**New post** on See photo+ page

बिहार, भारत की कला, संस्कृति और साहित्य.......Art, Culture and Literature of Bihar, India ..... E-mail: editorbejodindia@gmail.com / अपनी सामग्री को ब्लॉग से डाउनलोड कर सुरक्षित कर लें.

# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

यदि कोई पोस्ट नहीं दिख रहा हो तो ऊपर "Current Page" पर क्लिक कीजिए. If no post is visible then click on Current page given above.

Friday, 23 February 2018

साहित्य परिक्रमा की कवि गोष्ठी पटना में 22.2.2018 को सम्पन्न

पोंछ कर हाथ चल दिये साहिब / उनकी खातिर मैं तौलिया ठहरा


साहित्य परिक्रमा द्वारा एक कवि गोष्ठी 22.2.2018 को चाँदमारी रोड, पटना के सभागार में आयोजित हुई जिसमें अनेक जाने माने कवि-कवयित्रियों ने भाग लिया. कार्यक्रम की अध्यक्षता बिहार राज्य की हिन्दी प्रगति समिति के अध्यक्ष कवि सत्यनारायण ने की और उनके जाने के बाद अध्यक्षता भगवती प्रसाद द्विवेदी ने सम्भाली. मुख्य अतिथि थे भागलपुर से पधारे कवि डॉ. अरबिन्द कुमार और संचालन किया हेमन्त दास 'हिम' ने. मंचासीन अन्य कवि थे मृत्युंजय मिश्र 'करुणेश', जितेंद्र राठौर, समीर परिमल, विश्वनाथ वर्मा, अविनाश पाण्डेय और लता प्रासर. काव्य पाठ करनेवाले अन्य कविगण थे- नसीम अख्तर, डॉ. रामनाथ शोधार्थी, संजीव कुमार श्रीवास्तव, मधुरेश शरण, सिद्धेश्वर प्रसाद, हरेंन्द्र सिन्हा, उषा नेरुला आदि. होली के अवसर पर फागुनी रंग में रंगी रचनाओं के अतिरिक्त गम्भीर कविताएँ भी पढ़ी गईं.  राष्ट्रीय कवि संगम के बिहार प्रांत के संयोजक अविनाश पाण्डेय ने अपने व्हाट्सएप्प ग्रुप की जानकारी दी और कहा कि हालाँकि उनके ग्रुप में वरिष्ठ कविगण भी हैं किंतु यह मूल रूप से युवा कवियों का ग्रुप है और बिहार के 19 जिला इससे जुड़ चुके हैं. इस अवसर पर भगवती प्र. द्विवेदी, मधुरेश नारायण और  हरेंद्र सिन्हा द्वारा सम्पादित पत्रिका 'लोकचिन्तन' का लोकार्पण भी हुआ.

पढ़ी गई कविताओं की एक झलक नीचे प्रस्तुत है-

1.तूने चाहा नहीं हालात बदल सकते थे 
मेरे आँसू तेरी आँखों से निकल सकते थे
2.मैं चला अपना घर जलाने को
रौशनी चाहिए जमाने को
(नसीम अख्तर)

1.गूँथता रहता हूँ अल्फाज को आँटे की तरह
बावजूद इसके मुझे रोटी मयस्सर नहीं
2.यूँ टकटकी लगा के मत देख
धीरे धीरे कहीं सुलग न जाऊँ मैं
(डॉ. रामनाथ शोधार्थी)

पोंछकर हाथ चल दिये साहिब
उनकी खातिर मैं तौलिया ठहरा
सुन रहा हूँ कि शह्र में तेरे
मैं सियासत का मुद्दआ ठहरा
(समीर परिमल)

इस धरती पर लाकर जिसने पहचान दी सब को
भूखे रहकर भूख मिटाई जिसने हम सब को 
माता उसको नमन.
कविता के अलावे उन्होंने हिंदी लोकप्रिय गीत के संस्कृत अनुवाद भी सुनाए.
(अविनाश पाण्डेय)

जीवन खत्म हुआ तो जीने का ढंग आया
जब शमा बुझ गई तो महफिल में रंग आया
(उषा नरुला)

बीबी एक सुनियोजित आतंकवाद है / प्रेमिका तस्करी का माल है
बिबी सत्यनारायण का प्रसाद है तो प्रेमिका प्रसाद है
(विश्वनाथ वर्मा)

बच्चा भगवान होता है / माँ बाप नहीं हो सकते भगवान
भगवान से इनसान बनते बनते / सीख लेता है बच्चा
इस जगत के सैकड़ों अपराध 
(सिद्धेश्वर प्रसाद)

'पवनार के आश्रम में ' शीर्षक अपनी प्रसिद्ध रचना का पाठ किया.
(डॉ. अरबिन्द कुमार)

फागुन मनवा गा रहा / सुन लो मेरे मीत
कण कण बाजे संगीत / गूँज रही है प्रीत
(लता प्रासर)

बंद कमरे की तरह होती है / महानगर की जिंदगी
जिसमें दरवाजे तो होते हैं / लेकिन खुलते नहीं कभी
(संजीव कुमार श्रीवास्तव)

यह रंगों की रात अबीरी गंधों की / पोर पोर में फागुन तुमको डँस जाये तो
ये सेंदूर की नदी सामने बढ़ आई / लहर कलाई की चूड़ी सी चढ़ आई
(सत्यनारायण)

मूल्क का आधा नक्शा / कल बकरी चबा गई
बाकी अब मेमना चबाएगा / समाजवाद आएगा जरूर आएगा
(-जितेंद्र राठौर)

नाम ही रहता है जग में, दौलत काम न आया है
हाथ उठे दूसरों की मदद में, सबकुछ वही तो पाया है
थे हाथ सिकन्दर के खाली, जब कूच किया जग से प्यारों.
(मधुरेश नारायण)

1. हर साल चकाचक आबेला / बिछुड़ल लोगन के मिलावेला
2.यह जीवन  है अनमोल सखी / मीठे मीठे तू बोल सखी
(हरेन्द्र सिन्हा)

यार कुछ यार से माँगे भी तो यारी माँगे / आज जो पास तेरे कल वो खजाना न रहे
दुश्मनी तो हो पर ये भी दुश्मनी कैसी / दुश्मनों से भी अगर दोस्ताना न रहे
(मृत्युंजय मिश्र 'करुणेश')

सोचने की जगह होगी / केवल किताब
ईश्वर का नाम हो जाएगा कबूतर / जिसे उड़ाएंगे बूचर
(श्रीराम तिवारी)

जब हर किसी ने हर किसी का / छोड़ दिया हो साथ
छुपी हुई लिप्सा मात्र से /मिला रहे सब हाथ
तुम्हें सपर्पित मेरा स्वार्थरहित आलिंगन / तुम आ जाना
(हेमन्त दास 'हिम')

तमतमाये / चेहरे / पलाश हो गए हैं 
काँखों में / दहशत के / बीज बो गए हैं
आँगन में उतरा पतझार / मातमी शिकंजे कसते
(भगवती प्रसाद द्विवेदी)
.......
रिपोर्ट के लेखक- हेमन्त दास 'हिम' / मधुरेश नारायण / लता प्रासर



































































Monday, 19 February 2018

भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की कवि गोष्ठी 18.2.2018 को पटना में संपन्न

काँटों को भी अबीर लगाती हुई कली


होली तो आनेवाली है पर लोगों के मिजाज को रंगीन बनाने के लिए अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. सत्तर के दशक में स्थापित भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की 18.2.2018 को राजेंद्रनगर पटना रेलवे टर्मिनस पर आयोजित कवि गोष्ठी में होली की बहार लाने की पुरजोर कोशिश हुई. कवि-कवयित्रियों की यह काव्य सभा राजेंद्रनगर पटना रेलवे स्टेशन के फनीश्वरनाथ रेणु हिन्दी पुस्तकालय के कक्ष में हुई जिसकी अध्यक्षता भगवती प्रसाद द्विवेदी और संचालन नसीम अख्तर ने किया.

शमा क़ौसर ने  बुझा डालने का खौफ पैदा करनेवाली हवाओं के द्वारा ही बचाव पाने का दृश्य रखा. फिर  लोगों की जरूरतों के लिए खुद को जलाये रखने का संदेश दिया-
1.जज़्बा-ए-इश्क को यारों ने संभाले रखा / जैसे खुशबू को गुलाबों ने सम्भाले रखा
जिन हवाओं से खौफ था जल बुझने का / उन्हीं तुंद हवाओं ने जलाये रखा
डूब ही जाती मेरी कश्ती गर्दाबों में / उसको दरिया के किनारों ने संभाले रखा
2. घर में दीवार उठ गई हर सू / कि अपनो में अदावत है बहुत
तुमको जलना ही पड़ेगा ऐ शमा / कि लोगों को तुम्हारी जरूरत है बहुत

लता प्रासर ने प्रेम से परिपूर्ण कुछ पंक्तियाँ सुनाई-
अणु अणु जब जुड़ जाए और सब के मन को भा जाए
अनुराग बढ़े तब अंतरमन में, उर में राग जगा जाए
मैं प्रेयसी अपने बालम की जो नयना गीली होय
जो स्नेह के पाती भेजे तो हाथन पीली होय

मधुरेश नारायण ने 'चुगली' शीर्षक अपनी कविता में बिलकुल नए अंदाज में ढलती उम्र की जद्दोजहद का अनूठे तरीके से और सशक्त चित्रण किया- 
वह रास्ते में मिल गए तो यूँ ही 
पूछ लिया - कैसे हैं आप
बोले- बिलकुल ठीक हूँ
पर तेज तेज साँसों ने चुगली कर दी.
*
फिर मधुरेश ने प्यार के बोल बोलने की कोशिश की तो खंजर निकल पड़े-
प्यार बिना मानवता की धरा हो गई बंजर 
प्यार के दो बोल बोलते नहीं हर बात पे निकले हैं खंजर

हरेंद्र सिन्हा ने रेल परिसर में दो रेल कर्मियों की उपस्थिति में हो रही इस काव्य गोष्ठी में रेल यात्रा पर ही पढ़ने में अपनी भलाई समझी-
अलग अलग लोगों का भी / ट्रेन में हो जाता है साथ
कोई जा रहा है बिटिया को लाने / कोई जा रहा है बहू को बेटे के पास पहुँचाने
*
फिर उन्होंने अपने मन की बात कह डाली-
गुनगुनाने की कला तो सीखी है लुगाई से / ममत्व, बोधिसत्व को सीखा है भाई से
जुड़े रहने की कला सिखी है दाई से  / जीने की कला सीखी है विलग विलग मिताई से

नसीम अख्तर ने होली के रंग में सबको डुबो डाला-
देखो तो फखत रंग का त्यौहार है होली 
सोचो तो मुहब्बत  है वफा, प्यार है होली
ये क़ौसे क़ुजह और ये शफक कहती है हमसे 
हर दायरे हुस्न की प्रकार है होली
(क़ौसे क़ुजह = इंद्रधनुष,शफक़= सवेरे और शाम की लालिमा, ऊषा)
*
नसीम पूरी तरह से होली के अबीर लुटा रहे थे-
काँटों को भी अबीर लगाती हुई कली / उड़ता हुआ गुलाल फिजां में  गली गली 
हर  सम्त नाचती हुई मस्तों की मण्डली / मीठी मुगल्लज़ात है नगमासराइ है 
(मुगल्लज़ात = भद्दी गालियाँ, नगमासराइ = गीतों का गायन)

हेमन्त दास 'हिम' ने आहत भावनाओं पर सौहार्द का चन्दन लेपे जाने की इच्छा जताई-
जब औरों को चोट पहुचाने की शर्तों से पटी हो राहें 
सुविधाओं की कीमत जब हो, बस आहत भावनाएं 
उपहार में लेकर सौहार्द का चन्दन तुम आ जाना  

अशोक प्रजापति ने 'वापसी' शीर्षक कविता में अलमस्त बांसुरीवाले की सम्मोहक धुन की चर्चा की-
शहर के तारकोली राजपथ पर 
चला जा रहा है समय का 
अदना अलमस्त बाँसुरीवाला 
छेड़ता हुआ सम्मोहक धुन
अलापता हुआ दौलत राग 

सिद्धेश्वर प्रसाद ने अपनी ऊर्वरक भूमि में बारूद की फसल के उग आने पर क्षोभ प्रकट किया-
हमारी उर्वरक भूमि में त्याग, प्यार और संवेदना के 
बीजारोपण की जगह 
क्यों उगाने लगते हो 
नफ़रत, द्वेष और बारूद की फसल 

अन्य सभी कवियों के काव्य पाठ के बाद इस कवि गोष्ठी के अध्यक्ष भगवती प्रसाद द्विवेदी की पारी थी.  सभी प्रतिभागियों ने श्री दिवेदी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों हिंदी और भोजपुरी साहित्य में 50 सालों तक योगदान देने के लिए सम्मानित होने के लिए बधाई दी. तत्पश्चात उन्होंने पूर्व में पढ़ी गई रचनाओं पर अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी की और फिर अपनी कविता के माध्यम से पाखी को उड़ने की मनाही का ऐलान किया-
पाखी को उड़ने की सख्त है मनाही 
अंखुआए सपनो को चाट गई लाही
कौन सुने किसकी महुहार / अलग अलग सबके रस्ते
*
फिर उन्होंने चटक-मटक के चक्कर में अपनी पवित्र संस्कृति को खोते जाने का परिदृश्य रखा-
चटक-मटक / कुछ हो आयातित
पश्चिम से लाओ / गमला संस्कृति 
अपनाओ / कुदरत को ललचाओ
सरे-राह अपनी मर्जी से / गाड़ेंगे खूँटे

अंत में भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के सिद्धेश्वर प्रसाद ने आये हुए सभी कवि-कवयित्रोयों का धन्यवाद ज्ञापण किया और अध्यक्ष की अनुमति से सभा के समाप्त होने की घोषणा की.
........
आलेख - हेमन्त दास 'हिम' / सिद्धेश्वर प्रसाद
छायाचित्र- लता प्रासर 

























दूसरा शनिवार समूह की साहित्यिक गोष्ठी पटना में 17.2.2018 को संपन्न

फूल खिलते हैं तो भौरों को खबर होती है 
प्रेम की सफलता के लिए मिलन होना जरूरी नहीं 



प्रेम एक सार्वभौमिक सच्चाई है जो मानवीय अस्तित्व की सबसे मूलभूत आवश्यकता है. पटना के प्रसिद्ध साहित्यिक समूह दूसरा शनिवार द्वारा 17.2.2018 को एक साहित्यिक गोष्ठी को पुनः गांधी मैदान पटना में आयोजित की गई जिसमे तीस से अधिक नए और पुराने रचनाकारों ने भाग लिया. पहले सत्र में प्रेम में साहित्य और साहित्य में प्रेम विषय पर परिचर्चा का आयोजन हुआ और दूसरे सत्र में सभी रचनाकारों ने अपनी अपनी रचनाएँ पढ़ीं. 

पहले सत्र में प्रकट किये गए विचार कुछ यूँ थे- 

प्रभात सरसिज ने प्रयोगवाद और भौतिकवाद के साहित्य पर प्रभाव की चर्चा की जिसका असर प्रेम की अभिव्यक्ति पर भी पड़ा. प्रेम विस्तारित होता है. सच्चा प्रेम संकुचित हो ही नहीं सकता. परन्तु यह भी सत्य है कि द्वंदात्मक भौतिकवाद से प्रेम अछूता नहीं है. यह गौरतलब है कि युग का निर्धारण काव्य की प्रगति से होता रहा है. गद्यलेखको की तुलना में कवियों की संख्या ज्यादा है. काव्य ही प्रेम कि अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रहा है. 

अरुण नारायण ने कहा कि साहित्य में प्रेम की परंपरा भक्तिकाल से आधुनिक काल तक रही है। भक्तिकाल में संत परंपरा है तो रीतिकाल में सामंतवाद के चरम पर प्रेम का स्वरूप थोड़ा बदला। नवजागरण के समय देश-प्रेम के रूप में प्रेम साहित्य में अभिव्यक्त हुई।

रामदेव सिंह, जिनका उपन्यास 'टिकट प्लीज' हाल ही में प्रकाशित हुआ है ने प्रेम विषयक गोष्ठी आयोजित करने के लिए दूसरा शनिवार को बधाई दी और कहा कि 1974 की नुक्कड़ काव्य गोष्ठी की तर्ज पर खुले मैदान में कविता को उतारनेवाला यह समूह प्रेम को भी उतना ही महत्व देता है जितना कि संघर्ष को यह जानकर ख़ुशी हुई. प्रेम की कहानियाँ और कवितायेँ कम लिखीं जा रहीं हैं. इस विषय को बाहर लाना भी प्रेम ही कहा जाएगा.

अवधेश प्रीत ने कहै कि प्रेम मैंने किया है लिखा नहीं है. प्रेम का सामान्य अर्थ है स्त्री-पुरुष का प्रेम, देह और देह का प्रेम. वही प्रेम अक्सर अमर हो जाता है जो कभी मिलन की स्थिति तक नहीं पहुँच पाता. प्रेम का एक विशिष्ट पहचान है इसका आदर्श. यह आदर्श बिलकुल यूटोपिया के स्तर तक हो सकता है. रीतिकाल में सब कुछ बुरा नहीं था. उस समय के साहित्य में बहुत कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ रची गईं. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती), मुझे चाँद चाहिए (सुरेन्द्र वर्मा) आदि प्रेम के अनूठे स्वरुप को उजागर करनेवाले उपन्यास हैं. प्रेम के साहित्य में अन्दाजे-बयाँ बहुत मायने रखता है. नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा और अशोक बाजपेयी को नई कविता/ कहानी का प्रतिनिधि रचनाकार कहा है और आश्चर्य की बात है कि दोनों ने संघर्ष पर कम लिखा है प्रेम पर अधिक.

शिवनारायण ने कहा कि प्रेम केवल आनंद नहीं संताप भी है. प्रेम का मिल जाना ही सफलता नहीं है. नहीं मिलना भी उतना ही सफल माना जाता है. प्रेम में वियोग को ज्यादा तवज्जो दिया जाता है. मनुष्य की आत्मा के सौंदर्य की ऊर्जा है प्रेम.  जिनके मन में प्रेम नहीं होता वे दूसरों को भी प्रेम नहीं करने देते.

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा कि प्रेम की चर्चा शहद है प्रेम तीखा जहर है.

हेमन्त दास 'हिम' का विचार था कि साहित्य में प्रेम का होना आवश्यक  है लेकिन प्रेम में साहित्य का होना जरूरी नहीं प्रेम करुणा का ही एक रूप है. प्रेम में स्त्री-पुरुष का प्रेम सबसे ज्यादा प्रबल होता है जो विविध कलाओं को जन्म देता है.

समीर परिमल ने कहा कि प्रेम की परिभाषा ही संभव नहीं है। जिसने किया उसने कहा नहीं। यह मानवता का चरमोत्कर्ष है।

मधुरेश नारायण ने कहा कि साहित्य में प्रेम और प्रेम में साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. साहित्य रचना का प्रादुर्भाव प्रेम को आधार बना कर ही की गई होगी. सगुण और निर्गुण दोनों प्रेम के ही रूप हैं. 

समता राय ने कहा कि साहित्य में प्रेम जरूरी होता है. स्त्री-पुरुष प्रेम के अनेक सकारात्मक पहलू भी हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जौहर का सामना भी एक तरह का प्रेम ही था. 

संजीव कुमार ने प्रेम के विषय पर एक कहानी सुनाई जिसमें एक प्रेमिका प्रेमी को ठुकरा कर दूसरे से प्रेम करने लगती है.

अमीर हमजा ने कहा कि मनुष्य प्रेम के बिना जीवित नहीं रह सकता. सभी लोग किसी न किसी रूप में प्रेम करते ही हैं. 

चंद्रभूषण चन्द्र ने एक फिल्म की कहानी पर प्रकाश डाला जिसमें एक पत्नी इसलिए अपने पति की हत्या करवा देती है क्योंकि उसे पता चलता है कि उसके पति ने ही उसके पूर्व प्रेमी की हत्या करवाई थी. 

एक अन्य प्रतिभागी ने कहा कि हर भौगोलिक क्षेत्र में प्रेम का स्वरुप अलग-अलग है. 

अस्मुरारी नंदन मिश्र ने कहा कि प्रेम निरर्थकता को सार्थकता प्रदान करता है।

राजेश कमल ने कहा कि प्रेम पर लिखा जाना एक सुखद स्थिति होगी. पर वैसी स्थिति आये तो सही.

राजेश चौधरी ने कहा कि बाल्मीकि के साहित्य में जीवन की हर दृष्टि एवं फलक को उदात्त ढंग से वर्णन किया गया है।

एक महिला प्रतिभागी ने कहा कि आज के समय में प्रेम करने की जगह तक नहीं है. हर जगह पहरा है और निषेध है. सामाजिक वेबसाइट्स पर प्रेम करनेवालों के जो छायाचित्र लगाए जा रहे हैं वे भयावह हैं.

*****

दूसरे सत्र में पढ़ी गई रचनाओं की झलक नीचे प्रस्तुत है-

तुम क्या मिले हर पल मेरा रसरंग हो गया / देखो सनम मौसम हसी बसंत हो गया
जादूगरी ऋतुराज की कमाल देखिये / कोई sहकुंतला कोई दुष्यंत हो गया 
(हरेन्द्र सिन्हा)
.....
तमाम शय में वो अक्सर दिखाई देता है / बड़ा हसीन ये मंज़र दिखाई देता है
तुम्हारे हाथ की इन बेजुबान लकीरों में / हमें हमारा मुकद्दर दिखाई देता है
(समीर परिमल)
.....
दिल के दरिया में मुहब्बत की लहर होती है / जब कभी आपको आने की खबर होती है
चीज होती है गज़ब की प्यार की खुशबू / फूल खिलते हैं तो भौरों को खबर होती है 
(घनश्याम)
.....
अलकों का पलकों से मिलना / पीन पयोधर का खिल जाना 
कस कसक मसक मन हो आना / क्या दिल ने दिल को है जाना
सबने देखा / पीर प्रेम का / तीर प्रेम का किसने छाना!
(शिव नारायण) 
....
सच है अपनी हरकतों से हम संभल नहीं सकते / पर ऐसा भी नहीं कि आप बच कर निकल नहीं सकते 
सबेरा होते ही भूल जाता हूँ रात का ये सबक / कुछ भी कर लो, मगर पत्थर पिघल नहीं सकते 
(हेमन्त दास 'हिम')
.....
1. मौसमे इश्क ऐसा मौसम है / जितनी भी तारीफ़ कीजिए कम है
2. क़त्ल नजरों से जब नहीं होता / मार डाले है बददुआ देकर 
3. प्रेम ही कृष्ण के अधरों से सजी बंशी है / प्रेम आकाश कभी उड़ता हुआ पंछी है
प्रेम एक मंत्र है ऋषियों की अमर वाणी है / प्रेम आकार निराकार है कल्याणी है
(-डॉ. रामनाथ शोधार्थी)
...
देह- / गुलमोहर और अमलतास / देह- / स्पर्श का सुखद एहसास 
मेरा उसका निर्मल विश्वास 
( एम.के.मधु ) 
........
मन तुम्हारा हो गया तो हो गया 
(विद्या वैभव भारद्वाज)
.......
प्यार बिना मानवता की धरा हो गई है बंजर
प्यार के बोल बोलते नहीं हर बात पे निकालते है ख़ंजर
हरी-भरी हो बाँझ धरा प्यार का हो इतना करम

(मधुरेश नारायण)
.....
प्रियतम को बुलावा भेजो / हो न जाए कहीं छलावा देखो
मनमोहक वासंती पहनावा  देखो / बन्धु, वसन्त आया, वसन्त आया.....
(डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा)
....
1. हम किसी से न बैर कर पाए / प्रेम का रोग खानदानी है 
2. अब यहाँ कुछ भी नहीं बाक़ी रहा / सब तेरा है क्या रहा मेरे लिए
जो लगा मुझको सही मैंने किया / आइये अब अपनी बाजी खेलिए 
(सूरज सिंह बिहारी)
...
वसन्त की मधुर प्रणय वेला में / तेरी ज़ुल्फ़ घनेरी का वो मंज़र 
वसन्त का ये सुहाना मौसम / रंग बिरंगों में लिपटा उपवन 
(पंकज प्रियं)
.....
दोनों सत्रों के समापन के पश्चात नरेन्द्र कुमार ने धन्यवाद ज्ञापन कर कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की. इस साहित्यिक गोष्ठी में एम. के मधु, अस्स्मुरारी नंदन मिश्र, विभा रानी श्रीवास्तव, ओसामा खान, अरुण नारायण, रंजन धीमल, राजेश चौधरी, अक्स समस्तीपुरी, अरुण नारायण, गुड्डू कुमार सिंह,  शशि भूषन कुमार, गोबिंद कामत, शांडिल्य सौरभ ने भी भाग लिया. 

***
आलेख - हेमन्त दास 'हिम' / नरेन्द्र कुमार
छायाचित्र - डॉ. रामनाथ शोधार्थी / प्रत्युष चन्द्र मिश्र
नोट- जिन प्रतिभागियों के नाम/ विचार / पंक्तियाँ इस रिपोर्ट में शामिल नहीं हो पाए हैं या उनका रिपोर्ट में उद्धरण अधूरा अथवा त्रुटिपूर्ण है, उनसे अनुरोध है कि कृपया editorbiharidhamaka@yahoo.com को ईमेल के द्वारा भेजें अथवा व्हाट्सएप्प द्वारा नरेन्द्र कुमार / प्रत्युष चन्द्र मिश्र / समीर परिमल /  हेमन्त दास 'हिम' को भेजें. फेसबुक पर कमेन्ट के द्वारा भी भेज सकते हैं.