**New post** on See photo+ page

बिहार, भारत की कला, संस्कृति और साहित्य.......Art, Culture and Literature of Bihar, India ..... E-mail: editorbejodindia@gmail.com / अपनी सामग्री को ब्लॉग से डाउनलोड कर सुरक्षित कर लें.

# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

यदि कोई पोस्ट नहीं दिख रहा हो तो ऊपर "Current Page" पर क्लिक कीजिए. If no post is visible then click on Current page given above.

Monday, 28 May 2018

दूसरा शनिवार की कवि गोष्ठी 26.5.2018 को पटना में सम्पन्न -डॉ. कर्मानन्द आर्य, पंखुरी सिन्हा और अन्य का काव्य-पाठ

डरी हुई चिड़िया का मुकदमा -एक सच्ची सुनवाई




'पुस्तक डरी हुई चिड़िया का मुकदमा' के रचनाकार और देश के चर्चित कवि कर्मानन्द आर्य का एकल काव्य पाठ होना तय था 26.5.2018 को गांधी मैदान, पटना में दूसरा शनिवार द्वारा . परन्तु उनके साथ-साथ दिल्ली से पधारीं प्रसिद्ध कवयित्री पंखुरी सिन्हा और अन्य अनेक स्थानीय कवियों का भी काव्य पाठ हुआ. अनेक जाने-माने पुराने और नए कविगण और कवयित्रियाँ उपस्थित थीं. अध्यक्ष थे शिवनारायण और सनचालन किया अरबिंद पासवान ने.

डॉ. कर्मानंद आर्य की शैली दो टूक शैली है. बिना दायें बाएँ गए सीधा लक्ष्य तक पहुँचते है और समय और श्रम को बर्बाद न करते हुए अपनी बात कह जाते हैं. दलित विमर्श इनकी कविताओं में भोगे गए यथार्थ की तरह पूरी चुभन के साथ उभरकर सामने आता है. इनका क्षोभ समाज के अंतिम पायदान पर रह रहे व्यक्ति का क्षोभ है, इनकी हताशा उसकी हताशा है जो आजादी के बाद से लेकर अबतक प्रशासनिक ताने-बाने में अपनी आस्था बनाये हुए है और कोशिश करता है अपने पूरे सामर्थ के अनुसार न्याय पाने की पूरी प्रक्रिया को अपनाते हुए. हताश आदमी जुगाड़ की वह प्रक्रिया भी अपनाने को तैयार है जो आजादी के बाद से ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हुए भी हमारे देश में  एक अनिवार्य आवश्यकता मान ली गई है अर्थात एक कमजोर आदमी थोड़ा और शोषित होने को तैयार है यह सोचते हुए कि इससे उसे बड़ा न्याय मिलने में सफलता मिलेगी किन्तु अंतत: उसे हकीकत समझ में आती है कि न्याय कमजोरों के लिए है ही नहीं. 

कभी वह कमजोर आदमी आस-पास के परिवेश को अपना अस्तित्व मिटाने हेतु आतुर देखता है-
मैं चौराहे पर खड़ा
वह नंगा व्यक्ति हूँ
जिसे दिशाएँ लील लेना चाहतीं हैं (डॉ. क.आर्य- अंतिम अरण्य)
......
कहाँ है वह / जो सदियों से आशियें पर पड़ा है
कहाँ है वह व्यक्तित्व / जिसे दिशा लील गई
...मैं वही मनुष्य / ढूँढ रहा हूँ अपने ही पद-चिन्ह  (डॉ. क.आर्य- अंतिम अरण्य)
.....
तो कहीं अपनी बेटी को बलत्कृत होता देखकर दिल के अंतिम छोर से कराह उठता है-
बेटी ने आबरू खो दी है
यह सिर्फ अखबार की पंक्तियाँ नहीं है
साक्षात मौत है
सभ्यता के मुहाने पर खड़े मनुष्य की
धरती की आखरी चीख
मरुथल की आखरी प्यास
आँखों की बची हुई नमी (डॉ. क.आर्य- बंत सिंह)
........
वह अन्याय से हारकर भी नहीं हारता और क्रांति का आह्वाहन करता है-
एक की सम्प्रभुता के बरक्स
जब कोई एक उठाता है आवाज
कोई पीड़ित उसे मिला लेता है
किसी और एक सुर के साथ
तभी पैदा होती है क्रांति (डॉ. क.आर्य- अल्लसुबह)
.......
वही कमजोर तबके का आखरी आदमी अपनी सामान्य परवरिश से लेकर धार्मिक कर्मों में भी बकरी को अधिक सहायक पाता है और उसे माँ का दर्जा देने में भी नहीं चूकता-
वे निभाती थीं माँ का पूरा रोल
जीते हुए, मरने के बाद भी
उनकी चमड़ी से हम बनाते थे ढोल
बनाते थे खजरी, तम्बूरा
अपने देवता का स्मरण करते हुए
नदी का आचमन करते थे (डॉ. क.आर्य- अयोध्या और मगहर के बीच)
........
पीड़ा की अतिशयता के बावजूद डॉ. आर्य गाली गलौज की बजाय बहुधा अत्यंत शालीन किंतु भेदक व्यंगात्मक भाषा का प्रयोग करते हुए  दिखते हैं जो सड़ांध को भी पूर्ण शाब्दिक सौंदर्य के साथ अत्यंत प्रभवकारी ढंग से अभिव्यक्त करने में पूरी तरह से सक्षम है. हाजतों, जेलों और मुकदमों का का इनसे अधिक क्या यथार्थपरक चित्र खींचा जा सकता है-
हिंदी की रीतिवादी कविता की तरह
वह प्रत्येक अंग की शालीन सफाई करता है
एक ही साँस में सारी बातें, मातृक छन्द में समझा देता है
जैसे समझाता है उस्तुरा (डॉ. क.आर्य- डरी हुई चिड़िया का मुकदमा)
.......
न्यायालय में क्या तेरा बाप बैठा है जो फाइल ढूँढेगा
पूरे मुकदमे का बही-खाता बताता है वह महाजन
माँ-बहिन की आरती उतारता हुआ बुद्बुदाता है
अधूरी जाँच लटक जाती है फाइल में (डॉ. क.आर्य- डरी हुई चिड़िया का मुकदमा)
........

शुरुआती दिनों के बाद गवाह पलट जाते हैं
..... मुकदमा पीड़ितों का दर्द बन जाता है (डॉ. क.आर्य- डरी हुई चिड़िया का मुकदमा)
,,,,,,,,,,

वर्णवादी फौजें रोज मारती हैं जिन्हें
उनके कपड़े उतारती है रोज
जिस देश में सब को पिटने की आदत हो
वहाँ जज वाली अदालत खामोश बैठी रहती है (डॉ. क.आर्य- डरी हुई चिड़िया का मुकदमा)

सभी श्रोतागण बिलकुल स्तब्ध से होश उड़ा देनेवाले कर्मानंद आर्य को सुनते रहे. उनके एकल पाठ के बाद दिल्ली से पधारीं और अनेक पुरस्ककारों से सम्मानित चर्चित कवयित्री पंखुरी सिन्हा को भी श्रोताओं के सबल आग्रह के कारण अपनी कविताएँ सुनानी पड़ी जिसे सभी ने ध्यानपूर्वक सुना और सराहा. 

पंखुरी सिन्हा का नारीत्व  व्यवस्था के टूटने के साथ-साथ रिश्तों के टूटने को भी पूरी शिद्दत से महसूसता है जहाँ कप-प्लेट तो बहुत सम्भाल के रखे जाते है लेकिन रिश्तों को तोड़ते देर नहीं लगती.- 

दोस्तों के मज़ाक उन्हें खंगाल जाते हैं / कितने कप तोड़े शादी के बाद
उनकी हँसी घुल जाती है/ पुरानी पहचान में
बस शादी ही तोड़ी केवल
इतने एहतियात से रखे
कप प्लेट   (पंखुरी सिन्हा- बहस पार की लम्बी धूप)
.................

और दबंगों पर इल्जाम लगाने का नतीजा सिफर रहता है. इसलिए इल्जाम लगाना ही बेकार.
बाकायदा गबन के इल्जाम हैं /
इतने पैसों के
जो आपने अपनी आखों से देखे नहीं
और खबर
कि इल्जामों की फाइल के बाद
तस्वीर खिंचवा कर
जेल नहीं गया नेता (पंखुरी सिन्हा- बहस पार की लम्बी धूप)

तीसरे चरण में अन्य कवियों ने भी अपनी एक-एक कविता पढ़ी. 

शायर संजय कु. कुंदन ने अपने से भी जुबाबंदी देखकर हैरानी जताई-
क्या तुम भी मियाँ?अब क्या कहना, बस होंठ को है सी कर रहना
माना ये सब बेगाने थे पर तुम तो हमारे लगते थे  (संजय कुमार कुुन्दन)

तो परिमल ने खौफ में खुद को ही पराया होते हुए देखा-
खौफ के साये ने खुद को ही पराया कर दिया
आईना सूरत पे मेरी आजकल हैरान है  (समीर परिमल)

शोधार्थी को ऐसे माहौल को समझते देर न लगी- 
हवा के रुख को  समझते हैं ये, पता है इन्हें
कहाँ कब आग लगानी है, कब बुझानी है  (डॉ. रामनाथ शोधार्थी)

अक्स ने बहरे कानों को भी सुना डाला-
गर चाहिए सुकून तेरे बहरे कान को
तो काटना पड़ेगा हमारी जुबान को  (अक्स समस्तीपुरी)

राजकिशोर राजन एक खास प्रयोजन से गतिविधियों में आई अचानक उछाल के मर्म को समझाया अपनी कविता  'अंतिम ओवर में एकी' मेंं.

शहंशाह आलम ने अपनी समकालीन कविता 'नहाते हुए' का पाठ किया.

कवि घनश्याम का रोते रोते बुरा हाल था-
रोते रोते आँख का पानी समूचा बह गया
सिर्फ आँसुओं के लिए खुद को रुलाएँ कब तक  (घनश्याम)

तो 'हिम' शून्य में विचरण करते दिखे.
बिलकुल शून्य सा था मैं / एक शून्यता के बारे में सोचता हुआ
एक शून्य से वातावरण में / दशमलव के बाद किसी प्राकृत संख्या के पहले के 
असंख्य शून्यों की गिनती करता हुआ  (हेमन्त दास 'हिम')

अरबिन्द  ने कविता लिखने को कहा तो देखिये क्या हुआ-

लिखो
उसने कहा 
क से कविता नहीं 
ख से खाली
ग से गोधरा  (अरबिन्द पासवान)

डॉ. विश्वकर्मा ने नवजागरण का संदेश देकर प्रबुद्ध किया-
और कितना भ्रष्टाचार / जागेगा अब नया बिहार
नवजागरण के बलबूते / जागेगा अब नया बिहार (डॉ. बी.एन. विश्वकर्मा)

श्वेता ने बेटियों के सफर से अपशकुन को दूर कर दिया-
क्योंकि नहीं चाहती हूँ कि / बेटियों के सफर शुरू करने से पहले ही
काली बिल्ली रास्ते से गुजर जाय / और जिसकी परछाई तमाम उम्र
उनका पीछा करती जाय  (श्वेता शेखर)

कुन्दन वसुंधरा के मुकुट बन कर शक्ति का संचार कर दिया-
वसुंधरा के मुकुट हो तुम, तुम ही इसके अभिमान हो 
सर्वशक्तिमान के तुम पुत्र शक्तिमान हो  (कुन्दन आनंद)

कार्यक्रम के अंत में नरेंद्र कुमार ने आये हुए सभी कविगण और कावयित्रियों को धन्यवाद दिया. इस सभा में कृष्ण समीद्ध, डॉ. रविता कर्मानन्द आर्य, सुजीत कु.राय, रामप्रवेश. पासवान, संजय कु. सिंह आदि भी उपस्थित थे.
..........
रिपोर्ट के लेखक - हेमन्त दास 'हिम' / अरबिन्द पासवान / नरेन्द्र कुमार
छायाचित्र - उपस्थित कविगण
ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo.com
नोट- प्रतिभागियों से अनुरोध है कि वो अपनी कविता की पंक्तियाँ सम्मिलित करवाने हेतु रिपोर्ट के लेखकों में से किसी को भेजें या कमेंट में लिखें.








































Saturday, 26 May 2018

Naad Patna staged the play 'Raag Basant' in Patna on 24.5.2018


No flinching in pursuit of muse

हिंदी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये-  

An epitome of leading by example, Basant Vyas choses to perform Launda-Nautch himself to address to the Gauri’s compunction as to whether she is performing some inferior sort of art. Gauri is peeved at the malicious insinuations of audience and perceives them as an assault on her modesty. She thinks people are more interested in her carnal beauty rather that the aestheticism of  dance performed by her. Presenting a theatrical discourse on the development of Ramayani style of  dance most popular in eastern region of the country the director enters into the realm of Launda-nautch in which the story of Ramayana is narrated by a man in woman's attire.

The play focuses on the life of Basant who is inclined towards Ramayani style of singing from the very beginning in his life. His father is  worried about the future of his son and wishes that he must join his profession of priesthood. Though the perfect follower of muse, Basant takes to singing and becomes a renowned singer. He comes in contact with Gulab Vyas and joins a Ramayani group. In love of Gauri he dares twisting his feet on the tune of Ramayani whom he sings himself. Of course, the journey of Basant Vyas to Basant Launda is not an easy one. A Bramin has to have a tolerance to hear people saying “Launda aa gaya naach dikhane”.The style of Launda-Nautch reaches a new height and the government recognizes his efforts by presenting a prize from the hands of not less than the President of the country. Now the father of Basant comes to senses and blesses both Basant and his wife Gauri.

The story raises several questions. Whether it is dignified that a man coming from the top echelon of cast division  performs a dance wearing the dress of a female. The other issue is whether a man should choose such an uncertain profession of dance leaving away a fully established profession of priesthood. And the answer it gives is an undoubted Yes.

The whole presentation from the very beginning to the last tip of the presentation it was a musical thriller. The lyrics of Vivek Kumar was sweet and music by Md. Jonny was stunningly melodious. The acting delivered by Rubi Khatun was moving and the countenance while showing her emotional bruises after the outrageous comments of audience was realistic. Hira Lal Roy is a master of dance and Rubi Khatun was able to match the perfectly supple twists of Hira Lal Roy. Shubro Bhattacharya is also an excellent actor and even getting a limited range of performance he left his impression as Gulab Vyas. Suman Kumar as Basant Vyas did good work. Ranu Kumar as Subhag Pandit showed the true repentance of a father who did not recognised the talent of his own son earlier. Even the guest performance of Harkishan Singh Munna drew the attention of the people.

Md. jonny (Harmonium), Rajesh Kr (dholak),  Rajan Singh (jhaal)  Kamakhya ji (Claret) were seated on stage straight to the eyes of the spectators at he back end. This elevates the position of music as the main theme of the drama. Nand Kr., Md. Asif, Ujjwal Kr and Rajiv Roy made it a good chorus. Uday Singh had was able to keep the sanctity of the original dance form and this along with singing was vital in this Ramayani based play. Upendra Kumar's Sound system worked well and Rajkumar Prasad's lights were flawless. Jitendra Kr Jitu's make up was as per the requirement. Birbal, Hiralal and Ranu prepared the simplistic set design as required here. This musical drama must give credit to Md jonny who had prepared the mellifluous music of all the songs. Also, last but not least, sincere appreciations must be conveyed to Vivek Kumar, the director of the play who also prepared the lyrics. 

It was a memorable show watched by the audience . Such a music rich play not only improves  the palatability of the play but also highlights the eclectic approach of theatrical technic where every form of art is adored and not merely acting. The whole team must be applauded for the marvelous show.
....
Review by - Hemant Das 'Him'
Photographs by - Binay Kumar
Send your response to - editorbiharidhamaka@yahoo.com