'सेता-शील' मैथिली लोकभाषा में है परन्तु इसकी भाषा इतनी सहज और बोधगम्य है कि कोई भी हिन्दी जाननेवाले इसको पढ़ना शुरू करते ही रसास्वादन में लीन हो जाते हैं और बिना पूरी पुस्तक पढ़े इसे छोड़ते नहीं हैं. पूरी पुस्तक डिजिटलाइज्ड रूप में इस वेब-साइट पर नि;शुल्क उपलब्ध है:
https://books.google.co.in/books/about/Seeta_Sheel.html?id=8RodmX5cs1sC&redir_esc=y
कवि ‘स्वजन’ और उनकी ‘सीता-शील’
पुस्तक-समीक्षा- भागवत शरण झा ‘अनिमेष’
समीक्षक का ई-मेल: bhagwatsharanjha@gmail.com
समीक्षक का मोबाईल: 8986911256
रचयिता कवि के परिवार का सम्पर्क-सूत्र: hemantdas_2001@yahoo.com
‘’सीता-शील’ वर्ष 1986 ई. में श्रीविद्यार्जुन प्रकाशन, पटना द्वारा
प्रकाशित एवं श्री खड्गवल्लभ दास ‘स्वजन’ द्वारा विरचित काव्य-पुस्तक है.
यथा नाम तथा गुण की धारणा को चरितार्थ करते हुए यह संग्रह परम पठनीय है.
सीता की जन्म्भूमि मिथिला की लोक्भाषा मैंथिली में इसकी रचना होने के कारण
यह और भी अचिक पठनीय है. ‘सीता-शील’ पुस्तक का नाम शत-प्रतिशत सार्थक है.
श्री सीता जी के व्यवहार, विचार और संस्कार पर फोकस करते हुए कवि’ स्वजन’
जी ने एक अद्भुत काव्य-संसार की सृष्टि की है जहाँ सारा वर्णन लोक, परम्परा
और भक्ति की अविरल धारा से स्वच्छ, भावप्रवण और निर्मल है. हिन्दी साहित्य
सहित अन्य साहित्यों में भी महाकाव्य की परम्परा रही है जिसमें नायक का
चरित्र-चित्रण प्रधान होता है. मैथिली में भी सीता के चरित्र पर कई काव्य
रचे गए हैं जो कि स्वाभाविक भी है. प्रस्तुत पुस्तक एक ही छंद में सीता के
सम्पूर्ण आलोक को उद्भासित करता है. कार्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छ्ति
धीमताम .... के सूत्रवाक्य को आत्मसात कर कवि ने ‘सीता-शील की रचना की है.
“मात्रा अठाइस पाँति प्रति लघु-गुरु चरण केँ अन्त में
सुन्दर श्रवण-सुखकर मधुर हरिगीतिका केँ छ्न्द में
कैलहुँ कतहुँ प्रयोग नहिं अपशब्द “सीता-शील” में
नहि कैल वर्णन कतहुँ कठिन कुवाक्य या अश्लील में”
श्री
सीताजी के जीवन में कई बार ऐसे प्रसंग आएँ हैं जो कि परम मर्मस्पर्शी हैं.
कवि की उन मर्मस्पर्शी प्रसंगों पर पकड़ है. हाँ, वे उसे ज्यादा लम्बा नहीं
कर सके हैं. उनकी चिन्ता पुस्तक का तेवर है. पुस्तक सर्वत्र पठनीय हो,
मनोरम हो, रमणीय हो, वह भी शालीनता के साथ – यही कवि का संकल्प है. हिन्दी
साहित्य के द्धिवेदी-युग के काव्यादर्श से ‘सीता-शील’का काव्यादर्श मेल
खाता है. प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से भी यह सुन्दर सरस पुस्तक
द्धिवेदीयुगीन रचनाधर्मिता का स्मरण दिलाता है. ‘सीता-शील’ एक वैष्णव-मन की
वीणा की झंकार है जिसे पढ़ते हुए हिन्दी के यशस्वी वैष्णव कवि जिन्हे
राष्ट्रकवि भी कहा गया है, प्रात:स्मरणीय मैथिलीशरण: गुप्त की याद सहसा आती
है, बारंबार आती है.
इसी पुस्तक के परिशिष्ट में पृष्ठ 223 पर
‘शिव-प्रति श्रद्धा-समर्पण’ कवि की रचना-क्षमता का एक नमूना है. व्याकरण की
दृष्टि में इसे मात्राहीन शब्द-बन्ध कहा जाता है. पृष्ठ 222 से स्पष्ट है
कि कवि ‘ईश्वर-नाम’ में छुपे चमत्कार को भक्ति-भाव से व्यक्त करने का
लक्ष्य रखता है न कि काव्य-चमत्कार (शिल्प-वैशिष्ट्य) के आधार पर अपनी
यशकामना का लोभ रखता है. बाजारवाद के प्रबल प्रभावयुक्त इस युग में हम कवि
से ‘सादा जीवन- उच्च विचार’ की मर्यादित लीक पर चलना सीख सकते हैं.
’सीता-शील’ पुरुष-मन को भी उतना ही आकर्षित और परिष्कृत करता है. वस्तुत:
यह ‘जन’ के मन से निकल कर आम पाठकों तक पहुँचती है. ऊनके मन का रंजन और
परिष्कार दोनो करती है.
सारत:’सीता-शील’
एक सफल काव्य-पुस्तक है जो कि पाठकों को आमंत्रित करता है, न कि आक्रान्त
करता है. यह पुस्तक एक सफल कवि की सफल रचना है जो कि कवियों के लिए ‘पाठकों
के अकाल’ के समस्या के हल का एक नमूना भी है. प्रस्तुत पुस्तक के रचयिता
‘स्वजन’ जी सचमुच सुकवि हैं. आज के रचनाकार के प्रेरणास्रोत हैं. [इस
पुस्तक को एक अच्छे समीक्षक की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय स्तर तक निष्पक्ष
काव्य-विमर्श करें न कि कृति का पोस्टमार्टम. एक काव्य-रसिक होने के नाते
रचनाकार को कोटिश: नमन.]
कवि ‘स्वजन’ और उनकी ‘सीता-शील’
पुस्तक-समीक्षा- भागवत शरण झा ‘अनिमेष’
समीक्षक का ई-मेल: bhagwatsharanjha@gmail.com
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