेवारी दी गई है।' उन्होंने मेरी और भी प्रशंसा कर मुझे चौंका दिया।और मैं भी उन्हीं की प्रेरणा के पुरस्कार से आजपर्यंत समीक्षा की कार्यशाला को उसके अंजाम तक पहुंचाने में लगा रहता हूं जहां डा विभा माधवी, मुकेश कुमार सिन्हा,डा रंजीत सिन्हा, अनिल कुमार झा,डा कमलकिशोर चौधरी'वियोगी', हरिनारायण सिंह हरि, राहुल शिवाय,शतदल मंजरी,स्मिताश्री, विनोद कुमार विक्की,डा इंदुभुषण मिश्र'देवेंदु'- सरीखे विद्वान मित्रों की गरिमामय उपस्थिति से यह पटल अपनी सुगंध बिखेरने में कामयाब भी हुआ है।

क्या कविताएं,क्या गज़लें ,क्या समीक्षा, लघुकथा, संस्मरण-लेखन -- कैलाश जी सभी विधाओं के 'मास्टर' थे।वे मास्टर नहीं जो वे प्राय:अपने अंगिका कविता में वर्णन करते थे-- 'मास्टर के मस्टरबा कहबो ,तोहर बेटा केना पढ़तो..'  आदि हास्य-व्यंग्य की कविताएं कर समस्त जनमानस की खत्म हो रही हंसी को जीवित रखने की कोशिश करते रहनेवाले भाई कैलाश जी न जाने क्यों हम सभी को, समूचे साहित्य संसार को रुलाकर कहां चले गए।

दिनांक ७ जुलाई २०२०की वह मनहूस दोपहरी जब ग़ज़ल की कार्यशाला अपने शबाब पर थी , कैलाश जी भी ग़ज़ल की कार्यशाला के माननीय अध्यक्ष अनिरुद्ध सिन्हा जी द्वारा प्रदत्त बह्र की प्रशंसा कर ग़ज़ल लेखन के क्रम को आगे बढ़ा रहे थे कि उन्हीं की एक सूचना पटल पर प्रसारित हुई-- " ताजा खुशखबरी है कि जिस विधानसभा चुनाव २०२० के एफ एल सी कार्य में जिलाधिकारी खगड़िया ने ७०मास्टर ट्रेनर.....  आज जांच रिपोर्ट में मेरा भी रिपोर्ट पोजिटिव आया है । इसलिए मैं आइसोलेशन सेंटर रामगंज में हूं और ठीक हूं।"दुख में खुश रहने की कला उन्हें बखूबी मालूम थी।वे नहीं चाहते थे कि साहित्यकार बंधु उनकी बीमारी के सबब ज्यादा परेशान हों।मगर जब  स्वैब लेने के क्रम में ज़ख़्मी नासिका से खूननुमा स्राव निकलने लगा तो परेशान हो उठे थे।कौशिकी समूह के लगभग सभी साहित्यकार उनसे बात कर उनकी खबर लेते रहे। मैंने भी कई बार बातें कि मगर जिस दिन नाक से स्राव होना शुरू हुआ था शायद १२ जुलाई की तारीख थी और वे कुछ ज्यादा ही कष्ट में थे तो मेरा मन हुआ कि ज्यादा बात न करें मगर मेरी पत्नी ने ही मुझसे कहा --  'उनसे और बतिया न लीजिए, क्या कष्ट है उन्हें? ऐसे निम्मन व्यक्ति को भगवान कष्ट में रख दिए हैं।' तो मैंनें  एक-दो मिनट और बातें की और शीघ्र स्वस्थ हो जाने की कामना की मगर शायद भगवान को मंजूर न था। चिकित्सकों की लापरवाही ने उन्हें हम सबसे छीन लिया। तेरह तारीख की वह रात जब मेरे वैवाहिक वार्षिकी का औपचारिक लघु उत्सव हो रहा था कि सवा नौ बजे कौशिकी पटल पर एकाएक समाचार आया कि किंकर जी न रहे।चाहे स्वराक्षी स्वरा हो या सुविज्ञा मिश्रा--- किसी ने साफ-साफ न कहा।इसके बाद तो मोबाइल पर अफ़रा-तफ़री मच गई।मुझे साढ़े नौ बजे ज्ञात हुआ तो लगा देह पर पहाड़ ही गिर गया हो। कौशिकी पर नवगीत प्रस्तुत कर रहे भाई ईश्वर करुण तो लगा बौखला गए हैं क्योंकि कुछ ही देर पहले वे कैलाश जी के अस्पताल से वापस आने की उम्मीद में छंदबद्ध अभिव्यक्ति कर चुके थे।और यह भयंकर त्रासदी!सभी जगह 'कन्ना-रोहट 'और 'बाप-रे-बाप' की मर्मांतक ध्वनि सुन संभवत: देवगण के पत्थर के हृदय भी जरूर पिघले होंगे।मगर नियति को यह मंजूर न था।ठीक होकर भी वे हमलोगों के बीच आ न सके थे। शायद कोरोना के इस बहरुपिए चरित्र ने हमें धोखा दे दिया था।हम अपने पूरे परिवार के संग शोक और अवसाद के महासागर में डूबे हुए मन को दिलाशा दिलाने में लगे थे---' हे भगवन !वे ठीक -ठाक हों।यह समाचार ही ग़लत हो।' मगर दस-साढ़े दस बजते -बजते तक मुझे बात समझ में आ गई कि अब शायद उनसे मिलना संभव नहीं। कविवर राजमणि राय मणि के शब्दों में --" उनसे मिलना मना हो गया।"और फिर किंकर जी के ही चंद अश्'आर में कहें तो:
तेरे जाने से शहर फीका है         
 मेरा कहना नहीं सभी का है।
        तूम जो रहते थे बहारें थीं यहां
        अब तो मौसम नहीं खुशी का है।"
नमन और श्रद्धांजलि!
.....

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