प्रतिरोधों के मध्य हुआ संवादों का सघन आदान-प्रदान
दैनिक जागरण द्वारा पटना में आयोजित बिहार संवादी में भाग लेने को लेकर अधिकांश साहित्यकार और साहित्यप्रेमी आयोजन के दो दिन पहले तक बहुत उत्साहित थे. परन्तु एक विवादास्पद समाचार प्रकाशित करने पर बड़े तबके द्वारा प्रतिरोध का सामना आयोजकों को करना पड़ा. फिर भी यह द्विदिवसीय कार्यक्रम पूर्वनिर्धारित समय से चला और बड़ी संख्या में लोगों ने इसमें भागीदारी की. मैथिली सहित बिहार की प्रमुख भाषाओं को बोली श्रेणी के अंतर्गत रखा गया. इसका भी बिहारी भाषाओं के प्रति अनेक सचेत लोगों ने मंच पर एवं अन्य तरीकों से विरोध किया. चाहे जो भी हो, कार्यक्रम में अनेक विद्वान वक्ताओं ने विभिन्न विषयों पर जम कर बोला. कुछ लोगों ने मंच से आयोजकों के प्रति भी विभिन्न बिन्दुओं पर विरोध जताया. कुल मिलाकर यह मंच लोकतांत्रिक तरीके से व्यवहृत हुआ प्रतीत होता है. और अगर ऐसा हुआ है तो इस सहिष्णुतात्मक समन्वय का स्वागत किया जाना चाहिए. हम नीचे कार्यक्रम की रिपोर्ट दे रहे हैं और उससे नीचे कार्यक्रम के कुछ चित्रों को प्रस्तुत कर रहे हैं जिनमें सोशल साइट्स से लिए गए चित्र भी शामिल हैं.
विश्व को परिवार मानने की भावना हमारे देश से ही आई :
बिहार संवादी
पटना,अप्रैल 22,2018 :
पटना के तारामंडल में दैनिक जागरण द्वारा दो दिन का 'बिहार संवादी' चल रहा है
बिहार संवादी के प्रथम सत्र में 'साहित्य का सत्ता विमर्श ' पर चर्चा का आयोजन
किया गया. इस सत्र में आमंत्रित अतिथि प्रो० रामबचन राय तथा श्री रेवती रमन से
अनीश अंकुर ने बातचीत की.अपने संबोधन में प्रो० रामबचन राय ने कहा कि सत्ता का
चरित्र हमेशा साहित्यकारों के दमन का नहीं रहा है तथा साहित्य की सत्ता राजनीति की
सत्ता से कमतर नहीं होती. उन्होंने कहा कि साहित्य से परिवर्तन अत्यंत धीमी गति से
होता है जबकि राजनीतिक सत्ता त्वरित परिवर्तन का कारक है. समाज तथा साहित्य के
विकास के लिए संस्कृति की उदारवादी धारा के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है. साहित्य
की परिभाषा के सवाल पर उन्होंने कहा कि साहित्य अपने मूल स्वभाव में सामूहिकता का
ही समुच्च्य है.
श्री रेवती रमन ने अपने संबोधन में कहा कि साहित्यकार राजनीति के आगे मशाल जैसी जलने वाली
सच्चाई है तथा साहित्य और राजनीति का संबंध द्वंद्वात्मक है और साहित्य की अपनी एक
सत्ता है. साहित्य की सत्ता राजनीति को मशाल दिखाने का कार्य करती है.
बिहार संवादी के दूसरे सत्र 'नया समाज और
राष्ट्रवाद' पर चर्चा का आयोजन किया गया. इस
सत्र के आमंत्रित अथिति उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष श्री हृदयनारायण दीक्षित
तथा डॉ एस एन चौधरी शामिल थे. कार्यक्रम का संचालन डॉ नेहा तिवारी ने किया .चर्चा
की शुरुआत करते हुए हृदयनारायण दीक्षित ने कहा कि भारतीय संस्कृति का विकास कई
घटकों से हुआ है तथा राष्ट्रवाद का उल्लेख दुनिया की सबसे प्राचीन रचना ऋग्वेद में
भी आता है. उन्होंने कहा कि भारत का राष्ट्रवाद कभी आक्रामक हो ही नहीं सकता. श्री
दीक्षित ने कहा कि दुनिया में महात्मा गांधी से बड़ा आदमी नहीं हुआ तथा विश्व को
परिवार मानने की भावना हमारे देश से ही आई जिसे महात्मा गांधी ने मूर्त रूप देने
की कोशिश की.संविधान बनने के पहले से ही वंदे मातरम देश के आंदोलनों का बीजमंत्र
रहा है तथा यह हमारे राष्ट्रवाद का प्रतीक है.
डॉ एस एन चौधरी ने कहा कि भारत में पहले समाज आया तथा बाद में राष्ट्रवाद
आया है तथा राष्ट्रवाद को औद्योगिक परिवर्तन से जोड़कर देखने की आवश्यकता है.
उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद के विकास ने गांधीजी का योगदान अत्यंत अहम है तथा उनकी
यह विशेषता थी कि उन्होंने कभी अपने आंदोलन को हिंसात्मक नहीं होने दिया. उन्होंने
जोर देकर कहा कि राष्ट्रवाद का प्रतीकों से कोई संबंध नहीं है.
बिहार संवादी के तीसरे सत्र में 'बिहार- मीडिया की चुनौतियों' पर चर्चा की गई. इस
सत्र में राणा यशवंत, सद्गुरु शरण, विकास कुमार झा तथा मारिया शकील ने अपने विचार रखे.मारिया शकील ने कहा कि मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती है कि आज उसकी
क्रेडिबिलिटी खतरे में हैं. उन्होंने ध्यान आकृष्ट किया कि पत्रकारिता के लोगों को
ऑफिस छोड़कर ग्राउंड में जाकर काम करना होगा तथा मीडिया में ग्राउंड रिपोर्ट की
सच्चाई दिखाना सबसे जरूरी है. उन्होंने कहा कि कथ्य पवित्र होता है विचार नहीं.
हमें पत्रकारिता में कथ्य पर विचारों का रंग नहीं डालना चाहिए.राणा यशवंत ने अपने
विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बिहार में संवाद अपने आप में एक चुनौती है. उन्होंने
कहा कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पत्रकारीता का स्थान अलग-अलग है. सदगुरू शरण ने कहा कि बिहार का मनोबल बढ़ाना
बिहार के मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती है. उन्होंने कहा कि बिहार की पत्रकारिता को
सबसे पहले अपने नायक चुनने होंगे. साथ ही बिहार की मीडिया को अपनी प्राथमिकता
निर्धारित कर बिहार की तरक्की का माध्यम बनना होगा.कार्यक्रम का संचालन विकास
कुमार झा ने किया. उन्होंने कहा कि पत्रकारों में सही रिपोर्टिंग भी भूख होना
अत्यंत आवश्यक है.
बिहार संवादी के चौथे सत्र में 'नए-पुराने के फेर में लेखन' पर चर्चा की गई. मंच
पर अवधेश प्रीत, शशिकांत मिश्रा, क्षितिज रॉय, ममता मेहरोत्रा तथा
प्रवीण कुमार उपस्थित थे.शशिकांत मिश्रा ने कहा कि नए-पुराने के फेर में मठाधीश
पड़े हैं. साहित्य के मठाधीश ने एक पैमाना सेट कर रखा है जिससे अलग साहित्य उन्हें
बर्दाश्त नहीं होता. उन्होंने कहा कि पुराने साहित्यकारों की भाषा अत्यंत जटिल है.
हमारे दौर के लेखक आसान भाषा में लिख रहे हैं. भाषा लेखन का एक छोटा सा पार्ट भर
है तथा साहित्य आम आदमी की बोली में लिखा जाना चाहिए.क्षितिज रॉय ने कहा कि
साहित्य में नया-पुराना कुछ नहीं होता है तथा लेखक को नए-पुराने के फेर में नहीं
पड़ना चाहिए.ममता मेहरोत्रा ने अपने संबोधन में कहा कि लेखक हमेशा समकालीन होता है
तथा हमें अपनी भाषा के ऊपर काम करने की आवश्यकता है.
कार्यक्रम का संचालन अवधेश प्रीत ने किया. उन्होंने
कहा कि आपका लेखन समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण है, यह आवश्यक है. हमारा लेखन समाज के लिए होना चाहिए. भाषा अपनी बातों को प्रकट
करने का एक माध्यम है पर हमारा कन्टेंट समाज के लिए होना आवश्यक है.
बिहार संवादी के पांचवे सत्र में 'ब्रांड बिहार' पर उदय शंकर से श्री
अजीत अंजुम ने बात की.उदय शंकर ने कहा कि " बिहारी के वजूद को देश-दुनिया
में पहचान मिल रही है , बिहारी के प्रति देश में माहौल बहुत हद तक बदला है, समाज में भेदभाव कम हो
रहा. बहुत सारी चीजें बदल रही है. हमारी पहचान अब गर्व की बात है" . आगे
उन्होंने कहा कि कुछ साल पहले बिहारियों पर बहुत सवाल उठाए जाते थे, बिहार में जातिभेद एक
बड़ी समस्या. इससे निजात पाने की जरूरत है.अजीत अंजुम ने कहा कि एक दौर था जब
बिहारियों से लोगों को एलर्जी थी. हमने इस विचारधारा को बदला. उन्होंने कहा कि
बिहार के लोग बाहर जाकर ज्यादा कामयाब होते हैं. उन्होंने कहा कि 30 सालों में बिहार का
एजुकेशन सिस्टम और भी खराब होता गया तथा हमें अपनी स्थिति पर आत्ममंथन करने की
जरूरत है.
बिहार संवादी के पहले दिन की अंतिम सत्र 'जाति के जंजाल में साहित्य'में अरुण नारायण ने कहा कि " हमें अपनी जाति
पर गर्व है. जातिसूचक शब्दों का कोई खास असर नहीं रहा".रमेश ऋतंभर ने कहा कि
" हम कबीर की परंपरा के कवि हैं जिसमें जाति
मायने नहीं रखती. स्त्री की पीड़ा तथा दलितों की पीड़ा स्त्री और दलित
साहित्यकार ही सच्चाई के साथ बयान कर सकते हैं. जाति एक सच्चाई है. इसको युवा पीढ़ी
तोड़ेगी".अनिल विभाकर ने कहा कि " मैंने सिर्फ लिखने का काम किया. बांकी
पाठकों पर छोड़ दिया, आप किसी भी जाति के
हों, आप क्या लिख रहे हैं यह महत्वपूर्ण
है. लेखन सबसे पहले है, जाति बाद में आती
है".अनंत विजय ने कहा कि " बिहार की सामाजिक स्थिति के कारण बच्चे के
नाम से जातिसूचक शब्दों को हटाना मां-बाप के लिए चुनौती की स्थिति?. नाम के साथ जातिसूचक शब्द लगाने से सामाजिक सुरक्षा
का भाव आता है."
हर युग में विज्ञान मौजूद रहा है :
नरेद्र कोहली
पटना,22 अप्रैल 2018 : बिहार संवादी के दुसरे
दिन दिनभर कई दिग्गज साहित्यकार संवादी
मंच पे एकत्रित हुए और भिन्न भिन्न सत्रों में
अपने विचार रखे . पहले सत्र में ' बिहार की कथाभूमि' पर हृषिकेश सुलभ, शिवदयाल तथा रामधारी सिंह दिवाकर से प्रेम भारद्वाज ने बातचीत की.अपने विचार
विचार व्यक्त करते हुए प्रेम भारद्वाज ने स्त्री की महत्ता को दर्शाते हुए कहा
कि जब हमारे समय में स्त्री नहीं बचेगी तो
आप मुहब्बत किससे करेंगे। . प्रेम भारद्वाज ने
आगे कहा कि बिहार से बाहर जाकर बिहार ज्यादा बड़ा दिखता है. लेखकों को बिहार
ने रहकर रचना करना चाहिए.सत्र को आगे बढ़ाते हुए हृषिकेश सुलभ ने कहा कि पत्रकारिता
को मनुष्यता का पक्षधर बनना होगा। उन्होंने कहा कि बिहार की राजनीतिक चेतना बेहद
सजग है तथा रचना अपना समय लेती है. यह कई
जटिल परिस्थितियों से गुजरती है. प्रेमचंद के सवाल पर उन्होंने कहा कि प्रेमचंद
नहीं होते तो रेणु नहीं होते और अज्ञेय नहीं होते। प्रेमचंद हमारे पुरोधा हैं, हमारी नींव हैं. इस सत्र में अपने विचार रखते हुए रामधारी सिंह दिवाकर ने कहा
कि साहित्य पुरस्कार का मोहताज नहीं है तथा साहित्य को पुरस्कार से जोड़कर नहीं
देखना चाहिए. उन्होंने ध्यान दिलाया कि कई बड़े साहित्यकारों को पुरस्कार नहीं मिला
तथा लेखक जमीन की उपज है.इस सत्र में
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए शिवदयाल ने कहा कि आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन का कारक है.
बिहार के सवाल पर उन्होंने कहा कि बिहार का इतिहासबोध आम भारतीयों से अलग है तथा
बिहार अपने से ज्यादा दूसरों को देखता है.
बिहार संवादी
का दूसरा सत्र में 'मोहब्बत, मोहब्बत, मोहब्बत' पर रत्नेश्वर, गीताश्री तथा गिरिन्द्रनाथ झा से भावना शेखर ने बातचीत की.सत्र की शुरुआत करते
हुए गिरिन्द्रनाथ झा ने कहा कि फसल किसान के लिए बच्चे जैसा है- ननफरत का कारोबार
प्रेम पर सिर्फ बात करने से बंद नहीं होगा। उन्होंने कहा कि सच लिखना हमारा
कर्तव्य है तथा वे प्रेम में गांव की तरफ लौटते हैं। प्रेम पर बात करते हुए
उन्होंने आगे कहा कि दादा-दादी द्वारा लिखे गर पुरानी चिट्ठियों के कागजों में
प्रेम की सुगंध आती है. उन्होंने जोर देकर कहा किप्रेम की बातें करने से पहले अपने
घर मे झांकना जरूरी है।चर्चा को आगे बढ़ाते हुए भावना शेखर ने कहा कि प्रेम दुनिया
की मौलिक भावना है तथा प्रेम के जड़ में भावुकता है जो आज बदल रहा है। उन्होंने कहा
कि मोह निचले स्तर का प्रेम है तथा पहले प्रेम चासनी की तरह धीरे-धीरे पकता था.
मोहब्बत पर बात करते हुए गीताश्री ने कहा कि जब हम ही नहीं बचेंगे तो किससे
मोहब्बत करेंगे। उन्होंने कहा कि इंसान मोहब्बत की ही देन है तथा योग मुक्ति की
तरफ़ भी ले जाता है। उन्होंने आरोप लगाया कि पुरूष महिलाओं से प्रेम उनकी देह को
प्राप्त करने के लिए करते हैं जबकि देह से मन की यात्रा करना चाहती है.रत्नेश्वर
ने कहा कि जिसके भीतर प्रेम नहीं वो मनुष्य ही नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रेम भाव
आते ही शब्द गायब होने लगता है तथा प्रेम एक योग है, साधना है.
तीसरे सत्र 'रचनात्मकता का समकाल' पर अवधेश प्रीत, अनु सिंह चौधरी, संतोष दीक्षित, अनिल विभाकर ने अपने विचार रखे. कार्यक्रम के शुरुआत में अवधेश प्रीत ने कहा
कि उपेक्षित होना ही समकालीनता नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद की वैचारिकी वह
आज भी प्रासंगिक है:। उन्होंने जोर देकर कहा कि एक ही समय में विभिन्न पीढियां
सत्य को किस रूप में देख रही है यह महत्वपूर्ण है तथा यह आपका यह चयन है कि आप
क्या पढ़ते हैं। अनु सिंह चौधरी ने कहा कि हमें अपनी नजर के प्रति ईमानदार होकर
लिखना चाहिए। उन्होंने कहा कि स्त्रियों की कहानियों से पुरूष सरोकार गायब हो जाते
हैं तथा हमें जिसकी समझ होती है हम वही लिखते हैं। अनु सिंह ने कहा कि अपनी रचनाओं
में आपकी समझ दिखती है तथा आज के युवा
पढ़ते कम हैं। उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि पाठकों की कमी आज के रचनाकार की सबसे बड़ी
समस्या है.अनिल विभाकर ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि भूतकाल की बात समकालीन नहीं होता तथा समकालीनता
की बात प्रासंगिकता से समझना ज्यादा उचित है। उन्होंने कहा कि अपने समय का सत्य
लिखना ही समकालीन लेखन है। उनकी चिंता थी कि
लेखक का सम्मान घटना आज के समय में सबसे बड़ी चुनौती है तथा आज लेखक की विश्वासनियता पर सवाल खड़े हो गए
हैं।संतोष दीक्षित ने कहा कि आज का समाज सबसे ज्यादा बंटा हुआ है तथा आज का समय लेखकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
आज के समय पर दुःख जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि सिर्फ पाने की चाह है, योग्यता की बात कोई नहीं करता है इसलिए लिए कालबोध अत्यंत जरूरी है। नव लेखन
के सवाल पर उन्होंने कहा कि नए लेखक पूंजीवाद से बहुत ज्यादा प्रभावित है तथा
उनमें पहचान पाने की संकट है।
आज के चौथे
सत्र ' बिन बोली भाषा सून' का में बिहार की विभिन्न भाषाओं पर चर्चा का आयोजन किया गया. सत्र का संचालन
अनंत विजय ने किया.चर्चा के दौरान निराला तिवारी ने कहा कि भाषाओं ने बोली को खड़ा
किया है तथा साहित्य संविधान के दायरे से बाहर की चीज है। उन्होंने कहा कि
देवनागरी हिंदी की अपनी लिपि नहीं है तथा लोकभाषाओं में आपस में कोई तकरार नहीं
है। एक सवाल के जबाब में उन्होंने कहा कि हम अपने नायकों को अपनी भाषा में खड़ा
करेंगे।चर्चा के दौरान प्रो० वीरेंद्र झा ने कहा कि मैथिली शांतचित्त तथा प्रिय
लोगों की भाषा है। उन्होंने कहा कि बोली से भाषा बनने की लंबी प्रक्रिया होती है
तथा मैथिली क्षमा करने की भी भाषा है।अनिरुद्ध सिन्हा ने अपने वक्तव्य में कहा कि
हिंदी सर्वजातीय भाषा और जातियों का समूह है तथा पूरे भारत में 600 भाषा तथा 5000 बोलियां हैं। अंगिका के सवाल पर उन्होंने कहा किभोजपुरी के बाद सबसे बड़ा क्षेत्र अंगिका का है।
उन्होंने चिंता जाहिर किया कि राजनीति की तरह भाषा में भी कटुता समाप्त नहीं हो
सकता।
दुसरे दिन के पांचवे सत्र 'सीता के कितने मिथ' पर प्रो० तरुण कुमार
तथा आशा प्रभात से प्रेम भारद्वाज ने बातचीत किया.अपने वक्तव्य में प्रो० तरुण
कुमार ने कहा कि रामकथा के किसी सुनिश्चित बात की वकालत करना दुराग्रह है तथा के
निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा
कि कई जगहों पर हनुमान की शादी का वर्णन अत्यंत विस्तार से किया गया है। साथ ही
अलग-अलग देशों में रामकथा का वर्णन अलग-अलग तरीकों से किया गया है। रामकथा का
वर्णन हर जगह अपने हिसाब से किया गया है। उन्होंने कहा कि सती के आदर्श के रूप में
पुरुषों को सावित्री अच्छी लगती है। आशा प्रभात ने कहा कि रामायण में राम के
महिमामंडन की कोशिश की गई है तथा सीता को त्याग
के प्रतीक के रूप में दिखाया गया है। उन्होंने कहा कि आज के पुरुषों से बेहतर थे
क्योंकि उन्होंने सीता के साथ बलात्कार नहीं किया।
बिहार संवादी के दूसरे दिन के छठे सत्र 'परिधि से केंद्र की दस्तक' में डॉ सुनीता गुप्ता, महुआ मांझी तथा सुशील कुमार भारद्वाज से शहंशाह आलम ने बात की.सत्र की शुरुआत
करते हुए डॉ सुनीता गुप्ता ने कहा कि सदियों
से औरतों को चुप रहने को कहा गया है। उन्होंने उल्लेख किया कि सीता को
स्त्रियों के लिए आदर्श के रूप में दिखाया गया है तथा सारी रामकथाएं पुरुषों
द्वारा अपने तरीके से लिखी गई हैं। उन्होंने कहा कि औरत की संवेदना की कथा लोकगीतों में वर्णित है
तथा औरत को समाज की मुख्यधारा से अलग रखने के लिए मिथक गढ़ा गया है। उन्होंने ध्यान
दिलाया कि समाज में कोई सत्तात्मक शब्द नहीं होना चाहिए तथा स्त्री रचनाकारों को
लंबे समय से उपेक्षित किया जाता रहा है। साथ ही उन्होंने 21 वीं सदी को स्त्री साहित्य का काल भी कहा.चर्चा के दौरान महुआ मांझी ने कहा
कि मानव तस्करी की समस्या झारखंड की सबसे बड़ी समस्या है। उन्होंने ध्यान दिलाया कि
आदिवासिओं की कई समस्याएं साहित्य का विषय
नहीं बन पाता है तथा साहित्य के पास लोग समाज के लोगों की जीवन को समझने के लिए
आते हैं।सुशील कुमार भारद्वाज ने कहा कि जाति और धर्म अब रंग के हिसाब से बदल जाता
है। उन्होंने कहा कि दुनिया में दो ही तरह के इंसान हैं, शासक या शासित।
बिहार संवादी के दूसरे दिन के सातवें सत्र 'धर्म और साहित्य' पर प्रसिद्ध लेखक श्री
नरेंद्र कोहली ने।अपने विचार रखे. उनसे बातचीत श्री एस पी सिंह ने की.नरेंद्र
कोहली ने धर्म और साहित्य के सभी पहलुओं पर विस्तार से बात किया. उन्होंने कहा कि
रामायण का पाठ करते-करते इस तरह के लेखन की ओर आकृष्ट हुआ। लिखने के लिए पढ़ना जरूरी
था, अतः धर्मशास्त्रों का अध्ययन करना
शुरू किया. तत्पश्चात लेखन की शुरुआत की। उन्होंने कहा कि हम सबके मन में रामायण
और महाभारत को लेकर प्रश्न हैं तथा उन सवालों का जबाब ढूंढने के लिए हमेें उन
ग्रंथों को पढ़ना पड़ता है.महाभारत के सवाल पर उन्होंने स्पष्ट कहा कि धर्म की रक्षा
के लिए लड़ना हिंसा कतई नहीं है. अपने वक्तव्य में उन्होंने कृष्ण-अर्जुन संवाद का
भी उल्लेख किया.उन्होंने कहा कि रामायण और महाभारत काल में भी टेक्नोलॉजी मौजूद था
तथा उसका स्तर काफी ऊंचा था. उस समय भी शल्य चिकित्सा तथा विज्ञान के अन्य पहलू
मौजूद थे.उन्होंने कहा कि कोई भी युग अवैज्ञानिक नहीं रहा है।हर युग में विज्ञान
मौजूद रहा है. महाभारत और रामायण के समय में भी विज्ञान अपने मूर्त रूप में मौजूद
था.
बिहार संवादी के दूसरे दिन के आठवें और अंतिम सत्र में अभिनेता
पंकज त्रिपाठी से विनोद अनुपम ने बातचीत किया. विषय था 'सिनेमा में बिहार' सवालों के जबाब में
पंकज त्रिपाठी ने कहा कि बिहारियों ने सिनेमा में जाकर कई मिथक तोड़े। उन्होंने कहा
कि कैमरे के सामने एक अभिनेता की आत्मा दिख जाती है। भाषा के सवाल पर उन्होंने कहा
कि सिनेमा में आपकी बोली और उच्चारण बहुत
मायने रखता है। साथ ही अभिनेता को हर तरह
के किरदार के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए- पंकज त्रिपाठी ने बताया कि बॉलीवुड में
स्थान बनाने में 14 साल लग गए पर
अभिनेता बनने की चाहत रखने वाले युवाओं
में हार नहीं मानने की चाहत होनी चाहिए- पंकज त्रिपाठी ने जोर देकर कहा कि किसी भी
काम के लिए हॉबी के साथ-साथ मेहनत तथा ट्रेनिंग बहुत जरूरी है तथा विचार के बगैर
अभिनय नहीं हो सकता है.
.......
प्रस्तुतकर्ता- हेमन्त दास 'हिम' / सिद्धेश्वर प्रसाद
नोट: रिपोर्ट के तैयार करने में संतोष कुमार द्वारा प्रेषित प्रेस विज्ञप्ति का महात्वपूर्ण योगदान है. कार्यक्रम से संबंधित अन्य चित्रों को शामिल करवाने हेतु ब्लॉग पर या शेयर किये गए लिंक वाले फेसबुक पोस्ट पर कमेंट करके बताएँ और editorbiharidhamaka@yahoo.com पर ईमेल के द्वारा भेजें.
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