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Tuesday, 3 July 2018

जनशब्द द्वारा टेक्नो हेराल्ड, पटना में प्रभात सरसिज का एकल काव्य पाठ और सामूहिक कवि गोष्ठी 1.7.2018 को सम्पन्न

गर्दन सीधी रखो भाई / महाद्वीप के कवि हो


प्रभात सरसिज को आप प्रतिरोध के नाम से पुकार सकते हैं और इनकी कविता को मुठभेड़ कह कर. ये ऊपर से नीचे तक पूरी तरह से एक योद्धा हैं और खास बात यह है कि इनका युद्ध शाश्वत है. इनका शब्दकोश अत्यधिक सम्पन्न है और संस्कृत के शब्दों, समासों और संधियों का सौंदर्य पूरे तेज के साथ अप्रतिम रूप से विराजमान है विशेष रूप से इनका प्रकाशित संग्रह 'लोकराग' में.  बस एक शब्द की कमी है इनके शब्दकोश में, वह है समझौता. इनकी शैली को अनगढ़ कह देना उचित नहीं होगा क्योंकि शब्द-सौष्ठव का ऐसा सुंदर प्रतिमान शायद ही आज के कवियों में आपको कहीं प्राप्त हो. इनके काव्य संग्रह 'लोकराग' की अनेक कविताएँ जहाँ व्यवस्था के घृणित स्वरूप की अभिव्यक्ति में गूढ़ सम्प्रेषण का आवरण लेकर अपनी  काव्योचित मर्यादा का निर्वाह करती दिखती हैं वहीं परवर्ती कविताएँ जंगल के शेर की तरह झपट कर वार करती सी लगती हैंं. वह वार जो बिलकुल सीधा और बेरोकटोक है.

दिनांक 1.7.2018 को पटना जं. के समीप  स्थित महाराजा कामेश्वर सिंह कॉम्प्लेक्स की तीसरी मंजिल पर स्थित टेक्नो हेराल्ड में जनशब्द द्वारा प्रभात सरसिज के एकल काव्य पाठ का आयोजन किया गया था जिसमें उपस्थित जाने-माने साहित्यकारों ने उनके काव्य पाठ पर अपनी टिप्पणियाँ भी रखीं. फिर सभी साहित्यकारों ने अपनी  रचनाओं का भी पाठ किया. कार्यक्रम काफी सघन रूप से चला और अनेक घंटे बीत जाने के बावजूद सब में स्फूर्ति बनी रही क्योंकि प्रतिभागी सीमित संख्या में  थे जो  सम्वादों के आदान-प्रदान में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा ले पा रहे थे. कार्यक्रम का संचालन राजकिशोर राजन ने किया  एवं संयोजन में शहंशाह आलम की प्रमुख भूमिका रही.

प्रभात सरसिज द्वारा पढ़ी गईं कुछ पूर्ण कविताएँ प्रस्तुत हैं 

1. गर्दन सीधी रखो
गर्दन सीधी रखो भाई\/ महाद्वीप के कवि हो
पूरा एशिया हमारे कंधों पर है
हमारे महासागर में सबसे पहले सिंदूर घुलता है
पर्वत-श्रेणियाँ रजत बन चमक उठती हैं
हमारी टाँगों को छूकर गुजरती है असंख्य पवित्र नदियाँ
समंदर के नील दर्पण में / हम निहारते हैं अपने चेहरे
महाद्वीप के कवि हो / गर्दन सीधी रखो मेरे भाई!
...
2. सपनों की लड़ी 
चलो अपने सपनों की लड़ी बनाएँ
सपनों के मनकों की गिनती करें पहले
फिर उन्हें रेशम सी कल्पना के सूत में पिरोयें
बेहद पतले धागों के संगठन से  बने हैं
फिर भी सहज नहीं है सपनों की लड़ी बनाना
हमारे उन्माद से असम्भव है इसका निरूपण
अति-उत्साह के प्रबल वेग से जड़े
अड़ गए प्रश्नों को
ग़ाँठ बन जाने से हम रोक नहीं सकते

अन्याय को एक्बारगी तोड़ देने का दम्भ 
चूर कर सकता है सपनों की आवाजाही को
जरा सी तन्द्रा पूरी ऊर्जा को बिखरा सकती है
प्रबाल उपस्थित हो सकते हैं विघ्न बनकर

सपनों की लड़ी को दृष्टि में लाने के लिए
चारों ओर आयुधों की तैनाती होगी अनिर्वचनीय
...
3. जरूरी हो गया है कविता का लिखा जाना
लोकराग अलापने में / क्या कमी रह गई थी मुझे
गजव्याघ्र के मारधुस पर उतर आने के प्रश्न पर 
लगभग भदेश उपालम्भ से भरी पंक्तियाँ / लिखनी पड़ रही है

बार-बार मेरे काव्य चिंतन में 
जमींदारी ऐंठ रखनेवाले शब्दों के बाजीगर कवियों की
लात दिखायी पड़ती है
इन कवियों के लात-दर्शन / मेरी नींद उड़ा देते हैं

ये लालधर कवि पॉल वरलेन की भाषा से
हिन्दी संसार को विमोहित करने में लगे हैं
साहित्य सम्मान केंद्रों के दरवाजे पर
आर्थर रेम्बो का चरित्र उधार लेकर
अपने पृष्ठ -विबर परोस रहे हैं

ऐसे में बहुत मुश्किल है कविता का नहीं लिखा जाना 
पेटभर खाने से जरूरी है कविता का लिखा जाना
......

अब प्रस्तुत है प्रभात सरसिज द्वारा पढ़ी गई कुछ अन्य कविताओं के अंश-

1. बड़े रकवे को सिंचित करनेवाली यह परियोजना
गुड़िया* के लिए काल बनने पर उतारू है 
(*ग़ुडिया एक द्वीप का नाम है)
आसन्न ध्वंश का वेग
सामूहिक मृत्यु की सम्भावना को तीव्र कर रहा है
,,,
2.इस कॉलेज की सेवा में काम करते हुए 
चार साल से माहवार नहीं मिला
....
3. दुश्मन हमारे ही सीने में छिपे हुए हैं
लुक्का लगाओ दुशमनों के खोह में 
.........

दूसरे सत्र में प्रभात सरसिज को सुन रहे साहित्यकारों ने कविताओं पर अपनी प्रतिक्रिया दी-

शेखर ने कहा कि समय एक बहु-बोधि प्रक्रिया है और कवि समय में जीता है. नेहरू के विकासवाद से मोहभंग के बाद कवि की पीड़ा एक लतियाये गए की पीड़ा की तरह है और लतिगाये गए की पीड़ा की अभिव्यक्ति गाली में ही हो सकती है. सरसिज की कविताओं में अनेक रस एक साथ होने के कारण वे अनगढ़ लगते हैं. ये नागार्जुन की परम्परा के कवि नहीं हैं बल्कि मुक्तिबोध की परम्परा के कवि हैं. सरसिज अच्छी तरह जानते हैं कि उत्पीड़ित जनता को अनेक खाँचों में बाँट देना उसे जानवर जैसा बनाकर रखना है. प्रभात सरसिज प्रेम की कविता करनेवाले कवि नहीं हैं बल्कि समय का यथार्थ चित्रण करनेवाले कवि हैं. 

प्रत्यूष चंद्र मिश्र ने कहा कि सरसिज की कविताएँ पूरी पृथ्वी को संबोधित कविताएँ होतीं हैं. इनकी कविताएँ बिलकुल सीधा रास्ता दिखाती है और उनमें कोई उलझाव नहीं है. लेकिन खामियाँ ये हैं कि ये पाठकों को कोई स्पेस नहीं देते. 

राजकिशोर राजन ने परोक्ष रूप से कहा कि आज की कविताओं में इतिहास, भगोल ,व्यंग्य, सुंदर शिल्प सब है बस कविता  नहीं है. सरसिज की कविताएँ अविधा का अच्छा प्रतिमान हैं.

शहंशाह आलम ने कहा कि सरसिज की कविताएँ संगठन करना चाहती हैं और ये भी कि काव्य कला में प्रतिरोध बचा रहे.

अनिल विभाकर ने भी प्रतिरोध को प्रभात सरसिज का मुख्य स्वर बताया.

शम्भू पी सिंह ने कहा कि सत्ता में चाहे कोई भी रहे प्रशासनिक ढांचा करीब करीब एक ही जैसा होता है. समाज में ही अविधा है जो कवि की कविताओं में प्रतिबिम्बित होता है.

प्रभात सरसिज ने भी आत्मकथ्य दिया-
कवि अग्रपंक्ति पर रह कर युद्ध नहीं करता. वह पीछे रह कर लोगों को लड़ाई के लिए तैयार करता है. कवि नियामक नहीं होता. वह दिशानिर्देश भी नहीं देता बल्कि पीठ ठोकता है. 
.........

तीसरे सत्र में उपस्थित अन्य कवियों ने अपनी अपनी रचनाओं का पाठ किया जिसकी बानगी नीचे प्रस्तुत है-

शहंशाह आलम जब जीवन को जीवन्त बनाने की कोशिश करते हैं तो लोगों को यह जादू लगता है-
चढ़ते दरिया के बीच किसी अजनबी को घुमाते हुए
समुंदर को सूख चुकी नदियों के लिए पुकारते हुए
सूने रेगिस्तानों में हरे सुग्गे के लिए मेरे चक्कर काटने तक को 
उन्होंने जादू का नाम दिया

लेकिन ज्योति स्पर्श भी मौजूद है वहाँ नारी सम्मान का ध्वंश करने वालों के विरुद्ध बयान दर्ज कराते हुए-
हमको मारने / नोचने वालों
और मौका नहीं ,मिलने पर / मन मसोसने वालों 
सनद रहे कि यह कविता नहीं\
हम बार बार उगेंगे / दर्ज करने को अपना बयान

बहुस्तरीय प्रहारों के कोलाहल से परेशान हेमन्त दास 'हिम' अपने जीवन की लय ढूँढने में लगे हैं-
मुझे कवि मत कहो / मैं बिलकुल आम आदमी हूँ
बस जीवन की लय ढूँढ रहा हूँ
जो खो गई है कहीं / कोलाहल और शोर में

प्रत्यूष चंद्र मिश्र को जीते जागते आदमी का मात्र संख्या में परिणत हो जाना कतई गँवारा नहीं-
इस डिजिटल समय में / प्रत्येक व्यक्ति अब संख्या है\
संख्या में उँगलियों के निशान हैं / पुतलियों की छाप है

अनिल विभाकर खिलाड़ियों की ही नहीं बल्कि हर एक आदमी की बोली लगती देख रहे हैं-
बाजार है भई बाजार
यहाँ जो नहीं बिकता / वह किसी काम का नहीं 

नरेन्द्र कुमार हँस पड़ते हैं ऐसे विकासवाद पर जहाँ जनता की तकलीफें हटायी नहीं जाती बल्कि उससे व्यापार किया जाता है.
सड़कों पर दम घुट रहा है / इस मौके को हाथ से मत जाने दो
मास्क और सिलेंडरों का उत्पादन बढ़ाओ / ऑक्सीजन बेचो ऑक्सीजन…
विकास का पहिया और तेज.. / जीडीपी बढ़ाओ, जीडीपी...

विपरीत परिस्थितियों के ऐसे माहौल में राजकिशोर राजन  चेतावनी देते हुए कहते हैं-
वो माँग रहे रोटी / आप खेल रहे गोटी 
आप ही कहिए बाबू / उन पर कब तक रखेंगे काबू

अस्मुरारी नंदन मिश्र सुरक्षा के मामले में गरीबो, असहाय लोगों की बेटी के असह्य दु:खों को सम्भ्रांत घरों की बेटियों से तुलना होते देख क्षुब्ध हैं-
तुम्हारी बेटियों के रास्ते में कंकड़ तक नहीं  
हाथों में सुई तक नहीं चुभी / कमीज में बटन लगाते
गोलियां तो उनकी हिफाजत के लिए हैं
और हमारी बेटियां
पत्थर, सरिया , छर्रे / झेलती रही अपनी योनियों में

शम्भू पी. सिंह  भी आजन्म शोषण हेतु अभिशप्त बेटी को देख कर दुखी हैं
आना मजबूरी थी / तो जीने को भी मजबूर हुई
अनचाहे की तरह पली / घर के किसी कोने में माँ के साथ

उतकर्ष आनन्द भारत ने भी महिला की असुरक्षा का सवाल उठाया अपने ही तरीके से-
जब समाज ने चाल चली / अभागी सिया भी कहाँ बची
हो देख रहे श्रीराम मौन / तो उन्हें रोकता भला कौन

कार्यक्रम के अंत में शहंशाह आलम ने आये हुए कवियों का धन्यवाद ज्ञापण किया और फिर कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की गई.
.........
आलेख - हेमन्त दास 'हिम' / ज्योति स्पर्श
छायाचित्र - अस्मुरारी नंदन मिश्र
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