भागवत 'अनिमेष' जी न सिर्फ कविताकर्म में निष्णात थे बल्कि एक अत्यंत सजग कवि भी थे. वे राष्ट्र की उन्नति के लिए उसके सबसे निचले पायदान पर रह रहे लोगों और उपेक्षित वर्ग की हालत में सुधार के बड़े हिमायती थे. अपने हृदय के अंतरतम गह्वर में नारी-सम्मान को रखनेवाला यह कवि बार-बार माँ और अपने जीवन में आई तमाम भोली-भाली औरतों को बार-बार याद करता है. 'अनिमेष' जी सामाजिक और पारिवेशिक संकटों से अच्छी तरह से परिचित थे और अपना विरोध बहुत ही शालीनतापूर्वक और एक मीठेपन के साथ करते थे, यही उनकी खासियत रही. उनकी रचनाएँ ऊपर से सिर्फ लोक-अभिरूचि की रचनाएँ प्रतीत होती हैं किन्तु ध्यान से देखने पर आप उनके अभिप्राय में उतर पाते हैं. उन्हें पूरे स्थिर दिमाग से पढ़ने और समझने की जरूरत है. वे आज के समय के अत्यंत सक्रिय लोकानुरागी, आशावादी, प्रेम-पिपासु ही नहीं एक विद्रोही कवि भी हैं. राष्टहित में किसी प्रकार के विरोध से उन्हें कोई परहेज नहीं है. वे न तो वामपंथी थे न दक्षिणपंथी बल्कि जिस बिंदु पर ये दोनों मिलते हैं वे उस मानवीयता के हिमायती थे. एक अत्यंत संवेदनशील कवि थे. कभी-कभी कुछ रचनाएँ दक्षिणपंथी लग सकती हैं कभी कोई रचना वामपंथी, पर सच यह है कि वे किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं थे.
नीचे उनकी कुछ कविताएँ / गीत प्रस्तुत किए जा रहे हैं जो उन्होंने मुझे व्यक्तिगत ईमेल पर भेजे थे. (-हेमन्त दास 'हिम')
यादों के निशान
जिन स्त्रियों ने मुझे पाला
आज वे नहीं हैं
अब भी हैं उनकी आवाज़ें
मेरे मन की कन्दराओं में
उनकी हिदायतें अब भी मुझे
जीवन के सबसे व्यस्ततम चौराहों को
आसानी से पार करा देती हैं
उन पनिहारिनों का प्यार
अब भी बुझा रहा है मेरी प्यास
जो जीवन की पाठशाला में अध्यापिका थीं
वह माँझी मुझे याद आ रहा है
जो अपनी छोटी नाव से
हमें लहरों के पार ले जाया करता था
वह गरेरी समुदाय मुझे याद आ रहा है
जिसकी बकरी के दूध से
मेरी नवजात बहन का गला तर हुआ था
वह खेतिहर परिवार अब भी हमारे हृदय में है
जिसने हमें कदली वन में शरण दी थी
चैत की चाँदनी रात से
मैं कुछ भी नया नहीं माँगता हूँ
महुआ में महुए की गमक
धरती में जीवन की धमक
और उन विस्मृत लोगों के भित्तिचित्र माँगता हूँ
जिनके सद्भाव ने
अब तक मुझे मनुष्य बनाये रखा है
हे पितर !
हाड़-माँस के वैसे साधारण लोग मुझे दे दो
जिन्होंने दीवारें खड़ी नहीं की ,
बल्कि हर दीवार में खिड़कियों की व्यवस्था की।
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भागवतशरण झा 'अनिमेष '
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मोन परल
##भागवत अनिमेष ।
मोन परल
बिसरल अतीत
मोन परल
बिसरल गीत
मोन पर गेली दिवंगता जननी
विदापत गीत मोन परल ---
सखि हे हमर दुखक नहिं ओर !
मोन परल विदा भs गेल समय
मोन परल
समस्त मातृशक्ति के आँखिक नोर
स्मृतिक कलादीर्घा मे दुखक कारी राति मध्य
भगजोगनी जकाँ भुकभुकाइत छल साहस
अतीतक बिच्ची मे हमरा
भविष्यक नवांकुर मोन परल ।
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#तरबूज
एक भूखे-प्यासे मजदूर से मैंने पूछा :
तुम्हें क्या चाहिए
राहत - पैकेज या तरबूज ?
उसने आसमान में तरबूज के फाँक जैसे चाँद को
उम्मीदभरी निगाहों से देखा
फिर दरकते स्वर में कहा --- त..र..बू..ज
डायन करार देकर बेघर कर दी गई बूढ़ी माँ से
पूछ बैठा --- समाज और तरबूज में से तुम्हें क्या चाहिए ?
सूजी हुई आँखों से उसने मुझे देखा
फिर लहककर कहा -- त..र..बू..ज
कोरेंटाइन केंद्र से भागे उजबक से मैंने पूछा
तुम्हें शासन स्वदेशी चाहिए , विदेशी चाहिए या क्या चाहिए?
जटिल भाव से भरकर उसने कहा -- त.. र.. बू...ज .. !
इस बखत मुझे यही चाहिए ।
तब से तरबूज को देखकर मेरे भीतर आशा जग गई है
कि आश्वस्त और प्रसन्न होने के लिए
इस कठोर , किंतु खोखली दुनिया में
कम से कम एक विकल्प तो बचा है : तरबूज ...!
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© भागवत अनिमेष ।
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#रात
रात सर्द होती जा रही है
सोए सपने जागने लगे हैं
सन्नाटा बेचैनी के गीत गाने लगा है
ऐसे में मीत
लघुकथा-सा दुःख का राग
हो जाए उपन्यास तो कोई क्या करे ?
री सखि !
आज हम , तुम और दुःख जागेंगे
पीड़ा के आकाश में प्रेम का चाँद निखरेगा
रात भर।
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भागवतशरण झा 'अनिमेष'
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#बिलल्ला ...!
बालम ! तुम बिन फिरूँ बिलल्ला
तुमने दिल ऐसे माँगा था ज्यों पीतल का छल्ला
हम क्या जानें हमरी किस्मत में लिक्खा है नल्ला
तुम तो कविताई में पागल नित नित नया पुछल्ला
अजी पिया तुम तो कलकतिया झाड़ गए फिर पल्ला
सुन सकते तो सुन लो बालम हमरे दिल का हल्ला
तुम बिन बेरथ आज लगे है हिय का सिम्मुलतल्ला
जब से भई कवियों की संगत सुख-सपना सब झल्ला
काव्यसम्पदा के तुम स्वामी , नहीं मनुज तुम भल्ला
भावों से ही भरा हृदय है , घर में नाहीं गल्ला
हमरी सुधि अब ले लो बालम कविवर विकट निठल्ला
पिय अनिमेष सुधर जा अब भी छोड़ अदब का बल्ला।
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१. #बिलल्ला : किसी भौतिक वस्तु या भाव के अभाव में बेधक असहायबोध की दशा।
२. #झल्ला : बज्जिका का शब्द। केले के पात जब हवा या अन्य बल लगने जे कारण बुरी तरह फट जाते हैं , तब की हालत। केले के पुराने पात जो विपरीत परिस्थिति में भी डंठल का साथ नहीं छोड़ सके हों , लेकिन हरे हों। ■ .पूरी तरह सूख जानेवाले पत्ते को #झझउरा कहते हैं। हाजीपुर से पूरब महनार रोड के केलाबगान का प्रचलित शब्द।
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#अकेला ...
●●●●●●●● ■ भागवतशरण झा 'अनिमेष '
अकेला हूँ
पत्तों से भरे पेड़ की तरह
अकेला हूँ
नीड़ों से जीवन्त पीपल की तरह
अकेला हूँ
तारों से भरे आकाश में चाँद की तरह
जैसे अकेला है आसमान का खालीपन
मैं भी इस भरी दुनिया में अकेला हूँ
अकेला होना हमेशा दुःख का विषय नहीं होता
कभी-कभी ईश्वर भी अकेला होता है हमारी तरह
डूब जाऊँ तो शोक मत करना
निकलूँगा अकेला
सूरज की तरह !
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चली गई वह
•••••••••••••• ◆ भागवतशरण झा ' अनिमेष '
(प्रख्यात शास्त्रीय संगीत गायिका किशोरी अमोणकर को विनम्र श्रद्धांजलि )
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चली गई वह
केवल उसके बोल अनमोल रह गए
चली गई वह
जैसे पूरा हुआ हो गायकी का एक दौर
चली गई वह
जैसे चले जा रहे हैं कितने प्रिय दुर्लभ राग
चली गई वह
जैसे बहार के बाद चली जाती है ख़ास रौनकें
जैसे ख़ुशी के पराते ही गुम हो जाती है मन की खनक
जैसे अपनी भूमिका खत्म होते ही नेपथ्य में चला जाता है
समझदार अभिनेता
चली गई वह इसी तरह जैसे कि ग़ज़ल से गायब हो जाए
मक़्ते का शेर
चली गई वह
गायकी , सुर , ताल और आलाप का जाल समेटे
महाशून्य में वह फिर से
अनंत तक को कँपाकर थिर कर देगी
जो भी हो, उसके जाने से ऐसा लगता है
कि ठुमरी का कोई बोल टूटकर अधूरा रह गया हो
हमेशा के लिए
अब आवाज़ है , आवाज़ है , आवाज़ की जादूगरी है
अनहद नाद है
महासरस्वती में विलीन महामौन है
क्यों कहूँ कि चली गई वह ?
(वह भी हाड़-मांस की ही बनी थी)
महाकाल की चेरी ने भला किसे छोड़ा है?
यम की पटरानी से छली गई वह..!
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बिहार जागरण गीत बिहार दिवस पर विशेष
~~●~~●~~◆~~# भागवतशरण झा 'अनिमेष '
जग रे बिहार , जाग-जाग रे बिहार
जाग -जाग रे बिहार।
लक्ष्य नवल औ' विमल ,चल कदम बढ़ाए चल
एकता का मन्त्र मनन करता चल --- बढ़ता चल
रच ले , रच ले , रच ले नया संसार
वादा निभाना है ,आगे ही जाना है
मेहनत है मूलमन्त्र , सुख का खजाना है
जय बिहार ,जय बिहार हृदय से उचार
खुशियों की है खनक , भाईचारे की झनक
अमन-चैन समरसता माटी की मस्त महक
गाए मल्हार नव- विकास की बयार
जाग रे बिहार , जाग-जाग रे बिहार
जाग रे बिहार , जाग-जाग रे बिहार ।
~Bhagwat Animesh
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होली - गीत
◆ भागवतशरण झा 'अनिमेष '
मिथिला में आज मची होरी
मिथिला में
राजा गावै प्रजा बजावै
विदा भई भेद रही थोरी मिथिला में
मिथिला में आज मची होरी ...
चार -चार पाहुन परम् सुहावन
मातु सुनयना मति भोरी , मिथिला में
मिथिला में आज मची होरी ...
झाल , मृदङ्ग , झाँझ , ढप झनकै
और मँजीरन की जोरी , मिथिला में
मिथिला में आज मची होरी ...
रंग , भंग , मृदंग , चंग संग
भावै जनकलली गोरी मिथिला में
मिथिला में आज मची होरी ...
शेष गणेश बनै नहीं बरनत
रही नहीं नार नई कोरी मिथिला में
मिथिला में आज मची होरी ...।।
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दरभंगा , चैत्र प्रतिपदा , होली ।
© : कॉपीराइट प्रभावी
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गीत
******* # भागवतशरण झा 'अनिमेष '
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
पूरब न जइयो जी पच्छिम न जइयो
उत्तर न जइयो जी दक्छिन न जइयो
थामे रहियो अँचरवा के कोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
गोरी निरखियो न काली निरखियो
साला निरखियो न साली निरखियो
मैं हूँ चन्दा और तू है चकोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
लिट्टी न खइयो समोसा न खइयो
इडली न खइयो जी डोसा न खइयो
खइयो मालपुआ गुझिया बेजोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
कोसी नहइयो न कमला नहइयो
गंगा नहइयो न जमुना नहइयो
प्रेम-रस से करूँगी सराबोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में।
( # दूरदर्शन , पटना द्वारा 13 मार्च को 4:05 बजे अपराह्न
होली पर विशेष काव्योत्सव में प्रस्तुत गीत ।)
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#रात
■ भागवतशरण झा 'अनिमेष '
रात सर्द होती जा रही है
सोए सपने जागने लगे हैं
सन्नाटा बेचैनी के गीत गाने लगा है
ऐसे में मीत
लघुकथा-सा दुःख का राग
हो जाए उपन्यास तो कोई क्या करे ?
री सखि !
आज हम , तुम और दुःख जागेंगे
रात भर
पीड़ा के आकाश में प्रेम का चाँद निखरेगा
रात भर।
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ईमेल से ज्यों क त्यों प्रस्तुत। उनकी एक कविता को उसके अतिविद्रोही तेवर के कारण उनसे क्षमा-याचना के साथ इस ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं किया जा रहा है।
संकलनकर्ता - हेमन्त दास 'हिम'
ईमेल - hemantdas2001@gmail.com / editorbejodindia@gmail.com
(कविवर स्व. भागवतशरण झा 'अनिमेष' के परिवार वाले चाहें तो अनिमेष जी के पारिवारिक फोटो को ब्लॉग पर डालने की अनुमति दे सकते हैं. तब उन्हें भी शामिल किया जा सकेगा. ईमेल से अनुमति भेजें.)