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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Friday, 12 July 2019

मुंशी प्रेमचंद लिखित "दिल की रानी" और रंगमार्च द्वारा उसका 27.6.2019 को पटना में मंचन

प्रेम कहानी के बहाने धर्मांधता का पर्दाफाश
तैमूल लंग और हबीबा बानो

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धर्म कोई भी अच्छा ही होता है लेकिन जब उसकी आड़ लेकर हत्या और आतंक जैसे खूंखार अत्याचारों को अंजाम दिया जाता है तो इसमें धर्म की नहीं बल्कि उसका गलत इस्तेमाल करनेवालों का दोष होता है। ऐसे  भटके हुए लोगों को धर्म का सच्चा स्वरूप दिखा कर सुधारा जा सकता है।

बिहार आर्ट थियेटर द्वारा 58वें स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित पाँच दिवसीय नाट्योत्सव के तीसरे दिन प्रेमचंद की कहानी ‘दिल की रानी’ का मंचन रंग मार्च, पटना के कलाकारों ने मृत्युंजय शर्मा के निर्देशन में किया। यह मंचन 27.6.2019 को कालिदास रंगालय, पटना में हुआ

चौदहवीं सदी का ताकतवर और खूंखार शासक तैमूर लंग अपने जीवन के अंतिम दिनों में कुस्तुनतुनिया के शासक खलीफ़ा वायजीद की सेना को अंकारा के प्रसिद्ध युद्ध में परास्त कर चुका है और पूरी सेना उसके सामने घूटनों पर बंधक है। जन्म से तुर्क तैमूर के पिता ने इस्लाम कुबूल किया था, इसलिए वो इस्लाम का कट्टर अनुयायी है। उसके सामने हारी हुई सेना का सेनापति यजदानी बेडि़यों में जकड़ा खड़ा है। उसी जमात में यजदानी का जवान बेटा जो कि वास्तव में सैन्य भेष में उसकी बेटी हबीबा बानो है, भी शामिल है। अचानक वो तैमूर को ललकारते हुये इस्लाम की सच्ची नसीहत देती है। खुद को कट्टर मुसलमान, विश्व विजेता और कुरान-ए-पाक को कंठस्थ रखने वाला तैमूर उसकी हिम्मत से इतना प्रभावित होता है कि उसे अपने शासन में बज़ीर का पद पेश करता है और हारी हुई पूरी सेना को माफ़ कर देता है। 

इधर हबीबा की माँ और यजदानी इस बात को लेकर बेहद चिंतित होते हैं कि इतने खूंखार शासक के साथ उसकी जवान बेटी कैसे रहेगी? लेकिन हबीबा इस चुनौती को इस जिम्मेदारी के साथ कबूल करती है कि खुदा ने इस्लाम की नसीहतों से भटक कर लूट और आतंक की राह पर चलने वाले एक बादशाह को अगर वो सही रास्ते पर लाती है, तो यह ईमान और इंसानियत पर बहुत बड़ा उपकार होगा। इसके बाद तैमूर हबीबा की नसीहतों, इस्लाम की इल्म का इतना मुरीद हो जाता है कि उसकी बात आंख-मूंद कर मानता है।

 एक बार तैमूर द्वारा पूर्व में अन्य धर्म के लोगों, जिसे वो काफि़र कहता था, के खिलाफ़ लिये गये कई फ़ैसले के खिलाफ़ इंसानियत के पक्ष में हबीबा खड़ी हो जाती है और बगावत कर देती है। तैमूर इससे आहत होता है, परंतु वो हबीबा के इस्लाम संगत तर्को और कुरान में छिपे मानवता के संदेश का मुरीद होता है। और वो गैर धर्मो के सारे अधिकारों, आजादी और विभिन्न लगाये गये करों से मुक्त करने का आदेश देता है। खूंखार मंगोल शासक चंगेज खाँ और विश्व विजेता सिकंदर को अपना आदर्श मानने वाले तैमूर के अन्तर्मन में अपने द्वारा किये गये अत्याचारों, हत्याओं पर पश्चाताप चल रहा होता है और ऐन वक्त पर हबीबा के इस्लाम और कुरान की आयतों में तर्ज किये गये तर्क उसे एक नई राह दिखाती है। दरअसल, पहली नजर में हीं तैमूर, हबीबा की आंखों में झांककर यह जान चुका था कि वो नवजवान एक नेक दिल लड़की है और उसे अपने दिल की रानी बना चुका था। बाद में यही हबीबा बानो इतिहास के पन्नों में तैमूर की बीबी ‘बेगम हमीदा’ के नाम से मशहूर हुई।

प्रेमचंद की कहानी के बहाने धर्म की आड़ में आतंक और लूट की वैश्विक स्तर पर चल रही अंधाधुंध घटनाओं को चित्रित करने का यह प्रयास था। यह नाटक धर्मांधता में आतंक का प्रतीक 14वीं सदी का खूंखार शासक तैमूर के बहाने विभिन्न प्रतीको, प्रासंगिक घटनाक्रम और समकालीन कथ्य से आज आतंकवाद से बदहाल मानवता को प्रेम एवं शांति का संदेश देने की कोशिश करती है। "रंग-मार्च" के अनुभवी कलाकारों के साथ एक अच्छी प्रस्तुति का होना लाज़मी था। 

मंच पर अभिनेता थे तैमूर - राजन कुमार सिंह, हबीबा - नूपुर चक्रवर्ती, यजदानी (हबीबा के पिता) - सोनू कुमार,
नगमा (हबीबा की माँ) - सरिता कुमारी, बज़ीर - समीर रंजन और अन्य भूमिकाओं में थे पंकज सिंह, रवि पाण्डेय, गौतम कुमार, जिशान साबिर, आशीष सिंह, रौनक राज एवं सृष्टि शर्मा

नेपथ्य के कलाकार थे, प्रकाश परिकल्पना - उपेन्द्र कुमार, मंच परिकल्पना - अनुप्रिया, परिधान एवं वस्त्र - सरिता कुमारी,  रूप-सज्जा - नूपुर चक्रवर्ती,  प्रस्तुति सहयोग- प्रग्यांशु शेखर, भृगृरिषी कुमार एवं राज पटेल, सगीत संयोजन / संचालन- रौशन कुमार केशरी, प्रस्तुति नियंत्रक- दिपांकर शर्मा, प्रस्तुति प्रभारी - रविचन्द्र पासबाँ, प्रेक्षागृह प्रभारी -ज्ञान पंडित, विक्की राजवीर, अभिषेक आनंद।  कहानी  मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित थी और नाट्य-रूपांतरण एवं निर्देशन किया था मृत्युंजय शर्मा  ने

प्रेमचंद रचित यह कहानी जिसका सुंदर मंचन हुआ, की प्रासंगिकता आज किसी एक राज्य या देश में नहीं बल्कि पूरे विश्व में हैं जहाँ धर्म के नाम पर आतंक अपना नंगा नाच दिखा रहा है।
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आलेख - बेजोड़ इंडिया ब्यूरो
छायाचित्र - "नाटक बाला फोटो" से साभार
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
















Friday, 5 July 2019

साहित्य परिक्रमा तथा व. ना. साहित्यकार मंच द्वारा पटना में 4.7.2019 को कवि गोष्ठी सम्पन्न

शाम की तन्हाइयों में तुम चले आओ
सुपौल और सिलचर के साहोत्यकारों ने भी भाग किया

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"गुलशन गुलशन खार दिखाई देता है

मौसम कुछ बीमार दिखाई देता है"
मौसम बरसात का यूँ तो बहुत सुहावना होता है लेकिन अक्सर कवियों को गुलशन की हरियाली में खार भी नजर आने लगते हैं. इस बहुरंगी मौसम में कवियों की रचनाएँ भी विविध स्वरूप लेकर बाहर आती हैं.

दिनांक 4.7.2019 को  साहित्य परिक्रमा तथा वरिष्ठ नागरिक साहित्यकार मंच,पटना के संयुक्त तत्वावधान में  मधुरेश नारायण जी के गोबिंद इंक्लैव अपार्टमेंट, चांदमारी रोड, पटना स्थित आवास पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया.

गोष्ठी की अध्यक्षता सुप्रतिष्ठित कवि,गीतकार और कथाकार भगवती प्रसाद द्विवेदी तथा संचालन मशहूर  चित्रकार और कवि सिद्धेश्वर ने किया.

गज़लकार प्रेम किरण ने अपने जोशीले अंदाज में इन्सान की नाकामियों पर सवाल उठाया-
कर सकेगा वो हमें बर्बाद क्या 
हम हुए भी हैं कभी आबाद क्या?
कोई मैंना है न बुलबुल शाख पर 
बागबां भी हो गए सैय्याद क्या?

मधुरेश शरण ने शाम को अपने इष्ट को लौटाने को कहा - 
शाम की तन्हाइयों में तुम चले आओ
जाओ कहीं दूर मगर लौट के आ जाओ.

डॉ. किशोर सिन्हा ने हसरतों का नई तस्वीर खींची -
हसरतें हरी घास बन कर उगती है आस पास.

घनश्याम ने गुलशन में आजकल सिर्फ ख़ार ही ख़ार दिख रहे हैं -
गुलशन गुलशन खार दिखाई देता है
मौसम कुछ बीमार दिखाई देता है
जाने कैसी हवा चली है जहरीली
जीना अब दुश्वार दिखाई देता है
आगजनी, पथराव, धमाके, खूंरेजी
आतंकित घर-बार दिखाई देता है
विध्वंशक हो गई समय की गतिविधियाँ
संकट में संसार दिखाई देता है.

हास्य कवि विश्वनाथ प्रसाद वर्मा ने दाँव-पेंच की बात की -
दाँव पेंच खूब जानते हो
रात दिन डींग़े हाँकते हो.

सिलचर से पधारे चितरंजन भारती ने पक्षधर होने पर भी लाभ न पाने का दृश्य रखा -
हम साधारण जन
पक्षधर होकर भी क्या मिला?

सुपौल से आये हुए योगेन्द्र हीरा ले अपने मकान की नींव कहाँ पर डालिए, देखिए -
मेरी भी कल्पना थी मकान की
लेकिन नींव ली भावना की कब्र पर.

कुशल संचालन कर रहे सिद्धेश्वर ने खुद से सवाल किया -
मंदिर हो, मस्जिद हो, गुरुद्वारा ऐ सिद्धेश
तूने कहीं भी सर को झुकाया नहीं है क्या?

हरेन्द्र सिन्हा ने बरसात में वसंत की बहार ला दी -
तुम क्या मिले हर पल मेरा जीवन्त हो गया
देखो सनम मौसम हसीं वसन्त हो गया
कोई शकुन्तला तो कोई दुष्यंत हो गया.

शायर शुभचन्द्र सिन्हा पर सितम ही सितम हो रहे हैं -
इक तेरे ख्यालों के सितम हैं बेशुमार
उस पर तेरे न आने के बहाने हैं बहुत.

इनके अतिरिक्त विभारानी श्रीवास्तव, लता प्रासर और शशिकान्त श्रीवास्तव की कविताएँ भी पसंद की गईं.

अंत में गोष्ठी के अध्यक्ष भगवती प्रसाद द्विवेदी ने पढ़ी गई रचनाओं पर अपनी संक्षिप्त टिप्पणी करने के बाद अपनी कविता में सफलता पाकर जड़ को भूल जानेवालों को याद किया -
कहाँ गए वो लोग / वो बातें उजालों से भरी
कामयाब जो हुए / उड़नछू होते चले गए.

लगभग तीन घंटे तक चली इस सार्थक गोष्ठी में साहित्यानुरागी बीना गुप्ता और आशा शरण की उपस्थिति भी महत्वपूर्ण रही. सभा के विधिवत समापन के पूर्व मधुरेश नारायण ने रचनाकारों और श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया.
......

आलेख - घनश्याम / बीना गुप्ता सिद्धेश
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
लेखक का ईमेल आईडी - sidheshwarpoet.arat@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com








Wednesday, 3 July 2019

ये पब्लिक इस्कूल या कि सोने के अंडे हैं / हरिनारायण सिंह 'हरि' के दो गीत

 गीत-1

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ये पब्लिक इस्कूल या कि सोने के अंडे हैं 
क्यों गरीब पढ़ पायेंगे, सम्मुख ये डंडे हैं ।

मोटी-मोटी फीस और ऊपर से डोनेशन
छांट-छांट बच्चों को पढ़ा रहा है यह नेशन।
'शिक्षा का अधिकार सभी को' ऊंचे झंडे हैं !
ये पब्लिक इस्कूल या कि सोने के अंडे हैं ।

रोज-रोज के ड्रेस-चेंज ये खेल अजूबे हैं
साल-साल पर पुस्तक बदले, क्या मंसूबे हैं!
संचालक के लिए देश में हर दिन संडे हैं 
ये पब्लिक इस्कूल या कि सोने के अंडे हैं ।

कैसा है यह न्याय, विषमताओं को प्रश्रय दे,
दीनों के बच्चे अनपढ़ हों ,रह -रह सुबकी लें।
और अमीरों के बच्चे विद्वान! वितंडे हैं!
ये पब्लिक इस्कूल या कि सोने के अंडे हैं !

शिक्षा की यह नीति देश को कित ले जायेगा,
सिर्फ अमीरों का बच्चा ही इत रह पायेगा ।
ये समानता लाने वाले ही हथकंडे हैं !
ये पब्लिक इस्कूल या कि सोने के अंडे हैं !
.....


 गीत-2
    
तुम्हारे नेह का न्योता अभी तक याद है मुझको !

निमंत्रण प्रेयसी तेरा कभी क्या भूल पाऊँगा 
जनम भर याद रक्खूंगा,सदा सुधि में बुलाऊंगा।
नहीं जो पा सका तुझको, कहाँ अवसाद है मुझको !

स्वयं को देख सकती हो, अरे ये गीत  मुखरित हैं
ललित लय छंद तो सारे प्रिये तुमको समर्पित हैं।
इसी के मार्फत तुमसे हुआ संवाद है मुझको !

मिलन कब सतत रहता है, विरह शाश्वत रहा सब दिन
खुशी के पल क्षणिक होते,न कटते विरह-दिन गिन-गिन।
              तुम्हारी याद ने ही तो किया आबाद है मुझको!              
....
कवि- हरिनारायण सिंह 'हरि'
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Tuesday, 2 July 2019

आगमन और भा.यु.सा.प.के संयुक्त तत्वावधान में पटना में 29.6.2019 को आयोजित कवि गोष्ठी सम्पन्न

जो तेरा है खुदा वही तो मेरा 'राम' है

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पटना ।साहित्यिक संस्था आगमन (पटना) और भारतीय युवा साहित्यकार परिषद् के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित काव्य संध्या की अध्यक्षता करते हुए जाने-माने साहित्यकार और प्रख्यात चित्रकार सिद्धेश्वर ने कहा कि -" कविता हृदय से निकली हुई शब्दों की अभिव्यक्ति है।"

उन्होंने कविता पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि-" कविता की खाशियत, इनकी सादगी और सरलता में है, जो किसी कवि की कठिन उपलब्धि है। सिर्फ मात्राओं का जोड़-घटाव करनेवाले की ऐसे कवि हैं जो कविता का ढांचा तो  तैयार करलेते हैं लेकिन , उसमें प्राण तत्व नहीं डाल पाते!" 

पटना के एसकेपुरी के खुले मैदान में दिनांक 29.6.2019  को आम जन के बीच  इस कवि गोष्ठी का संचालन करते हुए  वीणाश्री हेम्ब्रम ने  क्ई शेर प्रस्तुत किया -
" जुंबा पर दर्द और जेहन में, कोई ख्याल न रहे
क्यों, कब, कैसे, किसने जैसा कोई सवाल न रहे। "

काव्य पाठ की शुरुआत नेहा नूपुर जी की समकालीन कविता से हुई। 

कवि मधुरेश नारायण जी की सुरीली कविताओं ने  पार्क में टहल रहे राहगीरों के कदम रोक लिए -
"शाम की तन्हाईयों में, तुम चले आओ 
जाओ कहीं भी दूर मगर, लौट के आ जाओ!

शायर  शुभचन्द्र सिन्हा जी ने कहा -
"यहां मिलना-जुलना तो रिवायत है
 जरूरी नहीं कि दिल ही मिला रहे।" 

मो. नसीम  अख्तर ने अपने अलग अंदाज में गजल प्रस्तुत की -
"फूल गुलशन में महकते कम हैं
अब परिंदे भी चहकते कम हैं!" 

कवि सिद्धेश्वर ने की शेर पेश कर खूब वाह-वाही लूटी- 
"देना-लेना तो खुदा का काम है
दुनिया में बेवजह बदनाम मेरा नाम है!
वही लौटाया है मैंने जो मुझे मिला 
जो तेरा है खुदा वही तो मेरा राम है!"

युवा कवयित्री रश्मि अभय का अंदाज-ए-बयां ही कुछ अलग था-
"उसके सजदे में जो सर झुकाया मैंने, 
वो खुद को खूदा समझ बैठे, 
जर्रा समझा मुझको जमीं का,
और खुद को आस्मां समझ बैठे!"

 नवोदित कवि अमर नाथ दूबे -
"कितनी रहस्यमयी है ज़िंदगी" तथा श्रीमती मीना कुमारी ने "आगमन से मेरा मन हुआ गुलजार" जैसी एक से बढ़कर एक कविताओं से खुशनुमा माहौल बनाया। 

काव्य संध्या का समापन, मो नसीम अख्तर के धन्यावाद ज्ञापन के साथ हुआ।  
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आलेख - बीना गुप्ता
छायाचित्र - वीणाश्री हेम्ब्रम / सिद्धेश्वर
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Monday, 1 July 2019

"दूसरा शनिवार" की मासिक गोष्ठी लंबे अंतराल के बाद 29.6.2019 को पटना में फिर आरम्भ

मूल्यों के स्थान पर प्रतिरोध और नए मूल्य गढ़ने की कोशिश
सुनील श्रीवास्तव की कविताओं में समय में घटित हो रही घटनाओं पर छटपटाहट

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दूसरा शनिवार की गोष्ठी लेखक कम, मित्रों से अधिक गुलजार होती है। गाँधी मैदान में गाँधी मूर्ति के पास मिले आठ महीने से अधिक की अवधि बीत चुकी थी और इस बीच हमारी गोष्ठी-स्थल का हाल बुरा हो चला था। नारियल के पेड़ सूख चुके थे, कहें तो जल गए थे। उनकी बची-खुची हरियाली आशा जरूर जगाती थी, पर यह भी कह रही थी कि अब वे प्राथमिकता में नहीं रहे। जमीन पर घास कहीं-कहीं नजर आ रही थी और नलों की टोंटी से पानी का आना बंद हो चुका था। अपनी गोष्ठी-स्थल की यह हालत देख कर सभी साथी चिंतित थे।

इस गोष्ठी में आदित्य कमल, अरुण नारायण, अमीर हमजा, राजेश कमल, समीर परिमल, प्रेम कुमार, प्रशांत विप्लवी, शशांक मुकुट शेखर, डॉ. विजय प्रकाश, श्याम किशोर प्रसाद, श्रीधर करुणानिधि, अरविंद पासवान, सुधीर सुमन, प्रत्यूष चंद्र मिश्रा और नरेंद्र कुमार आमंत्रित कवि सुनील श्रीवास्तव को सुनने के लिए उपस्थित हुए।

प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा ने आमंत्रित कवि सुनील श्रीवास्तव का परिचय देते हुए सीधे उन्हें कविता-पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया। कवि द्वारा ‘तोहफा’, ‘खुदकुशी’, ‘लड़कियों सुनो’, ‘जादू’, ‘जादू उनकी जुबान का’, ‘दिन वे लौट आते मगर’, ‘यकीन’, ‘कल सुबह’, ‘याद रखना’, ‘चावल से ककड़ियाँ चुनते हुए’, ‘समय उसके इशारे पर चलता था’, ‘रोजमर्रा’ एवं ‘जरूरी काम’ शीर्षक से कविताएं सुनाई। श्रोताओं के चेहरे पर अच्छी कविताओं को सुनने का सुकून स्पष्ट देखा जा सकता था… कवि का श्रोताओं के साथ सीधा संवाद हो रहा था। पढ़ी गयी कवितायें जीवन के हर पहलू का स्पर्श कर रही थीं और उनमें अंतर्निहित संघर्ष, प्रतिरोध, उम्मीद सभी स्पष्टता से मौजूद थीं।

अब कवि की रचनाओं पर बात होनी थी। सुधीर सुमन ने अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि जिस व्यक्ति से अंतरंगता हो और कविताओं को कई-कई बार सुना जा चुका हो तो कहना आसान नहीं होता। उन्होंने कहा कि सुनील श्रीवास्तव अच्छे अध्येता हैं। रचनाओं को पढ़ते हुए उनकी संतुलित आलोचना करते हैं। वे कविताओं में दूर की कौड़ी लाने की बात नहीं करते हैं। उनकी कविताओं में अपने समय से टकराव दिखता है। उनकी कवितायें वोकल नहीं हैं, बल्कि वह कविता में ही अंतर्निहित होती है।

कवि की रचनाओं पर बात को आगे बढ़ाते हुए राजेश कमल कहते हैं कि कविताओं को पहली बार सुनते समय यही लगा कि वे आसानी से बड़ी बात कह जाते हैं। कवि अगर कविता बुनने, गढ़ने-रचने में भाषा का धनी है तो वह चमत्कार भी दिखा सकता है। सुनील श्रीवास्तव चमत्कार न दिखाकर अपने आस-पास की चीजों से ही बिंब बनाते हैं। कवि को सुनना हमारी उपलब्धि है।

डॉ. विजय प्रकाश चर्चा को आगे बढ़ाते हुए जोड़ते हैं कि कवि की अधिकांश कविताओं में प्रेम है और प्रेम से कवितायें शुरू होती हैं। मूल्यों के स्थान पर प्रतिरोध है और वे नये मूल्य गढ़ने की कोशिश करते हैं। कविताओं में विवरण है, पर कवितायें उससे ही उत्पन्न होती हैं। ‘चूक’ कविता को इंगित करते हुए उन्होंने कहा कि कविता वहीं तक है जब कवि अजगररूपी ऑफिस के बॉस को देखकर खरगोश की तरह आँखें मूँद लेने की बात कहता है। कवि की ढिठाई है कि वह मौका मिलते ही उसे मारने की सोचता है। यह तो गोदान के पात्र हीरा की तरह का व्यवहार होगा। समग्र रूप में कवि की कविताएं अच्छी हैं।

श्रीधर करुणानिधि ने कहा कि सुनील श्रीवास्तव की कविताओं में विवरण भी नयी अर्थवत्ता देती हैं। कविताओं में प्रेम, उसके छलावे तथा जीवन के दुख-दर्द हैं। उन्होंने कई खास घटनाओं पर कवितायें लिखी हैं… ‘खुदकुशी’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें कवि बताना चाहते हैं कि जीवन ऐसा क्या, जिसमें हलचल-अवरोध न हो।

आदित्य कमल चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि पूरी कविताओं में एक स्वर है, प्रवाह है तथा वे जीवन से जुड़ी हुई हैं। उनकी कविताओं में समाज और जीवन से जुड़ाव है। हाँ, छटपटाहट को विस्तार नहीं मिल पाता है। ‘खुदकुशी’ कविता में यह सीमा दिखती है। कवितायें दिल के नजदीक हैं और उनमें बनावटीपन नहीं। आज के परिदृश्य में जब स्थापित कवि खुलकर सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ नहीं आ पाते हैं। नई पीढ़ी नये बिंबों, नई अर्थचेतना के साथ सामने आ रही है। कवि तो अपने ही प्रतिमानों का भी काउंटर करता है। ये सामाजिक रूप से सचेत कवि हैं।

अरुण नारायण अपने पिछले अनुभव को बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने ‘जनपथ’ के माध्यम से कवि की कविताओं के साथ हिंदी कविताओं पर उनके रिव्यू को पढ़ा है, जिसमें समाज-बोध एवं इतिहास-बोध है। अपने समय में घटित हो रही घटनाओं पर छटपटाहट दिखती है और वे रियेक्ट करते हैं। साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का औज़ार मानते हैं। उनकी पृष्ठभूमि आरा की है, जिसकी परंपरा में मधुकर सिंह, चन्द्रभूषण तिवारी आदि आते हैं। वैसे आरा में फ़र्जी साहित्यकारों का भी समूह है, जिसने साहित्यिक परिवेश को गंदा ही किया है। मैं ‘दूसरा शनिवार’ की टीम को सुनील श्रीवास्तव को आमंत्रित करने के लिए बधाई देता हूँ।

प्रशांत विप्लवी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि कवि दृश्यों का अवलोकन बारीकी से करते हैं और उन्हें शब्द भी देते हैं। कविताओं को पढ़ते हुए कवि को रेफरेंस नहीं देना चाहिए। इस पर अन्य मित्रों ने भी सहमति जताई।

सभी मित्रों की इच्छा थी कि ‘दूसरा शनिवार’ की गोष्ठियां आवर्ती रूप से आयोजित होती रहें ताकि हमारा संवाद बना रहे और नये रचनाकारों से हमारा साक्षात्कार हो। हमने शीघ्र मिलने का वादा किया। अंत में नरेन्द्र कुमार द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया।

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आलेख - नरेन्द्र कुमार
छायाचित्र - दूसरा शनिवार
लेखक का साइट - http://aksharchhaya.blogspot.com/
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