‘दूसरा
 शनिवार’ की गोष्ठी अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दिनांक 14 
अक्टूबर को 5:30 बजे टेक्नो हेराल्ड, महाराजा कामेश्वर कॉम्प्लेक्स, फ्रेजर
 रोड के सभागार में शुरू हुई। हृषिकेश सुलभ के कथा-पाठ को सुनने हेतु 
गोष्ठी में अवधेश प्रीत, संतोष दीक्षित, अनिल विभाकर, संजय कुमार कुंदन, 
प्रभात सरसिज, भावना शेखर, श्याम किशोर, राकेश प्रियदर्शी, नवीन कुमार, 
कुमार पंकजेश, अरुण नारायण, अमित कुमार, अंचित, सत्यम एवं नरेन्द्र कुमार 
उपस्थित हुए। अवधेश प्रीत की अध्यक्षता में गोष्ठी शुरू हुई। मंच संचालन 
प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा कर रहे थे। नरेन्द्र कुमार ने सभी सहभागियों का 
स्वागत करते हुए कहा की पिछले दो सालों में हमने सबसे अधिक कविताओं पर 
परिचर्चा की। एक बार कथाकार अवधेश प्रीत के रचनाकर्म पर बात हुई थी और एक 
गोष्ठी में तारानंद वियोगी द्वारा ‘राजकमल चौधरी’ के जीवन पर आधारित 
वृत्तांत ‘जीवन क्या जिया’ का पाठ एवं उसपर परिचर्चा हुई थी। आज हमलोगों के
 बीच हृषिकेश सुलभ की कहानी ‘हबि डार्लिंग’ का पाठ होना है। 
 
तत्पश्चात हृषिकेश सुलभ का कथा-पाठ शुरू हुआ। उनकी प्रवाहमय भाषा में सभी 
मंत्रमुग्ध हो कहानी को सुन रहे थे। आखिर एक निर्णयात्मक अंत के साथ 
कथा-पाठ का समापन हुआ। अब बारी थी, कहानी पर परिचर्चा की। प्रत्यूष चन्द्र 
मिश्रा ने शुरुआत करते हुए कहा कि कहानी जादुई वातावरण निर्मित करती है। 
बहुत सारी चीजें खुलती हैं। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रभात सरसिज ने कहा कि
 कविता का आदमी हूँ और कथा पढ़ता हूँ। कथा की रवानगी में मैं खोया था। ‘हबि 
डार्लिंग’ कहानी में कविताओं के बिंब और अक्स ढूंढें जा सकते हैं। ‘हबि 
डार्लिंग’ कैसे ‘हबि’ बनकर रह जाता है। नारी-विषयक मनोविज्ञान और पुरुषोचित
 उद्दाम भावना हम पुरुषों के लिए कालिख-सदृश्य है।
 अनिल विभाकर ने कहानी पर बात करते हुए कहा कि मैं इस कहानी के लिए सुलभ जी को बधाई
 देता हूँ। भाषा, शिल्प के साथ ही इनकी सारी कहानियां काव्यमय बिंबों से 
भरी हैं। आज भी समाज में यह कथा मिल जाएगी। पूरी कहानी अंत तक बांधे रखती 
है। चर्चा में शामिल होते हुए श्याम किशोर ने कहा की कहानी में मध्यवर्गीय 
जीवन की त्रासदी है। सुनते हुए लगा की यह गद्य नहीं पद्य है। चाक्षुष बिंब 
एक साथ दिख रहा है। संजय कुमार कुंदन ने कहा कि इतनी अच्छी कहानी सुनने के 
बाद प्रतिक्रिया देना मुश्किल है। पूरी कहानी लय में है और अंदर से अनुभूत 
है। कहानी में कदंब का पेड़ एक प्रतीक है तथा स्त्री पात्र की कहानी भी उसके
 जीवन की तरह चलती रहती है।
 कहानी के संदर्भ में बात करते हुए 
नरेन्द्र कुमार ने कहा कि इसे सुनते हुए एक रचना याद आती है, मृदुला गर्ग 
का उपन्यास ‘चितकोबरा’। पुरुष समाज जिस तरह स्त्री को देह के स्तर पर 
रिड्यूस करता रहा है, ठीक उसी तरह उस उपन्यास की नायिका अपने पति यानी 
पुरुष को देह के स्तर पर रिड्यूस करती है। ‘हबि डार्लिंग’ में भी स्त्री 
अपने पति को देह के स्तर पर रिड्यूस करती है। उपन्यास में संबंधों की 
उदासीनता इसका कारण बनती है तो इस कहानी में उनके अहं का टकराव एवं 
संस्कारगत रूढियाँ तथा जीवनानुभव। दोनों में दिमाग के स्तर से जुड़ने-समझने 
के लिए पर-पुरुष की चाह है तथा इन्तजार भी। पति शक्की एवं क्रोधी होने के 
बावजूद पत्नी को पढ़ाता है तथा उद्यमी बनने में मदद करता है, उसे फोन करके 
ही घर आता है, वहीँ पत्नी भी प्रताड़ना के बावजूद सही मौके के इन्तजार में 
रहती । यह उनके अहं के टकराव की कहानी बन गयी है। स्त्री विमर्श के नजरिये 
से भी समकालीनता के मामले में यह कहानी पीछे है। आज राजनैतिक एवं आर्थिक 
मुद्दों को हल किये बिना स्त्री को सामाजिक एवं पारिवारिक क्षेत्र में सबल 
नहीं बनाया जा सकता है। 
 नवीन कुमार ने कहानी पर मंतव्य देते हुए 
कहा कि पितृसत्तात्मक यथास्थितिवादी ढांचा यही है। सामाजिक यथार्थ की कहानी
 है। महिला मैरिटल रेप को झेल रही है तथा पावर के लिए स्ट्रगल कर रही है। 
पुरुष पितृसत्तात्मक मूल्य की विरासत लिए बैठा है। भावना शेखर ने कहा कि यह
 ख़ुशी की बात है कि पुरुषों द्वारा स्त्री की बात की जाए। सुलभ जी की ‘वसंत
 के हत्यारे’ मैंने कई बार पढी है। कुमार विनीत ने कहा कि कहानी में 
नाटकीयता अधिक है। 
 अरुण नारायण ने चर्चा को आगे बढाते हुए कहा कि 
कहानी में अतिशय नाटकीयता है। आज स्त्री-विमर्श ने जो रास्ता तय किया है, 
वह इन कहानियों से बहुत आगे निकल चुका है। यह कैसे होगा कि जो स्त्री सफलता
 के स्तर पर पुरुष से मुठभेड़ कर सकती है, वह बलात्कृत कैसे होती रहेगी? 
राकेश प्रियदर्शी ने कहा कि सुलभ जी के कहानी कहने का अपना अलग अंदाज है। 
उनकी कहानियों में सामाजिक यथार्थ आता है। फिर प्रत्यूष ने कहा कि 
स्त्रियों का सशक्तिकरण झंडों एवं आंदोलनों के शक्ल में नहीं आएगा। यह तो 
उनके स्वावलंबी बनने पर ही आएगा।
 संतोष दीक्षित ने परिचर्चा में 
शामिल होते हुए कहा कि सुलभ जी मेरे बहुत ही प्रिय कथाकार हैं। यह कहानी 
कथा-पाठ के लिए मेरे द्वारा ही सुझाई गयी थी। वे नाटक की दुनिया के भी आदमी
 हैं, इस कारण नाटकीयता की प्रधानता है। यह स्त्री मनोविज्ञान की कहानी है।
 स्त्री के अंदर कहानी चलती रहती है। विद्रोह अचानक नहीं होता। नाम डिलीट 
करना इनसाइड विद्रोह है। मनुष्य के आवेग हैं, वे अंदर के हैं...ज्यादा 
कहानी पुरुष के लंपटई की है। स्त्री मनोविज्ञान इतना जटिल है कि उसे उकेरना
 इतना आसान नहीं है। अंचित ने कहा कि कविता में वंडर एलिमेंट ढूंढना आसान 
है।  मार्केज एवं लौरेंस की कहानियों में एक सिंबल रहता है जिसके 
इर्द-गिर्द कहानी चलती रहती है। इस कहानी में भी कदंब का पेड़ है।
 
कुमार पंकजेश ने कहानी पर बात करते हुए कहा कि कथ्य और शिल्प के स्तर पर यह
 बहुत प्रभावित करती है। पुरुष का मनोविज्ञान भी शामिल है। पुरानी समस्याओं
 को लेकर नई कहानी है। कहानी जहां अंत होती है, वहीँ से विद्रोह शुरू होता 
है। स्त्री खुद को मानसिक रूप से तैयार करती है। दोनों एक-दूसरे को पीड़ा 
पहुंचाकर खुश हैं। अवधेश प्रीत ने अपनी बात रखते हुए कहा कि विभिन्न कोनों 
से कहानी पर बात कह दी गयी है। कहानियों में वैविध्य है, जीवनानुभव है तथा 
अपने को पुनराविष्कृत करते रहना इनकी खासियत है। लोग एक ही रचना को 
अपने-अपने टूल्स से परीक्षण करते हैं। भाषिक संरचना तथा लोक के प्रति 
रागात्मक लगाव के कारण कहानियाँ लोक में गहरे तक जाती हैं। कहानियों में 
चाक्षुषता तो है, पर दैहिकता नहीं है। पति और प्रेम में फर्क है। पति हो 
जाना डार्लिंग हो जाना नहीं है। डार्लिंग होना प्रेमी होने में निहित है। 
दृश्य श्रव्य माध्यमों से जुड़े होने के कारण उनकी कहानियों में भी 
कंट्रास्ट होता है। 
 कथाकार हृषिकेश सुलभ ने अपनी बात रखते हुए कहा 
कि अरसे बाद कहानी पढी है। इसके अपने-अपने पाठ होंगे। सुनना, पढना और देखना
 तीनों कलायें हैं। पढ़ा कैसे जाता है, इस पर भी पुस्तकें हैं – हिंदी और 
अंग्रेजी में भी। नब्ज टटोलना भी चाहता था कि पचीस साल पहले और अब के लोगों
 की बातचीत में कितना अंतर है। शहर में यह मेरे लिये लिटमस टेस्ट भी था। 
आपके अनुभव ही आपको रास्ता दिखाते हैं। ‘उदासियों का वसंत’ पूरी हुई तो लगा
 की जो मैं कहना चाहता था, कह नहीं पाया। तो दूसरे दिन ही यह कहानी शुरू 
हुई। यह कहानी बाईप्रोडक्ट है उस कहानी की। आपको रचनाओं तक धैर्य के साथ 
जाना चाहिये। आपको शंकालू भी होना चाहिये। पटना में साहित्य के पर्यावरण पर
 बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह चिंताजनक है। इस पर अवधेश प्रीत ने कहा 
की पर्यावरण बनाने की कोशिश की जा रही है। अंत में अरुण नारायण द्वारा 
धन्यवाद ज्ञापन किया गया।
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इस रिपोर्ट के लेखक- नरेन्द्र कुमार
रिपोर्ट के लेखक का ईमेल- narendrapatna@gmail.com
आप अपनी प्रतिक्रिया इस ईमेल पर भी भेज सकते हैं- hemantdas_2001@yahoo.com
 
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