एक चिड़िया उड़ती है / और छू लाती है इंद्रधनुष
शहंशाह आलम के शब्द
अंतरिक्ष से तैरते आते हैं- बिना किसी रुकावट के, बिना किसी प्रतिबंध के और
बिना किसी नियमबद्धता के लेकिन उनका संप्रेषण बिलकुल लक्षित होता है, बिलकुल सधा हुआ. यहाँ
प्रस्तुत हैं उनके कविता-संग्रह “इस समय की पटकथा” की कुछ पूर्ण लघु कविताएँ संक्षिप्त
टिप्पणियो के साथ-
इंद्रधनुष और चिड़िया की प्राकृतिक
उपमाओं का उपयोग करते हुए जब कवि अचानक हत्यारे का उल्लेख करता है
तो कोमल भावनाओं के क्रूरता से मारक द्वन्द्व
को देखकर श्रोता स्तब्ध रह जाता है. ‘रंग’ शीर्षक से पूरी
कविता यह है-
एक चिड़िया उड़ती है
और छू
लाती है इंद्रधनुष
यह रंग अद्भुत था
इस पूरे
समय के लिए
उस हत्यारे तक के लिए
‘नदी’ शीर्षक' से लघु कविता भी संवेदना की नदी के बचे होने तक ही
जीवन के जीवित रहने का ऐलान करती है-
वह जो आप सुन रहे हैं
जीवन की आवज़ प्रत्येक क्षण
वह सिर्फ और सिर्फ
उस नदी
की वजह से है
जो बची हुई है
अब भी आपके
अंदर
बहती हुई सी
‘रसोई’ शीर्षक कविता उन्होंने रसोईघर के अंदर के अंदर
के संगीत और नदी सी बहती स्नेह की अजस्र
धार की बात की है जो अनूठा है-
यहाँ सुनाई पड़ते हैं
संगीत के सारे सुर और ताल
माँ बेखौफ मुस्कुराती है
बच्चे संतुष्ट हुलसते हैं यहाँ पर
मुस्कराती है
हुलसती
है
जैसे नदी कोई जीवित
‘जीवन’ शीर्षक कविता में आज के जनसामान्य के जीवन के
कष्टों को बड़ी सहजता से कवि अभिव्यक्त करता है-
पुत्र ने मरे हुए पिता के
लिए रखी गई
शोकसभा भंग कराई
पुत्र का कथन था
मरे हुओं का शोक कैसा
शोक तो
हम जीवितों के
जीवन में है अब
“औचक हुई उसकी हत्या”
शीर्शक कविता में बस हत्या करने के उद्देश्य से की जा रही हत्या का कितना सटीक
चित्रण किया गया है-
औचक हुई उसकी हत्या
भोजनावकाश का समय रहा होगा
जब वह देख रहा था
इधर
रिलीज हुई फिल्मों के पोस्टर
क्या मालूम था उस बेचारे को
कि हत्यारे को भी लगती थी भूख
“जनतंत्र का शोकगीत” में
तमाम लटकों झटकों वाले जनतंत्र से ‘जन’ एवं ‘तंत्र’ दोनो के लोप को वे दो टूक शब्दों में बयाँ
करते हैं-
यह बड़ा भारी आयोजन था
उनके द्वारा
भव्य और
अंतर्राष्ट्रीय भी
इस लिए कि इस महाआयोजन में
जनतंत्र को हराया जाना था
भारी बहुमत से
मित्रों, निकलो अब इस घर से
अब यहाँ न जन है न जनतंत्र!
विनाशलीला के युगों-युगों के तांडव के बीच भी सृजनशीलता के
पुनरोद्भवन का चित्र बड़े सजीव ढंग से कवि ने रखा है “असंख्य घासें उग रही हैं फिर से” में –
मैंने देखा जिस तरह
एक पहाड़ पुन: जन्म ले रहा है
एक दृश्य नए दृश्य में बदल रहा है
एक अक्षर दूसरे अक्षर
में
और एक बच्चा फिर से आ गया है
उस औरत को कोख में
वैसे ही उस मैदान में
असंख्य घासें उग रही हैं फिर से
"छू मंतर" में कवि ने महिला
के बाल रूप में भी निराशा और आशा के दोनों रूपों का अनोखा बिम्ब उपस्थित
किया है-
अभी-अभी तो पत्ते झड़ते पेड़ के नीचे
खड़ी थी वह लड़की अनोखी
अब खड़ी है खिलते सरसों के बीच
इस तरह से हम पाते हैं कि एक मँझे हुए प्रतिबद्ध कवि शहंशाह
आलम की लघु कविताएँ अपने समय से संवाद कर रही हैं बिलकुल आम जन की भाषा में पूरी
सहजता के साथ. दूसरी बात ध्यान देने लायक है कि उनकी प्रतिरोध की उष्ण ज्वाला पूरी
कायनात को जलानेवाली नहीं बल्कि चुन-चुन कर विनाशकारी शक्तियों का संहार करनेवाली
और इस प्रकार प्रेम और सृजन की मजबूती से स्थापना करनेवाली है.
.......
टिप्पणी - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo,com
नोट- ऊपर उद्धृत की गई सारी कविताएँ पूर्ण रूप में हैं सिर्फ "असंख्य घासें उग रही हैं फिर से" को छोड़कर जिसे छोटा करने के लिए ऊपर की चार पंक्तियों को छोड़ा गया है.
कवि की दूसरी कविता पढ़िए अंग्रेजी अनुवाद के साथ- यहाँ क्लिक कीजिए (Please Click here)
नोट- ऊपर उद्धृत की गई सारी कविताएँ पूर्ण रूप में हैं सिर्फ "असंख्य घासें उग रही हैं फिर से" को छोड़कर जिसे छोटा करने के लिए ऊपर की चार पंक्तियों को छोड़ा गया है.
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