बिहार आदिकाल से अपनी विशिष्टताओं के लिए चर्चित रहा
है।बिहार का उत्तर और पूर्वी भाग मिथिलांचल इसका अभिन्न अंग रहा
है।मिथिलांचल की सांस्कृतिक विलक्षणता अद्वितीय है।इसी सांस्कृतिक
विलक्षणता और गहन सृजनधर्मिता का उदाहरण है --- मिथिला पेंटिंग । इसे
मिथिला की चित्रकला , मिथिला पेंटिंग और मधुबनी पेंटिंग के नाम से भी जाना
जाता है। मिथिला की इस चित्रकला का यह यश अब बिहार या भारत ही नहीं ,
बल्कि पूरी दुनिया तक अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर चुका है।पूरी दुनिया के
कला-समीक्षक अब इस चित्रशैली को जानने और पहचानने लगे हैं। बीसवीं सदी के
उत्तरार्द्ध के बाद भयंकर बाढ़ की विभीषिकाओं ने जब मिथिलांचल की
अर्थ-व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दी थी , तब मूलतः कृषि पर आधारित यहाँ की
अर्थव्यवस्था लगभग चरमरा-सी गई थी।इसी संकटकाल में जितवारपुर और मधुबनी के
आसपास की महिलाओं ने अपनी चित्रकला को आर्थिक सहयोग का आधार बनाने का
प्रयत्न किया।इसी कोशिश का नतीजा था कि मधुबनी से बाहर के लोगों को भी इस
अचरजभरी लोककला का भान हुआ।गाँव की कमपढ़ और उम्रदराज़ महिलाओं की परम्परागत
कला-शैली पर बिहार के संस्कृतिप्रेमियों का ध्यान गया।बिहार सरकार ने भी
इस पर कमोबेश ध्यान देना शुरू किया।लोककलाप्रवाह की यह अविरलधारा आज भी
सृजनात्मकता के नए क्षितिज को छूने की अनंत संभावनाओं से परिपूर्ण है।
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Madhubanin Painting by Bharti Lal |
~~~~||||~~~~~ मिथिला चित्रकला का आरम्भ राजा
सीरध्वज ( जनक) के काल से बताया जाता है।इसमें दो मत नहीं कि मिथिला
चित्रकला का सरोकार लोक से रहा है। इसका प्रयोग भी धार्मिक और सामाजिक
संस्पर्श के साथ किया जाता रहा है।अतः इसका उत्स भी कम पुराना नहीं
है।1930 के दशक के मध्य में कला-पारखी डब्ल्यू जी आर्चर और उनकी पत्नी
मिल्ड्रेड ने इसे पहचाना , कलाजगत में इस पर चरचा की , और इसकी बारीकियों
और मौलिकता के कायल हुए।1934 में बिहार में आये भूकम्प के दौरान राहतकार्य
के दायित्व से जुड़े इस अंग्रेज अधिकारी ने भूकम्प में क्षतिग्रस्त मिथिला
के हृदयस्थल के कुछ घरों को देखा । इसी दौरान भित्तिचित्र ने इन्हें
आकर्षित किया।फिर इस कला के कई आयाम को देख-समझकर दंग रह गए।फ़टाफ़ट
फोटोग्राफ्स लिए।महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे।आज़ादी के बाद इस
काम में ठहराव आ गया।यह लोककला अपने प्रदेश में ही लगभग उपेक्षित
रही।अनगिनत मातृशक्तियों की कलासाधना का प्रवाह अहर्निश चलता ही रहा। यह
साधना रँग भी लाने लगी।भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद ,
तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री और बाद में लौह-महिला श्रीमती
इंदिरा गांधी ने भी मधुबनी और उसके आसपास बने कलाक्षितिज की भूरि-भूरि
प्रशंसा की।1960 के दशक में ऑल इण्डिया हैन्डीक्राफ्ट बोर्ड की तत्कालीन
निदेशक पुपुल जयकर ने मुम्बई के कलाकार भास्कर कुलकर्णी को मिथिला क्षेत्र
की चित्रकला को जाँचने, परखने और समझने के लिए भेजा गया। इसका अच्छा परिणाम
सामने आने लगा। 1960 के दशक के मध्य से ही मधुबनी पेंटिंग ने अपनी पहचान
गहरी कर ली। पद्मश्री सीता देवी की कीर्तिगाथा भारत के बाहर भी गूँजती
रही। जितवारपुर की सीता देवी ने मिथिला चित्रकला के इतिहास में स्वर्णिम
अध्याय को जोड़ा।वर्ष 2005 में लगभग 92 वर्ष की आयु में इनका देहान्त
हुआ।बिहार-रत्न और पद्मश्री सहित कई पुरस्कारों से पुरस्कृत -सम्मानित
सीता देवी ने भारत के बाहर विदेश के कलाप्रेमियों को भी चमत्कृत कर दिया
था।पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त वर्ल्ड ट्रेड सेंटर , आर्लिंगटन नेशनल
सिमेटेरी , 19वीं सदी के न्यू यॉर्क के भवनों का समक्ष चित्र बनाकर विश्व
को अपने हुनर का कायल बना लिया था।लन्दन के विक्टोरिया और अल्बर्ट म्युज़ियम
, लॉस एंजेल्स के काउंटी म्यूजियम ऑफ़ आर्ट, फिलाडेल्फिया म्युज़ियम ऑफ़ आर्ट
, मिथिला म्यूजियम ऑफ़ जापान एवम् the musee dy quai Branly Paris
इत्यादि कला-संग्रहालयों में सीता देवी की कला की बानगी को सादर रखा गया
है।सृजन की इसी लय को बनाए रखने में पद्मश्री महासुन्दरी देवी (1922-2013)
और पद्मश्री बौआ देवी का अकथनीय योगदान रहा है। मेरा परम् सौभाग्य था कि
आयकर विभाग के 150वें वर्षगाँठ पर बिहार आर्ट कॉलेज में आयोजित एक
अतिविशिष्ट कार्यक्रम में अतिविशिष्ट अतिथि के रूप में पद्मश्री महासुन्दरी
देवी को अपनी शिष्याओं के साथ देखने और समझने का अवसर मिला।इस दौरान
चित्रकला का विशेष कार्यक्रम दो दिनों तक चला था।महासुंदरी देवीजी की सहजता
, सरलता और विनम्रता अनुकरणीय थी । इस आयोजन के बाद फिर उनके दर्शन नहीं
हुए।उसी साल काल उन्हें हमसे छीन ले गया।वर्ष 1961 ई0 से ही कलासाधना से
अपनी पहचान बनानेवाली महासुंदरी देवी को लगभग 28 राज्य से लेकर राष्ट्र
स्तरीय पुरस्कार मिले थे।#महासुन्दरी
देवी का जन्म मधुबनी के पास राँटी में हुआ था।बचपन में ही माता-पिता के
निधन के बाद इनकी काकी ने इनका पालन-पोषण किया। अपनी काकी देवसुन्दरी देवी
से इन्होंने करची-कलम कुछ इस तरह पकड़ी कि दीर्घ-साधना से इतिहास रचने का
निर्विकल्प संकल्प बन गया।परम्परा और प्रयोग की जो मिसाल इन्होंने पेश की
वह मिथिला चित्रकला की सौंदयचेतना को नया आयाम प्रदान किया।
पद्मश्री सीता देवी और पद्मश्री महासुन्दरी देवी के साथ -साथ पद्मश्री बौआ
देवी का योगदान भी सराहनीय रहा है।प्रथम दो महीयसी नारियों के महाप्रस्थान
के बाद आप ही लीविंग लीजेंड हैं।आप ने इस कलाशैली को जनप्रिय बनाने और
आगे बढ़ाने का जो दायित्व लिया है , वह संकल्प स्तुत्य है।इस क्षेत्र में
रसीदपुर गाँव की गंगा देवी एवम् जितवारपुर की ही जगदम्बा देवी का भी योगदान
अनमोल रहा है।जिस चित्रशैली को इन महीयसी कलानेत्रियों ने नया आयाम दिया
,उसे एक कला-आंदोलन के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है।इस क्षेत्र में
हज़ारों कलाकार लगे हैं।मिथिलांचल और बिहार के बाहर भी इस पर काम हो रहा
है।
परम्परा और प्रयोग :
^^^^^^^^^^^^^^^^^ भित्ति चित्र और
अल्पना (अरिपन) की चित्र-शैली का घर, आँगन और द्वार से आगे निकलकर कागज ,
कैनवस और हस्तनिर्मित कागज पर यह कला निखर रही है।यह चलन एक क्रांति साबित
हुई।इसकी उपयोगिता और स्वीकार्यता देश-विदेश तक पहुँच गई।
परम्परा के अनुसार सरल और सुलभ स्थानीय स्रोत से रँग प्राप्त किये जाते रहे
हैं। हरी पत्तियों से हरा रँग , गेरू से लाल , काजल और कालिख से काला,
सरसों और हल्दी से पीला और सिंदूर से सिंदूरी रँग ग्रहण किया जाता रहा
है।पिसे हुए चावल , गोबर , पीपल की छाल और दूध का प्रयोग भी इस कला में
होने का चलन रहा है। समकालीन मिथिला चित्रकला में ज़्यादातर कलाकार देसी और
प्राकृतिक रँगों के बदले एक्रिलिक रँगों का इस्तेमाल करने लगे हैं, जिससे
उनके बिखरकर बेतरतीब होने का जोखिम कम हो जाता है।रँगों में पकड़ बनाने के
लिए बबूल के गोंद का भी प्रयोग होता है। पहले प्रायः गहरे चटख रँगों का
प्रयोग होता था।फिर कुछ हल्के रँगों का प्रयोग होना शुरू हो गया। पीला ,
गुलाबी और नींबू के रंग भी प्रयोग में आने लगे।माचिस की तीली और बाँस की
करची को कूची के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है।पारम्परिक प्रसंगों के
अतिरिक्त कुछ नए विषय भी इस चित्रशैली में व्यक्त होने लगे हैं।हाल ही
नेपाल में आये भूकम्प की त्रासदी को भी इस कला द्वारा व्यक्त किया गया है।
राजा सल्हेस की लोककथाओं के प्रसंग को (मिथिला चित्रशैली में ) दलित
महिलाओं द्वारा अभिव्यक्त करना इस कला -शैली के लिए नई और उर्वर जमीन तैयार
कर रहा है। यह इस शैली का नया आयाम है।
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Madhubani painting by Bharti Lal |
वर्त्तमान विमर्श :
~~~~~~~~ लोककला को तुच्छ और हेय समझने की मानसिकता अभी गई नहीं है।अपनी
लोकसंस्कृति पर गर्व करना अब भी हमें नहीं आ सका है। लोककलाकारों को
बिचौलियों से बचाना भी आवश्यक है।आज के बाज़ारवाद ने हर जगह बिचौलियों का
वर्चस्व खड़ा कर दिया है। कलाकार भी इसे शुद्ध व्यापार समझने की भूल न
करें।यह साधना है।प्रमुख और अंतिम लक्ष्य धनार्जन नहीं है।सरकार , कलारसिक
और संस्थाएं इसके संरक्षण में आगे आएँ ताकि इसकी गुणवत्ता बनी रहे , और
इसका मूल स्वरूप भी सुरक्षित रहे।मिथिलांचल की राजनीति करनेवाले इस कला
-विरासत को बचाने और बढ़ने के लिए आगे आएँ।स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम में
मिथिला चित्रकला को उचित स्थान मिले।संस्कृति मंत्रालय , ललितकला अकादमी और
अन्य राज्य-संपोषित संस्थाओं के अतिरिक्त जन-गण-मन को भी सांस्कृतिक
पुनर्जागरण का संकल्प लेना चाहिए।तथा अस्तु।
****** © कॉपीराइट प्रभावी।
लेखक : भागवत शरण झा ‘अनिमेष’ मोबाइल: 91-8986911256
(English Translation made by Google)
Artistic Zenith of Women-Power: Mithila Paintings
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By: Bhagwat Sharan Jha 'Animesh'
Bihar has been known for its specialties. It has been an integral part of the north and eastern part of Bihar. The cultural singularity of the hill is unique. This is an example of cultural extravagance and intense creativity --- Mithila painting. It is also known as Mithila painting, Mithila painting and Madhubani painting. Bihar's Mithila painting's fame is not only India, but the world has documented the presence of the whole world knowing art critic and began recognizing this Citrshaili. After the latter half of the twentieth century, when the floodwaters of the floods had disrupted the economy of Mithilanchal, then the economy here, based on agriculture, was almost staggering.In this crisis, women around Jitwarpur and Madhubani Tried to make their painting the basis of economic cooperation. The result of such an effort was that the people outside Madhubani also got to know this astounding folk art.
Beginnings and Development:
~~~~ |||| ~~~~~ Beginning of Mithila painting
King Sirdwaj (Parent) from the time the odds are told not to do two of the Mithila folk art is concerned. Its use has also been done with religious and social intercourse. Therefore its festivity is not too old. In the mid-1930s, art-connoormant WG Archer and his wife Mildred recognized it, in the art world, and convincing detail and originality in the 0.1934 during the earthquake in Bihar Rahtcary liability associated with the British official in quake damaged Mithila Hridays The site saw some houses. Graffiti attracted them. Then many aspects of this art were amazed to see them. For fast photographs. Writing articles in important journals. After the independence, this work stopped. This folk art is in its territory Nearly neglected.Anglacious flow of countless mothers continued to flow. This practice will bring the color Lgikbart 0 Rajendra Prasad, the first President, the then Prime Minister Lal Bahadur Shastri and Indira Gandhi later iron women of Madhubani and Klakshitij turned around in the early 1960's lauded All India Pulul Jayakar, the then Director of Handcrafted Board, examined the artist of Mumbai, Bhaskar Kulkarni, to see the painting of Mithila area. And sent him to understand. The best result was coming. Since the mid-1960s, Madhubani painting has deepened its identity. Padmashri Sita Devi's kirtigatha also echoed outside of India. Sita Devi Jitwarpur golden chapter in the history of Mithila painting Jodhakwars their death in 2005 at the age of around 92, including Huakbihar Ratna and Padma Shri awards honored the goddess Sita out of India to foreign art lovers Apart from conventional subjects, the World Trade Center, Arlington National Cemetery, the 19th century New York buildings Q made a convincing picture of their skills to the world by the Victoria and Albert Museum Thaklndn, Los Angeles County Museum of Art, Philadelphia Museum of Art, Museum of Mithila Japan-and the musee dy quai Branly Paris art museums etc. Sita the hallmark of the art of the goddess placed Haksrijn regards to maintain the same rhythm Mahasunderi Padma Devi (1922-2013) and Padma Devi inexplicable Bua YSS Is not. I was fortunate that department Prm 150th anniversary Bihar College of Art held a very special guest in the VIP program Mahasunderi Padma Devi with his female disciples Milakis the opportunity to see and understand the special program of painting that lasted two days The ease, simplicity and modesty of Mahasamandri Devi were exemplary. He was not seen again after this event. He was taken away from us for the same year. Mahasundari Devi, who made his identification from Kalashadana since 1961, received about 28 states and nation-level awards. # Mahasundari Devi was born in Madhubani After the death of the parents in childhood, his uncle has nurtured them. From his Kaki Devasundari Devi, he got the taxis and pen somehow caught up in such a way that it was the resolve of creating history by long-pursuit. The example of Parampara and experiment that he presented presented a new dimension to the beauty of Mithila painting.
Padma Shri and Padma Shri Sita Devi Devi Mahasunderi Bua Padma Devi, along with two Mahiysi Hakprtham commendable contribution of women after Mahaprsthan the Klashaili you to the living legend of popular and has the obligation to pursue the , the resolution in this iconic and-Jitwarpur Rsidpur village of Ganga Devi Goddess Jagdamba of the precious contribution for which I Citrshail A new dimension to these Mahiysi Klanetriyon, it needs to be established as an art movement in this area for thousands of Bihar and outside Hankmithilancl artist began working on it happening.
Tradition and experimentation:
^^^^^^^^^^^^^^^^^ This art is fading on paper, canvas and handmade paper by moving beyond the picture-style house of murti and Alpana, ahead of the courtyard and doorway. the practice proved a revolution Huikiski utility and acceptability abroad went up.
According to tradition, ranges have been obtained from simple and accessible local sources. Green rings with green leaves, red from red, mascara and blacksmiths, black beans and turmeric with yellow and vermilion have been used to get the Sindoori rang. The use of burnt rice, dung, peepal bark and milk should also be used in this art Has been running. In contemporary mithila painting, most of the artists are beginning to use acrylic clumps instead of native and natural colors, which reduces their risk of disrupting them. Acacia gum is also used to make grip in rings. Rँgon often used before was there something deeper bright light began to be used Rँgon. The colors of yellow, pink and lemon also started to be used. The Karachi of the meshes and the bamboo used to be used as a kuchi. Apart from traditional contests, some new topics have also been expressed in this diagram. The earthquake tragedy has also been expressed by this art. Expressing the context of the folklore of King Sulhees (in Mithila picture style) by Dalit women, it is preparing new and fertile ground for this art style. This is a new dimension of this style.
Current discussions:
~~~~~~~~ Folk pinpoint and understand the mindset went down upon not to take pride in your in popular culture, but we could not. Lokklakaron necessary to protect today's Bajharwad middlemen everywhere dominated by intermediaries has caused. Do not forget to understand this as a pure business. This is a sad business. The main and final goal is not revenue collection. The government, the Kalarasi and the institutions come forward in its protection so that its quality remains, and its original form should also be safe.Mithilanchal's politics those who save and move on to the art -virast Aaakskul and college courses in the proper location Mileksnskriti Ministry Mithila painting, Litkla Academy and other state institutions, in addition to sustaining the cultural renaissance of Jana Gana Mana Chahia.ttha therefore be determined.
****** © Copyright
Writer: Bhagwat Sharan Jha 'Animesh' Mobile: 91-8986911256
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