जिंदगी फिर से मुस्कुराई है
राष्ट्रसेवा और मानवीय चेतना को समर्पित महान स्वतंत्रता सेनानी ब्रजकिशोर प्रसाद की 143वींजयंती की पूर्व संध्या में कवि गोष्ठी का भव्य आयोजन किया गया। इस समारोह की विशिष्टता थी कि सर्द भरे मौसम में भी एक दर्जन श्रेष्ठ कवियों के अतिरिक्त ढेर सारे श्रोताओं ने गोष्ठी के अंत तक पूरी तन्मयता से कविताओं को गंभीरता के साथ सुना और आनंद उठाया।
ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान के सभागार में आयोजित कवि गोष्ठी का सशक्त संचालन करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कविता के संदर्भ में कहा कि कविता हमें जीवन से जोड़ती है और जीवंत बनाती है। जब तक जीवन है, हम कविता को जीवन से अलग नहीं कर सकते। और यह सच भी है। कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। किसी कवि ने तो यहां तक कह दिया है कि कविता भाषा में आदमी होने की तम्मीज है। क्या यह सच नहीं है कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है ? गूंगे का गुड़ है कविता। इसके बारे में कोई सटीक परिभाषा नहीं दी जा सकती। और न ही कविता को पूरी तरह व्याख्यायित किया जा सकता है।
हां, कविता आज के लिए और भी जरूरी बन गई है, इसमें कोई संदेह नहीं। क्योंकि आज सारे मानवीय मूल्य क्षरित हो रहे हैं। और हर तरफ अमानवीयता का ही दौड़ है। ऐसी स्थिति में कविता ही हमें बचा सकती है। मनुष्यता के पक्ष में कविता ही खड़ी हो सकती है।
इस कवि गोष्ठी में कविता के हर विधाओं में लिखने वाले कवि मौजूद थे। कवि गोष्ठी के आरंभ में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत गीत चेतना की कवयित्री शांति जैन के काव्य पाठ से हुआ-
तोड़ना था नहीं पर
तोडना पडा
मेरी पसंद और थी
उसकी पसंद और थी
इतनी जरा सी बात पर
घर छोड़ना पड़ा।"
जीवंत गीतकार मधुरेश नारायण ने सस्वर गीतों का पाठ किया -
"जिंदगी फिर से मुस्कुराई है
जीने की फिर वजह जो पाई है।"
गीत के बाद गजल की महफ़िल जमी, सुप्रसिद्ध कवयित्री आराधना प्रसाद की मधुर गजल गायन और अंदाज़े- बयां से -
" जो अपने फैसले पल - पल बदलते रहते हैं
वो जिंदगी में यूं ही हाथ मलते रहते हैं।"
गीत गजल के बाद व्यंग्य कवि अरुण शाद्वल को मंच पर आमंत्रित किया गया?! उन्होंने तीखे व्यंग्य से परिपूर्ण कविता प्रस्तुत की -
"वह एक उंगली ही तो होती है
जो करती है फैसला कि
आप खेल में हैं या नहीं ।"
वह भी उंगली तो है
जो तय कर देती है
किसी तख्त या तख्ते का। "
वरिष्ठ कवि मुकेश प्रत्यूष ने अपनी छोटी-छोटी कुछ कविताओं का पाठ किया -
"एक पहाड़ी धून सुनी
और मैं उदास हो गया
मैंं उदास हो गया
एक ताजा खिले गुलाब के ऊपर
बैठे भौंरे को देखकर!"
आज की सामाजिक व्यवस्था पर तंज़ कसती हुई एक नज्म पेश की संजय कुमार कुंदन ने -
"कसीदें पढ़ रहें सभी
वो बारिशों की शाम में
तप रही जमीं
कदम जहां जहां पडे़!"
संवेदना जगाती एक मुक्तछंद की कविता प्रस्तुत की पत्रकार कवि अनिल विभाकर ने -
"ढेर सारे काम करती हैं उंगलियां
इशारा भी करती हैं / तिलक भी लगाती हैं!
इशारा करने वाली उंगलियां उठती भी हैं,,,!".
ग्राम्य जीवंतता से पूर्ण मधुर गीतों का पाठ किया वरिष्ठ गीतकार विजय प्रकाश ने -
"अमन चैन की बीन बजाता
निर्भय गाँव-नगर हो
अमरायी के बीच हमारा
छोटा- सा इक घर हो।"
हिन्दी और भोजपुरी के वरिष्ठ कवि कथाकार सतीश प्रसाद सिन्हा ने भोजपुरी में गीत सुनाकर मंत्रमुग्ध कर दिया -
" तन मकान, मन अंगना
निकलल तीर कमान से
मुंह से निकलल बात।
लौटावे के बा कहां
केहु में औकात.!"
पत्रकार कवि प्रभात कुमार धवन ने अंतर्मन की व्यथा को कविता के माध्यम से उद्घाटित किया-
"ससुराल के चारों
जल्लादों के बीच
खत्म हो गई तेरी चंचलता / तेरा आकर्षण
तेरी खुशी / तेरा स्वास्थ्य! "
सुहागन होकर भी
विधवा सी रहती है!"
नामचीन ग़ज़लगो घनश्याम की हिन्दी गजल की बेबाक़ी ने श्रोताओं को ताली बजाने को मजबूर कर दिया -
" मुझको मरना ही होगा, तो मर जाऊंगा
अपनी खुश्बू तेरे नाम कर जाऊंगा
भूल कर भी नहीं, यह भ्रम पालना
तू जो धमकाएगा तो मैं डर जाऊंगा
मुझको परदेश हरगिज सुहाता नहीं
अपना वैभव संभोलो, मैं घर जाऊंगा
तेरी मर्जी पे नहीं, मेरी मर्जी पे है
मैं इधर जाऊंगा या उधर जाऊंगा ।"
घनश्याम जी ही हिंदी गजल की सादगी के बावजूद उसके जोरदार असर को कुछ यूं साबित करते हैं -
"बात गहरी हों लब्ज सादे, शायरी का राज है
ये बयां करने का सबसे खुशनुमा अंदाज है
तुम दिमागी कसरतों से छंद लिखना छोड़ दो
ग़ज़ल दिल की साज से निकली हुई आवाज है।"
लब्धप्रतिष्ठ कथाकार, शिवदयाल , जो एक जीवंत कवि भी हैं। उनकी छोटी छोटी कविताओं में भी जीवन दर्शन होता है, बहुत बड़ी बड़ी बातें होती हैं -
"कम से कम जगह में भी
जगह निकल आती है!
आखिर तो
पतली सी सुई में भी
धागे के लिए
एक जगह होती है !
,,,,, और इतनी सी पुतली में
सारा संसार समा जाता है!!"
कि / रचना का मूल्य
उसे देखने पढने वाले तय करते हैं!"
कवि हरेन्द्र सिंह ने गीत सुनाया-
" प्रेम सरसता हाथ में लेकर
घर घर हम पहुंचाएं जी!"
कवि, कथाकार, चित्रकार सिद्धेश्वर ने अपनी दो समकालीन कविताओं का पाठ किया -
"सूखा हुआ नहीं / हरा लचीला बांस हूं मैं
टूटता मुड़ता नहीं
सिर्फ अपनी हद तक लचकता हूं
इसलिए गिर गिरकर संभलता हूं!"
साहित्य में भी पूरी प्रतिबद्धता के साथ लिख रहें कवि मशहूर हृदय रोग विशेषज्ञ डां मिथिलेश्वर प्रसाद वर्मा ने समाज और देश को रेखांकित करते हुए मुक्तछंद कविताओं का पाठ किया -
"सुबह सुबह दरवाजा और खिड़कियां खोलते ही
घुस आती है किरणों के संग
रात की चीखें
और हवाओं में बेचैनियों का सिलसिला शुरू हो जाता है!"
संचालन क्रम में भगवती प्रसाद द्विवेदी ने भी अपने गीतों का पाठ कर कवि गोष्ठी को गरिमा प्रदान की -
"कहां हैं वे लोग, वे बातें उजालों से भरी
पंच परमेश्वर के जुम्मन शेख अलगू चौधरी
खून के प्यासे हुए
इंसाफ करते हिटलरी।"
इस सारस्वत समारोह, संस्थान के सचिव पी वी मंडल ने आगत अतिथियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया और यह उद्घोषना भी की कि आज पढी गई कविताओं को कवियों के फोटो परिचय के साथ, एक पुस्तक प्रकाशित करेगी यह संस्थान।
कवि गोष्ठी में पढी गई कविताओं को एक पुस्तक का रुप देने के इस सिलसिले को और भी संस्थाएं आगे चलाए तो यह एक ऎतिहासिक कार्य होगा।
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रपट के लेखक - सिद्धेश्वर
छायाचित्रकार- सिद्धेश्वर
रपट के लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
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