लालटेन के छोटे दायरे की रौशनी से भी तय होता है लम्बा सफर
लघुकथा के सृजन में रचना प्रक्रिया पर बहस और लघुकथाओं का पाठ
पटना के कालीदास रंगालय के प्रांगण में दिनांक 20.10.2019 को लघुकथा को समर्पित अर्धवार्षिक पत्रिका "लघुकथा कलश" के रचना प्रक्रिया विशेषांक के लोकार्पण-सह- विचार गोष्ठी में अध्यक्षता करते हुए डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने लघुकथा की रचना प्रक्रिया पर विस्तार-से चर्चा की और लघुकथा के शिल्प पर भी विचार - विमर्श जमकर हुआ। किंतु उल्लेखनीय बात यह है कि ढेर सारे प्रतिनिधि लघुकथाकारों की उपस्थिति के बावजूद लघुकथा पर विमर्श और बहस वरिष्ठ कथाकारों ने किया। इसलिए लघुकथा की उपादेयता पर कम और कहानी की रचना प्रक्रिया पर बहस अधिक हुई। इस लघुकथा संगोष्ठी की प्रासंगिकता रचना प्रक्रिया के लिए नहीं बल्कि "लघुकथा कलश "में प्रकाशित लघुकथाकारों द्वारा पढी़ जाने वाली श्रेष्ठ लघुकथा के लिए याद की जाएगी।
इस लघुकथा की रचना प्रक्रिया की संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध कथाकार अवधेश प्रीत ने लघुकथा की अस्मिता पर चर्चा करते हुए कहा कि -
"यहां हर चीज बड़ी होती है। चाहे वह महारैली हो,या महाविशेषांक। लघुकथा हो या कहानी, रचना प्रक्रिया एक रचनात्मक अनुभूति है, जो आनंद के साथ- साथ पीड़ादायक भी है। और कमोवेश प्रत्येक रचनाकार इससे होकर गुजरता है। "
"छोटी बातें लिखना बहुत बड़ी बात है। चाहे वह छोटी कविता हो, कहानी हो या लघुकथा। लालटेन की छोटे दायरे की रौशनी के सहारे हमें लम्बा रास्ता तय करना होता है। एक लघुकथा किन प्रक्रियाओं से गुजरते हुए, अपना आकार ग्रहण करता है, "लघुकथा कलश" के इस लोकार्पित रचना प्रक्रिया विशेषांक की यही विशेषता है।"
उन्होंने कथा की रचनाशीलता पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि - "रचना की कलाबाजियां और रचनाकार का विजन दोनों अलग - अलग बाते हैं। हमारी रुढ़िवादिता को तोड़ने की दिशा में भी लघुकथा की अहम भूमिका रहती है। रचना प्रक्रिया के कई आयाम होते हैं। हर लघुकथाकारों की एक ही नजरिया हो, यह जरूरी नहीं।
लघुकथा प्रक्रिया के स्थान पर अवधेश प्रीत ने अपनी "पोखर" कहानी की प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला। एक कथाकार की यही ईमानदारी भी है कि वह जो जीता और भोगता है, उसी पर चर्चा करे।
किंतु क्या पटना में लघुकथाकारों का अभाव हो गया है कि लघुकथाकारों के स्थान पर इस" लघुकथा प्रक्रिया संगोष्ठी" में कहानी की रचना प्रक्रिया पर बोलने के लिए, कथाकारों को आमंत्रित किया गया। खैर,..!
विशिष्ट अतिथि कथाकार संतोष दीक्षित भी एक कथाकार के नाते लघुकथा पर कम, कथा प्रक्रिया पर अधिक बोलते नजर आएं। उन्होंने कहा कि -
"रचना जब भी मैं लिखता हूं, मेरे पास कोई अनुभव नहीं होता है। मैं अपनी कथा प्रक्रिया की ही चर्चा कर सकूंगा। कविता न कलम से लिखी जाती है न अनुभव से, कविता हाथ से लिखी जाती है। ज्ञान अनुभव की कोई जरूरत नहीं। किसी के कहे- सुने पर विचार मत करो । अपने अनुभव से लिखो। लघुकथा का कोई शास्त्रिय या सैद्धांतिक ज्ञान की जरूरत नहीं होती । आप रसोई में भी जो मौलिक लिखती हैं, तो वह भी साहित्य है। विधाओं का कोई शास्त्र नहीं होता, ऐसा मेरा मानना है। " ( संतोष दीक्षित जी, फिर हम कुछ भी लिखकर कविता को कहानी, कहानी को लघुकथा या लघुकथा को कहानी क्यों नहीं कहते हैं ?")
उन्होंने कुछ लघुकथाओं पर चर्चा करते हुए कहा कि-"पुलिसिया तंत्र पर लिखी गई, सिद्धेश्वर की लघुकथा "बोहनी" बहुत पुरानी रचना होते हुए भी, आज भी प्रासंगिक है। - "उन्होंने कहा कि रचनाकारों को भाव विषय भाषा पर अवश्य ध्यान देना चाहिए - प्रकाशन के पहले।
ध्रुव कुमार ने संचालन क्रम में कहा कि नारी-उत्पीड़न से अब लघुकथाकारों को बाहर आना चाहिए। क्योंकि इस विशेषांक में अधिक लघुकथाएं इसी विषय पर लिखी गई है।
मुख्य वक्ता डॉ. किशोर सिन्हा ने कहा कि लघुकथा को अभी लम्बा सफर तय करना है। और इसके लिए इस विधा से जुड़े रचनाकारों को उत्कृष्ट रचनाएं देने की आवश्यकता है।
इस रपट के लेखक के मन में तत्काल एक सवाल कौंधा- "अब नाटककार किशोर सिन्हा को कौन बतलाए कि लघुकथा अब कोई नई विधा नहीं रह गई है। और इस विधा में,प्रेमचंद, मंटो और फिर कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा,, चित्रा मुद्गल से लेकर रामयतन यादव, मधुदीप, बलराम, पुष्पा जमुआर, अनिता राकेश तक सैंकड़ों ऐसे प्रतिनिधि लघुकथाकारों की ढेर सारी श्रेष्ठ लघुकथाएं मौजूद हैं। खेल, ठंडी रजाई, कफन, बोहनी, भविष्य का वर्तमान, सिर उठाते तिनके, भूख, पत्नी की इच्छा जैसी सैंकड़ों लघुकथाएं, लघुकथा के पाठकों के लिए जानी पहचानी है।
अब किशोर सिन्हा प्रेमचंद की कफन को, चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी "उसने कहा था", विमल मित्र की साहब बीबी गुलाम, रेणु की तीसरी कसम आदि कहानी उपन्यास की चर्चा करते हुए कहते हैं कि इस तरह की कालजयी रचनाएं लघुकथा विधा में क्यों नहीं है?
इसमें लघुकथा विधा या लघुकथाकारों का दोष कहां है? आप ईमानदारी से, निष्पक्षता पूर्वक चुनी हुई लघुकथाओं को पाठ्यक्रम में शामिल कीजिए, उन लघुकथाओं पर फिल्में और सीरियल बनाइए, फिर देखिए कि लघुकथा विधा मैं कहानियाँ की तरह कालजयी रचना है या नहीं.?
इन्हीं बातों को, संचालन के क्रम में ध्रुव कुमार ने भी कहा - "लघुकथा को पाठ्यक्रम में लाने का सद्प्रयास किया जा रहा है ताकि वह भी कहानी, उपन्यास, कविता की तरह अधिकांश लोगों तक पहुंच सके। किसी भी रचना को बेहतर बनाया जा सकता है और यह कई चरणों में पूरा होता है।
इस रपट के लेखक का साथ देते हुए ध्रुव कुमार ने भी कहा कि - "लघुकथा कलश" के संपादक योगराज प्रभाकर ने "लघुकथा की रचना प्रक्रिया" पर, सचमुच अद्भुत महाविशेषांक निकाला है और इसके लिए, संपादक बधाई के पात्र हैं। लगभग 400 पृष्ठोंवाले इस महाविशेषांक में, हिन्दी के 126, नेपाली और पंजाबी के 8-8 लघुकथाकारों की, लगभग 400 प्रतिनिधि लघुकथाएं संग्रहीत है। यह ऐतिहासिक प्रयास है और लघुकथा के लिए अविस्मरणीय भी।"
खैर, कई लोगों ने इस बहस में किशोर सिन्हा के तर्क पर असहमति प्रकट की। और ध्रुव कुमार ने भी लघुकथा की शैक्षणिक उपयोगिता पर विस्तार से चर्चा की, जिस विषय पर इस रपट के लेखक ने भी एक लेख लिखा है और वह की पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुआ है।
हां, मंचित एकमात्र लघुकथा लेखिका और समीक्षक अनिता राकेश ने कहा कि - "लगातार लेखन से रचनाकारों की रचनाओं में निखार आया है। श्रेष्ठ लघुकथा लेखन के रचना प्रक्रिया में, अनुभव और जन्मजात प्रतिभा का सामंजस्य होता है।
इस साहित्यिक संगोष्ठी के दूसरे सत्र में,इस महाविशेषांक में प्रकाशित पटना के लघुकथाकारों ने अपनी अपनी लघुकथाओं का पाठ किया जिसका आरंभ सिद्धेश्वर द्वारा लघुकथा के पाठ से हुआ और फिर वीरेंद्र भारद्वाज, विभा रानी श्रीवास्तव, पुष्पा जमुआर, जयप्रकाश, मृणाल, सतीशराज पुष्करणा, ध्रुव कुमार, अनिता रश्मि आलोक चोपड़ा आदि लघुकथाकारों ने लघुकथा का पाठ कर समारोह को यादगार बना दिया। समारोह में रवि श्रीवास्तव, मधुरेश नारायण, अभिलाषा दत्त, संगीता मधुप्रिया, प्रियंका, मीरा प्रकाश, ऋचा वर्मा, नुपूर नेहा, मो नसीम अख्तर, सुबोध कुमार सिन्हा, मीना कुमारी परिहार राजकांता राज, मीरा सिंहा आदि की सह भागीदारी महत्वपूर्ण रही।
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आलेख - सिद्धेश्वर
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
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