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Wednesday, 30 October 2019

भाईदूज पर दो कविताएँ / कवयित्री - अलका पाण्डेय

कविता -1

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कवयित्री अपने भाई के साथ

भाई दूज का पर्व है आया
कुमकुम अक्षत थाल सजाया
भाई को प्रेम से तिलक लगा
रक्षा का अनमोल वादा पाया

भाई पर अटूट प्रेम बरसाये
बहनों के मन खूब हर्ष समाये
बचपन का वो लड़ना झड़ना
बीती हुई यादों से मन हर्षाये

भाई बहन रिश्ता होता खास है
कोई फ़र्क़ नहीं दूर है या पास है
ह्दय से जब एक दूजे से प्रेम हो
हर दिन ही होता फिर ख़ास है

घर आँगन में ख़ुशियाँ छाई
बहनें अक्षत रोली ले कर आई
सजी हुई थाली प्रेम की हाथो में
अधरो पर मुस्कान सजाकर आई

ह्दय की गगरी से ममता रस छलके
प्रीत डोर के प्यार में एक दूजे में बँधके
हरदम दूर रहे बहन- भाई की विपदाएँ
दुख न हो जीवन में सुख के अंकुर फूटे

मस्तक चंदन तिलक लगाकर
रक्षा का अनमोल वादा पाकर
बहना की ख़ाली झोली भर जाऐ
आओ धूम धाम से हम पर्व मनाएँ.


कविता -2

भाई दूज का पर्व मनाया
रोली अक्षत थाल सजाया
भई बहन का प्यार अमर है
हर कोई यह है जाने- माने
माँ देती खूब दुआएँ
सब की लेती है बलाऐ
भाई छोटा हो या बड़ा
बहन रक्षा का वचन है लेती
जीवन की हर कठिन डगर पर 
साथ कभी न छूटे
जीवन की आपा धापी में
रिश्तों की ये नाव कभी न टूटे
मस्तक तिलक लगाकर
गाऐ प्यार के नगमें
भर कर आँखों में आशाएँ
ममता का रस छलकाए
प्रेम ही प्रेम ह्दय समाये
एक दूजे पर विश्वास अटूट
बहन भाई का प्यार है अटूट
भाईदूज की अनुपम बेला
बहन खुशहाली के दीपजलाये
भाईदूज का पर्व मनाये
रोली अक्षत थाल सजाये.
....
कवयित्री - अलका पाण्डेय
कवयित्री का ईमेल- alkapandey74@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com


हम कौन? / कवि - मनीश वर्मा

कविता

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नाटक "काली सलवार" के एक दृश्य में रास राज और अन्य कलाकार

हम कौन हैं?
हमारा वजूद क्या है?
हम आपकी सरपरस्ती मे ही तो पलते बढते हैं 
कभी  वैधानिक तरीकों से 
तो कभी अवैधानिक तरीकों से

पर हमारी सरपरस्ती बदस्तूर जारी रहती है
सनातन काल से 
 कभी परंपरा तो कभी धर्म के नाम पर 
कभी मंदिरों में तो कभी प्रासादों मे 
हमारा स्वरूप बदलता रहा है 
हमारा नाम बदलता रहा
पर हमारी प्रकृति कभी नही बदली

कभी जोर से तो कभी पैसों की ताकत से
कभी मजबूरी में तो कभी किन्हीं और कारणों से
हम हमेशा से रहे अभिशप्त 
धक्के दिए जाते रहने को

हम समाज के अनचाहे हिस्से हैं 
 ठीक उस बच्चे की तरह 
जो इस दुनिया मे आ गया हो 
 समाज के विपरीत नियमों की वजह से

हमारी नियति है यह!
 लोगों के दमित इच्छाओं की पूर्ति करते हैं
सामाजिक ताने-बाने मे संतुलन का नाम हैं हम!
सामाजिक संतुलन मे बतौर सेफ्टी वाल्व काम करते हैं हम!

इस झूठी दुनिया में
 झूठ ही सही, कुछ देर के लिए ही सही
व्यावसायिक तरीके से ही सही
 एक छद्म आवरण के अंदर अपने को समेटे हुए 
 कंधा मयस्सर कराते हैं अपना!
पर, क्या वजूद है समाज में हमारा!

वेश्याएं हैं हम! हमेशा परोसे जाने को तैयार!
समाज हमें घृणा की दृष्टि से देखता है। 
सामाजिक रूप से तिरस्कृत हैं हम सभी!
क्या समलैंगिक हैं हम? 
अरे! समलैंगिकों को भी हमारे यहां प्राप्त है अधिकार
 कुछ वैधानिक और कुछ सामाजिक भी
हम वेश्याएं कहाँ हैं? और क्यों?
यह जन्मजात तो नही?
वंशानुगत भी नही?
यक्ष प्रश्न?
क्या वन वे ट्राफिक है यह?
सोचिए!
.....
कवि - मनीश वर्मा 
कवि का ईमेल - itomanish@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com

Tuesday, 22 October 2019

"लघुकथा कलश" के रचना प्रकिया विशेषांक का लोकार्पण-सह-विचार गोष्ठी पटना में 20.10.2019 को सम्पन्न

लालटेन के छोटे दायरे की रौशनी से भी तय होता है लम्बा सफर
लघुकथा के सृजन में रचना प्रक्रिया पर बहस और लघुकथाओं का पाठ

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पटना के कालीदास रंगालय के प्रांगण में दिनांक 20.10.2019 को लघुकथा को समर्पित अर्धवार्षिक पत्रिका "लघुकथा कलश" के रचना प्रक्रिया विशेषांक के लोकार्पण-सह- विचार गोष्ठी में अध्यक्षता करते हुए डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने लघुकथा की रचना प्रक्रिया पर विस्तार-से चर्चा की और लघुकथा के शिल्प पर भी विचार - विमर्श जमकर हुआ। किंतु उल्लेखनीय बात यह है कि ढेर सारे प्रतिनिधि लघुकथाकारों की उपस्थिति के बावजूद लघुकथा पर विमर्श और बहस वरिष्ठ कथाकारों ने किया। इसलिए लघुकथा की उपादेयता पर कम और कहानी की रचना प्रक्रिया पर बहस अधिक हुई। इस लघुकथा संगोष्ठी की प्रासंगिकता रचना प्रक्रिया के लिए नहीं बल्कि "लघुकथा कलश "में प्रकाशित लघुकथाकारों द्वारा पढी़ जाने वाली श्रेष्ठ लघुकथा के लिए याद की जाएगी। 

इस लघुकथा की रचना प्रक्रिया की संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध कथाकार अवधेश प्रीत ने लघुकथा की अस्मिता पर चर्चा करते हुए कहा कि - 
"यहां हर चीज बड़ी होती है। चाहे वह महारैली हो,या महाविशेषांक। लघुकथा हो या कहानी, रचना प्रक्रिया एक रचनात्मक अनुभूति है, जो आनंद के साथ- साथ पीड़ादायक भी है। और कमोवेश प्रत्येक रचनाकार इससे होकर गुजरता है। "

"छोटी बातें लिखना बहुत बड़ी बात है। चाहे वह छोटी कविता हो, कहानी हो या लघुकथा। लालटेन की छोटे दायरे  की रौशनी के सहारे हमें लम्बा रास्ता तय करना होता है। एक लघुकथा किन प्रक्रियाओं से गुजरते हुए, अपना आकार ग्रहण करता  है, "लघुकथा कलश" के इस लोकार्पित रचना प्रक्रिया विशेषांक की यही विशेषता है।"

उन्होंने कथा की रचनाशीलता पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि  - "रचना की कलाबाजियां और रचनाकार का विजन दोनों अलग - अलग बाते हैं। हमारी रुढ़िवादिता को तोड़ने की दिशा में भी लघुकथा की अहम भूमिका रहती है। रचना प्रक्रिया के कई आयाम होते हैं। हर लघुकथाकारों की एक ही  नजरिया हो, यह जरूरी नहीं। 

लघुकथा प्रक्रिया के स्थान पर अवधेश प्रीत ने अपनी "पोखर" कहानी की प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला। एक कथाकार की यही ईमानदारी भी है कि वह जो जीता और भोगता है, उसी पर चर्चा करे।

किंतु क्या पटना में लघुकथाकारों का अभाव हो गया है कि लघुकथाकारों के स्थान पर इस" लघुकथा प्रक्रिया संगोष्ठी" में कहानी की रचना प्रक्रिया पर बोलने के लिए, कथाकारों को आमंत्रित किया गया। खैर,..!

विशिष्ट अतिथि कथाकार संतोष दीक्षित भी एक कथाकार के नाते लघुकथा पर कम, कथा प्रक्रिया पर अधिक बोलते नजर आएं। उन्होंने कहा कि -
"रचना जब भी मैं लिखता हूं, मेरे पास कोई अनुभव नहीं होता  है। मैं अपनी कथा प्रक्रिया की ही चर्चा कर सकूंगा। कविता न कलम से लिखी जाती है न अनुभव से, कविता हाथ से लिखी जाती है। ज्ञान अनुभव की कोई जरूरत नहीं। किसी के कहे- सुने पर विचार मत करो । अपने अनुभव से लिखो। लघुकथा का कोई शास्त्रिय या सैद्धांतिक ज्ञान की जरूरत नहीं होती । आप रसोई में भी जो मौलिक लिखती हैं, तो वह भी  साहित्य है। विधाओं का कोई शास्त्र नहीं होता, ऐसा मेरा मानना है। " ( संतोष दीक्षित जी, फिर हम कुछ भी लिखकर कविता को कहानी, कहानी को लघुकथा या लघुकथा को कहानी क्यों नहीं कहते हैं ?")
                
उन्होंने कुछ लघुकथाओं पर चर्चा करते हुए कहा कि-"पुलिसिया तंत्र पर लिखी गई, सिद्धेश्वर की लघुकथा "बोहनी" बहुत पुरानी रचना होते हुए भी, आज  भी प्रासंगिक है। - "उन्होंने कहा कि रचनाकारों को भाव विषय भाषा पर अवश्य ध्यान देना चाहिए - प्रकाशन के पहले। 

ध्रुव कुमार ने  संचालन क्रम में कहा कि नारी-उत्पीड़न से अब लघुकथाकारों को बाहर आना चाहिए। क्योंकि इस विशेषांक में अधिक लघुकथाएं इसी विषय पर लिखी गई है। 

मुख्य वक्ता डॉ. किशोर सिन्हा ने कहा कि लघुकथा को अभी लम्बा सफर तय करना है। और इसके लिए इस विधा से जुड़े रचनाकारों को उत्कृष्ट रचनाएं देने की आवश्यकता है। 
             
इस रपट के लेखक के मन में तत्काल एक सवाल कौंधा- "अब नाटककार किशोर सिन्हा को कौन बतलाए कि लघुकथा अब  कोई नई विधा नहीं रह गई है। और इस विधा में,प्रेमचंद, मंटो और फिर कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा,, चित्रा मुद्गल से लेकर रामयतन यादव, मधुदीप, बलराम, पुष्पा जमुआर, अनिता राकेश तक सैंकड़ों ऐसे प्रतिनिधि लघुकथाकारों की ढेर सारी श्रेष्ठ लघुकथाएं मौजूद हैं। खेल, ठंडी रजाई, कफन, बोहनी, भविष्य का वर्तमान, सिर उठाते तिनके, भूख, पत्नी की इच्छा जैसी सैंकड़ों लघुकथाएं, लघुकथा के पाठकों के लिए जानी पहचानी है। 

अब किशोर सिन्हा प्रेमचंद की कफन को, चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी "उसने कहा था", विमल मित्र की साहब बीबी गुलाम, रेणु की तीसरी कसम आदि कहानी उपन्यास की चर्चा करते हुए कहते हैं कि इस तरह की कालजयी रचनाएं लघुकथा विधा में क्यों नहीं है? 

इसमें लघुकथा विधा या लघुकथाकारों का दोष कहां है? आप ईमानदारी से, निष्पक्षता पूर्वक चुनी हुई लघुकथाओं को पाठ्यक्रम में शामिल कीजिए, उन लघुकथाओं पर फिल्में और सीरियल बनाइए, फिर देखिए कि लघुकथा विधा मैं कहानियाँ की तरह कालजयी रचना है या नहीं.?

इन्हीं बातों को, संचालन के क्रम में ध्रुव कुमार ने भी कहा - "लघुकथा को पाठ्यक्रम में लाने का सद्प्रयास किया जा रहा है ताकि वह भी कहानी, उपन्यास, कविता की तरह अधिकांश लोगों तक पहुंच सके। किसी भी रचना को बेहतर बनाया जा सकता है और यह कई चरणों में पूरा होता है। 

इस रपट के लेखक का साथ देते हुए ध्रुव कुमार ने भी कहा कि - "लघुकथा कलश" के संपादक योगराज प्रभाकर ने "लघुकथा की रचना प्रक्रिया" पर, सचमुच अद्भुत महाविशेषांक निकाला है और इसके लिए, संपादक बधाई के पात्र हैं। लगभग 400 पृष्ठोंवाले इस महाविशेषांक में, हिन्दी के 126, नेपाली और पंजाबी के 8-8 लघुकथाकारों की, लगभग 400 प्रतिनिधि लघुकथाएं संग्रहीत है। यह ऐतिहासिक प्रयास है और लघुकथा के लिए अविस्मरणीय भी।"

खैर, कई लोगों ने इस बहस में किशोर सिन्हा के तर्क पर असहमति प्रकट की। और ध्रुव कुमार ने भी लघुकथा की शैक्षणिक उपयोगिता पर विस्तार से चर्चा की, जिस विषय पर इस रपट के लेखक ने भी एक लेख लिखा है और वह की पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुआ है। 

हां, मंचित एकमात्र लघुकथा लेखिका और समीक्षक  अनिता राकेश ने कहा कि - "लगातार लेखन से रचनाकारों की रचनाओं में निखार आया है। श्रेष्ठ लघुकथा लेखन के रचना प्रक्रिया में, अनुभव और जन्मजात प्रतिभा का सामंजस्य होता है। 

इस साहित्यिक संगोष्ठी के दूसरे सत्र में,इस महाविशेषांक में प्रकाशित पटना के लघुकथाकारों ने अपनी अपनी लघुकथाओं का पाठ किया जिसका आरंभ सिद्धेश्वर द्वारा लघुकथा के पाठ से हुआ और फिर वीरेंद्र भारद्वाज, विभा रानी श्रीवास्तव, पुष्पा जमुआर, जयप्रकाश, मृणाल, सतीशराज पुष्करणा, ध्रुव कुमार, अनिता रश्मि आलोक चोपड़ा आदि लघुकथाकारों ने लघुकथा का पाठ कर समारोह को यादगार बना दिया। समारोह में रवि श्रीवास्तव, मधुरेश नारायण, अभिलाषा दत्त, संगीता मधुप्रिया, प्रियंका, मीरा प्रकाश, ऋचा वर्मा, नुपूर नेहा, मो नसीम अख्तर, सुबोध कुमार सिन्हा, मीना कुमारी परिहार राजकांता राज, मीरा सिंहा आदि की सह भागीदारी महत्वपूर्ण रही। 
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आलेख - सिद्धेश्वर
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com












Sunday, 20 October 2019

डा. सुधा सिन्हा के प्रथम कविता संग्रह "गगरिया छलकत जाय " का लोकार्पण 18.10.2019 को पटना में सम्पन्न

स्वजन तेवर बदल कर बोलते हैं / सच्चाई भी संभल कर बोलते हैं

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"कविता पीड़ा हरती है। एक नई उर्जा प्रदान करती है।
एक शेर है कि - "बात बेसलीका हो भली/ बात कहने का सलीका चाहिए। "
-और यही सलीका सिखाती है कविता।

अभिव्यक्ति की आरंभिक विधा है कविता। किंतु कविता अपने फार्म में होना चाहिए। लालित्यपूर्ण ढंग से कही गई पंक्तियां कविता है। यदि उसमें लयात्मकता न हो। तो वह गीत नहीं। काफिया नहीं, छंद नहीं तो वह गजल क्यों? त्रुटियों से भरी रचनाएं हमारी छवि बिगाड़ देती है। बेहतर हो कि रचनाओं को संशोधन के बाद प्रकाशित करवाया जाए। सुधा सिंहा की यह काव्य पुस्तक स्वागत योग्य है किंतु प्रकाशन के पहले इन कविताओं का संशोधन होता, तो बात कुछ और होती।  कुछ ऐसी ही चर्चा चल पड़ी मंच पर बैठे अतिथि साहित्यकारों के द्वारा।

अतिथि रामउपदेश सिंह ने कहा कि लोकार्पित पुस्तक में टिकाऊ और बड़ी कविता लिखने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है।

मुख्य अतिथि जियालाल आर्य ने कहा कि इस पुस्तक में आत्मीय ढंग से लिखी हुई कविताएं हैं। नृपेन्द्रनाथ गुप्त ने कहा कि  डॉ सुधा की कविताओं में मोती की सुगंध है।  

अपने अध्यक्षीय उद्बबोधन के पश्चात अनिल सुलभ ने कहा कि - 
"कौन सा गम खा रहा तुझको सुलभ? 
वह राज कहो जो तुम्हारे दिल में है।"     

कवि गोष्ठी का आरंभ हुआ तो कवि घनश्याम ने कहा कि - 
"स्वजन तेवर बदल कर बोलते हैं।
सच्चाई भी संभल कर बोलते हैं।
इसे घनश्याम की खूबी समझिए। 
जहां पर जाते , जमकर बोलते हैं। "

दूसरी तरफ  डा मेहता नागेन्द्र सिंह ने कहा कि --
" दौलत नहीं मगर, शोहरत मेरे पास है
कुदरत का हूं सेवक, कुदरत मेरे पास है।

 सिद्धेश्वर ने की मुक्तक पेश किया -
"झूठ और कत्लेआम को, संघर्ष का नाम न दो 
सुना है, इस आजाद मुल्क में, इंसानियत कहीं लेट गई है!"

विजय गुंजन ने  गत्यात्मक  दो गीतों का सस्वर पाठ किया।

इसी तरह की सारगर्भित कविताओं से गूंजता रहा बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभागार। अवसर था- डॉ.सुधा सिन्हा की काव्य कृति "गगरिया छलकत जाए" के लोकार्पण का।

इस अवसर पर कवि घनश्याम/शंकर प्रसाद, श्रीकांत व्यास, मेहता नागेन्द्र सिंह, ओम प्रकाश. पांडेय ,श्याम जी सहाय,कल्याणी सिंस, कालिनी त्रिवेद, जनार्दन प्रसाद, पंचूराम, पुष्पा जमुआर,/पूनम श्रेय, अनुपमा, कुमारी मेनका, जय प्रकाश पुजारी, मीना कुमारी परिहार, मनोज गोवर्ध, इंदुमाधुरी, सिंधु कुमारी। पूरे समारोह का संचालन किया योगेन्द्र मिश्र ने। 

योगेन्द्र मिश्र और कार्यक्रम अध्यक्ष अनिल सुलभ आदि ने  कविताओं का पाठ कर श्रोताओं को मनमुग्ध कर दिया।

कार्यक्रम दिनांक 18.10.2019 को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना के सभागार में आयोजित हुआ था।
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प्रस्तुति - सिद्धेश्वर
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
लेखक का ईमले - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejdindia@yahoo.com












 







Thursday, 17 October 2019

इस दिवाली / कवि - दिलीप कुमार के परिचय के साथ

इस दिवाली

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इस दिवाली
कुम्हारों की दशा पर तरस खा 
माटी के दीए मत जलाना

दूधिया रोशनी की चौंधियाहट
और पटाखों के शोरगुल के बीच
खोए हुए हो तुम
सघन अंधियारे और सन्नाटे में

हो सके तो
हौले से दिल के दरवाजे खोलना
कुछ दिखाई ना दे, फिर भी टटोलना

मिल जाए यदि वहां बचपन वाली नादानी
मिल जाए यदि वहां नानी की कहानी 
मिल जाए यदि गुलमोहर की वह लाली
मिल जाए यदि गांव वाली वह हरियाली

तो फिर पूछना खुद से
कृत्रिमता की चमक में तुम क्या खो आए हो
खुशियों की बगिया उजाड़, उदासी का कौन सा पौधा बो आए हो

कि कहां दफन हो गई है वह दुआर की रंगोली 
कहां खो गई है वह उन्मुक्त हंसी-ठिठोली

कुछ जवाब अगर दे सके वह दिन पुराना
तभी तुम कुम्हार के घर आना
माटी के दीए ले जाना
अपनेपन का तेल और प्यार की बाती डाल, उसे जलाना
उस जलते दिए की रोशनी में 
खुद को फिर से पाना।
...
कवि - दिलीप कुमार
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com
कवि का परिचय - श्री दिलीप कुमार एक बिहार के एक गम्भीर युवा कवि हैं जिनमें आम आदमी की कसक, जमीन की महक और परिवेशगत विसंगतियों के प्रति क्षोभ के दर्शन होते हैं. रेलवे विभाग के उच्च पर पर शोभायमान होते हुए भी लोक-संस्कृति के प्रति इनकी आस्था और सक्रियता देखते बनती है. इनका कविता संग्रह "अप और डाउन में फँसी ज़िंदगी" कार्यालय और वास्तविक ज़िंदगी के बीच के द्वंद्व को बखूबी दर्शाता है.





Sunday, 13 October 2019

नवगीतिका लोक रसधार द्वारा छठ पर्व के गीतों पर नीतू कुमारी नवगीत का गायन 13.10.2019 को पटना में सम्पन्न

केलवा के पात पर उगेलन सुरुज मल झांके झुके

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यूथ हॉस्टल एसोसिएशन बिहार और सांस्कृतिक संस्था नवगीतिका लोक रसधार द्वारा लोक आस्था के महापर्व छठ से जुड़े पारंपरिक गीतों पर आधारित कार्यक्रम जय छठी मैया का आयोजन यूथ हॉस्टल परिसर,  फ्रेजर रोड, पटना में किया गया । 

कार्यक्रम का उद्घाटन रेल ब्हील फैक्टरी की प्रधान वित्त सलाहकार पुष्पा रानी, बिहार प्रशासनिक वाइव्स एसोसिएशन की अध्यक्ष पुष्पलता मोहन, अलका प्रियदर्शिनी, कलाकार मनोज कुमार बच्चन, वरिष्ठ कवि अनिल विभाकर, नीलांशु रंजन, यूथ हॉस्टल एसोसिएशन बिहार शाखा के अध्यक्ष मोहन कुमार, संगठन सचिव सुधीर मधुकर, रतन कुमार मिश्रा, सचिव एके बॉस और हॉस्टल प्रबंधक कैप्टन राम कुमार सिंह ने किया ।

 लोक गायिका डॉ नीतू कुमारी नवगीत ने सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरुआत गणेश वंदना मंगल के दाता भगवन बिगड़ी बनाई जी गौरी के ललना हमरा अंगना में आई जी के साथ की । उसके बाद उन्होंने शुद्धता, सच्चाई और समर्पण के महापर्व छठ से जुड़े अनेक लोक गीतों की प्रस्तुति की।

केलवा के पात पर उगेलन सुरुज मल झांके झुके, उगिहैं सुरुज देव होते भिनुसरबा अरग के रे बेरिया हो, उ जे केरवा जे फरेला घवद से, ओह पे सुगा मंडराय, मार्बो रे सुगवा धनुष से सुगा गिरे मुरझाए, कांचे ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए, पटना के घाट पर हमहुं अरगिया देवई हे छठी मईया, हम ना जाइब दोसर घाट हे छठी मईया, छठ के बरतिया करा दीह, घाट बनवा दीह ओ पिया, हाजीपुर से केलवा मंगा दीह ओ पिया जैसे गीतों को गाकर गायिका नीतू कुमारी नवगीत ने माहौल को छठमय बना दिया। 

गंगा माता की महिमा का बखान करते हुए नीतू कुमारी नवगीत में कई गीत गाए जिसे श्रोताओं ने खूब पसंद किया । उन्होंने मांगी ला हम वरदान हे गंगा मईया मांगी ला हम वरदान, मनवा बसेला हे गंगा, तोहरी लहरिया, जियारा में उठेला हिलोर हो माई तोरे जगमग पनिया और चलली गंगोत्री से गंगा मैया जग के करे उद्धार जैसे गीत मां गंगा को समर्पित किए। 

सांस्कृतिक कार्यक्रम में राजन कुमार ने तबला पर, राकेश कुमार ने हारमोनियम पर अजीत कुमार यादव ने झंझरी पर और विष्णु थापा ने बांसुरी पर संगत किया।  यूथ हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष मोहन कुमार ने कहा कि लोक आस्था के महापर्व छठ और दूसरे त्योहारों के अवसर पर डीजे से जितना दूर रहा जाए उतना ही बढ़िया है ।

डीजे से शोर बढ़ता है जबकि हमारे पारंपरिक लोक संगीत से मन को शांति मिलती है और भक्ति की भावना बढ़ती है । कार्यक्रम का संचालन करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ ध्रुव कुमार ने छठ की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह पर्व हमें प्रकृति से जोड़ता है छठ के दौरान प्रयोग में आने वाली प्रायः हर वस्तु जैसे सूप चूल्हा, दउरा प्रकृति के अनुकूल है । प्लास्टिक और इस से बनी चीजों का प्रयोग छठ के दौरान वर्जित है। जल जमाव और जल प्रदूषण का एक बड़ा कारण प्लास्टिक से बनी वस्तुएं हैं।
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आलेख - दिलीप कुमार द्वारा भेजी गई सामग्री के आधार पर
छायाचित्र - 
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com












युवा कवि दिलीप कुमार का एकल काव्य पाठ 12.10.2019 को पटना में सम्पन्न

नाम दीए का होता है / पर जलती तो बाती है

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पूर्व मध्य रेल के राजभाषा विभाग द्वारा पटना जंक्शन परिसर में स्थित रेल सभागार में युवा कवि दिलीप कुमार की कविताओं का एकल पाठ आयोजित किया गया । कवि दिलीप कुमार ने अपने संग्रह अप डाउन में फंसी जिंदगी से कई कविताओं का पाठ किया जिसमें रेल कर्मियों के जीवन के विविध रंग देखने को मिले -

समय से रेस लगाते देखा
गाते और गुनगुनाते देखा
अपनी मंजिल की खैर नहीं
सबको मंजिल पर पहुंच आते देखा।

रेल पटरियों की देखरेख करने वाले ट्रैकमैन के जीवन से जुड़ी कविता को श्रोताओं ने खूब पसंद किया -दहकता हुआ सूरज /स मा गया है रेल की पटरियों में
पैरों में पड़ गए हैं छाले / चौंधिया गई हैं आंखें
फिर भी पटरियों की देखरेख का क्रम जारी है
उसका समर्पण सूरज की तपिश पर भारी है।

दिलीप कुमार ने बिहार के लोक जीवन और त्योहारों से जुड़ी कई कविताओं का पाठ कर श्रोताओं के दिल में जगह बनाई । सरल शब्द विन्यास के बावजूद दीप का सवाल कविता श्रोताओं को खूब पसंद आई -
दीपावली के दिन अपने घर आंगन में दीप जलाया/-
धरती से आसमान तक अंधेरे को मार भगाया/-
फिर अपने मन में एक दीप क्यों नहीं जलाते/-
मन के अंधेरे को दूर क्यों नहीं भगाते ?

इसी तर्ज पर उन्होंने रावण दहन से जुड़ी कविता औपचारिकता सुनाई:
 धू-धू कर जल गया रावण का पुतला
शहर के बीच मैदान में
लोगों ने देखा तमाशा / बजाई तालियां
और लौट गए/ अपने-अपने घर को
मन की बुराई, मन में ही समेटे ।

महिला श्रोताओं को जलती तो बाती है कविता को पसंद आई -
दीया को जीवन मैंने दिया
जली रात भर, जग को रौशन किया
मैं औरत हूं
मुझे औरत ही बनाती है
वही औरत जो दिन भर खाना पकाती है
और रात में सबसे अंत में खाती है
वही औरत जो अधूरेपन में जीती है
लेकिन पूर्णता में देती है
किसी उपलब्धि का कभी श्रेय नहीं लेती है
सभी औरतों की एक जैसी थाती है
नाम दीए का होता है
पर जलती तो बाती है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता स्टेशन निदेशक डॉ निलेश कुमार ने की। आयोजन के दौरान  वरिष्ठ कवयित्री भावना शेखर ने कहा कि दिलीप कुमार की कविताओं में सादगी और सच्चाई है।  मुकेश प्रत्यूष ने कहा कि इस्पाती चौखट में रहने के बावजूद उनकी कविताओं में मानवीय संवेदना है। मौके पर ध्रुव कुमार कुमार रजत, प्रणय प्रियंवद, शायर कासिम खुर्शीद, समीर परिमल, हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य वीरेंद्र यादव आदि उपस्थित रहे।

कार्यक्रम का संचालन कवि राजकिशोर राजन और धन्यवाद ज्ञापन सिद्धेश्वर ने किया।
.....

आलेख - नीतू कुमार नवगीत द्वारा भेजी गई सामग्री के आधार पर
छायाचित्र सौजन्य - डॉ. नीतू कुमारी नवगीत
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बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा डॉ. कुमार विमल जयंती -सह- कवि गोष्ठी 11.10.2019 को पटना में सम्पन्न

सौंदर्य शास्त्र के महान आचार्य 

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(डॉ. कुमार विमल का जन्म 12.10.1931 को हुआ और 26.11.2011 को उनकी मृत्यु हुई. वे बिहार सरकार के अनेक महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित रहे. उन्हें समालोचना और सौंदर्यशास्त्र अध्ययन हेतु विशेष रूप से सम्मान प्राप्त था. उनकी दो पुस्तकें राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित थीं - "सौंदर्यशास्त्र के तत्व" और "छायावाद का सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन". उनके जन्मदिन पर एक गोष्ठी पटना में आयोजित की गई. प्रस्तुत है उसकी रपट.)

डॉ. कुमार विमल सौंदर्य शास्त्र के प्रथम विशेषज्ञ माने जाते हैं। ललित ढंग से सौंदर्य की  शब्दाकृति होती है कविता। एक साथ कई पुस्तकें पढ़ा करते थे वे। समालोचना में, नलिन विलोचन शर्मा के बाद यदि किसी को स्मरण कर सकता हूं, तो वो कुमार विमल हैं। 

अध्यक्ष अनिल सुलभ  के उपरोक्त उद्गार के पश्चात डां एस एन पी सिन्हा ने कहा कि- "वे सौंदर्य शास्त्र के महान आचार्य थे। अपने  समय के वे जीवित साहित्य कोश थे। उनका संपूर्ण जीवन साहित्य और पुस्तकों के साथ जुड़ा रहा

 पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा एस एन पी सिन्हा ने यह भी कहा कि" डां विमल एक विद्वान लेखक ही नहीं, अत्यंत प्रभावकारी वक्ता भी थे।" 

इनके अतिरिक्त डां शिववंश पांडेय ने कहा कि - "कुमार विमल की ख्याति साहित्य संसार में आज भी बनी हुई है। उन्होंने कंई महत्वपूर्ण ग्रथ लिखे हैं। साथ में कल्याणी कुसुम सिंह, प्रो भूपेंद्र कलसी, नागेश्वर प्र यादव और  श्रीकांत सत्यदर्शी ने भी डां कुमार विमल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से सारगर्भित विचार व्यक्त किए। 

बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में, डां कुमार विमल की जयंती सह कवि सम्मेलन में अपनी काव्यमय प्रस्तुति देने वाले कवियों में प्रमुख थे - अनिल सुलभ, डां शांति जैन ,बच्चा ठाकुर, इंद्रकांत मिश्र, नृपेन्द्र गुप्त, डां मेहता नागेन्द्र सिंह, सविता मिश्र माधवी, श्रीकांत व्यास, कुंदन आनंद, शुभचन्द्र सिंहा, पुष्पा जमुआर, सीमा रानी, ओम प्रकाश पांडेय प्रकाश, सुनील दूबे, यशोदा शर्मा, जय प्रकाश, धर्मवीर कु शर्मा, रवीन्द्र कुमार, नीरव रामदर्शी, राजकुमार प्रेमी और सिद्धेश्वर। 

गोष्ठी का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र तथा धन्यवाद ज्ञापन किया कृष्ण रंजन सिंह।
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आलेख - सिद्धेश्वर
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
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पचीसी (मिथिला का पारम्परिक खेल) / कंचन कंठ

कोजागरा यानी शारदीय पूर्णिमा के अवसर पर विशेष लेख

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आज कोजगरा, यानी शारदीय पूर्णिमा है। ये मिथिला क्षेत्र में बड़ी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला पर्व है। खासतौर पर नवविवाहित लड़कों के ससुराल से तरह-तरह की मिठाईयां, मखाना, खेल के सामान, परिवार के पुरुषों के लिए वस्त्र आते थे पर अब तो महिलाओं को भी शामिल किया जाता है। उनके लिए भी वस्त्र आदि भेजे जाते हैं। 

दूल्हे को पारंपरिक वेशभूषा में तैयार करवाकर, अरिपन से सुसज्जित आंगन में "सिरागू" (पूजाघर) से लाकर दाई-माई गीतनाद के साथ लाकर उसका चुमान करती हैं, पिता, चाचा, बाबा आदि दुर्वाक्षत से दीर्घायु और यशस्वी होने का आशीष देते हैं। मखाने की खीर बनाकर रात को चांद के सामने रखते हैं। मान्यता है कि इस दिन पूर्णिमा के चांद से अमृतवर्षा होती है जो खीर में मिल जाती है और इसे सभी को बांटा जाता है।

इसके बाद कोहबर में लाकर सबके साथ 'पचीसी' खेलने की प्रथा है। 'पचीसी' यानी वही कुख्यात "द्यूतक्रीड़ा",जो महाभारत की एक प्रमुख घटना है। पर यहां दांव पर पति-पत्नी का आपस में वर्चस्व और प्रेम ही होता है। इस दिन पान, मखान, मधुर खाने की और पचीसी खेलने की प्रथा है।और इसके बाद पचीसी फिर अगले साल कोजगरा से कुछ दिन पहले से कोजगरा तक खेली जाएगी। आज के बाद फिर यह वर्जित है।

बचपन में हमने अपने घर में पचीसी खूब खेला है। दशहरे के आसपास से यह खेल शुरू हो जाता है। तो दिन के खाने के बाद रोज पचीसी का रेखाचित्र बनाते थे, जो काफी कुछ लूडो के बड़े भाई जैसा होता था, फिर चार रंगों की चार-चार गोटियां और नौ कौड़ियां और खेलने के लिए चार जन होने चाहिए। पर हमलोग दो-दो जन एक पाले में बैठते थे जनसंख्या अधिक थी भई, और सबको तो खेलना होता था।

कई सारे फकरे (कहावतें) होती थीं, जैसे  घरों की गिनती एक-दो-तीन नहीं, उसके लिए एक फकरा होता था "औंक, मौंक, जौंक, जीरा, जौं बजार खौं खीरा।" फिर नौ कौड़ियों से खेला जाता था तो जब सारी कौड़ियां चित्त होती तो "बारह"आया तो फिर एक फकरा "बारह सर्बहि हारह, गोंधियां हीलडोल"- कहकर उसके गोधिंयां यानि पार्टनर को जोर से झकझोरकर रख देते थे। 

सारी कौड़ियां पट्ट तो 'चौबीस' आना होता था। इनमें गोटियां नहीं 'पबहारि' यानी 'निकलना' नहीं होती थीं। एक कौड़ी चित्त और बाकी पट्ट तो 'पचीस' आता था,जिसमें चारों गोटियां 'पबहारि' होती थीं, एकसाथ। इसका उल्टा होने पर "दस"आता था और एक गोटी 'पबहारि' होती थीं। हरेक खिलाड़ी को चार मौके मिलतेे थे खेलने के, दस या पचीस आनेे पर एक मौका और मिलता था।  गोटियां निकलती नहीं 'पबहारि' होती थीं और लाल होने से पहले नंबर पर अटकने पर गोटियों को 'पबन्नी' लगती थीं तो दूसरे पक्ष वाले उसकी चाल के समय "नरकी पबन्नी" चिढ़ाते थे जो "दस या पचीस" आने से छुटती थीं।

अक्सर मैं पापा के संग ही खेलती थी। नूतन दी को पचीस और दस काफी आता था तो उसका गोधियां बनना जीत की गारंटी होती थी। छोटी-मोटी बेइमानी भी हो जाती थी कभी कभी तो खूब नोंकझोंक होती थी। बड़ा मज़ा आता था। एक दिन तो इतना हल्ला मचाया हमने कि पड़ोसी चिंतातुर होकर देखने चले आए कि क्या चल क्या रहा इनके घर में! 

पर, अब तो "नहि ओ नगरी, नहि ओ ठाम"।
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आलेख - कंचन कंठ
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कंचन कंठ