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विषय : बिहार में बाढ़ की समस्या
(एक विश्लेष्णात्मक और उपयोगी लेख)
भारत दुनिया का एकमात्र देश है जिसके नाम पर संसार के चार महासागरों में से एक यानी हिन्द महासागर (Indian Ocean) का नामकरण किया गया है. ऐसा सौभाग्य दुनिया के किसी और देश को प्राप्त नहीं है. हिन्द महासागर से मानसून की हवा जून जुलाई महीने में वर्षा लाती है जो भारत की उपजाऊ मिट्टी , खेती - पशुपालन प्रधान सभ्यता और घनी आबादी का कारण है.
मानसून की
वर्षा यानि कुल वर्षा का 80% केवल जुलाई से सितम्बर के तीन माह के बीच
होता है. इसी कारण न केवल नदी जल स्तर बढ़कर तटबंध तोड़ देता है बल्कि
सीमावर्ती देश नेपाल में जलसंचय, नहर, कृषि के उद्देश्य से बने बाँध पर
दवाब बढ़ जाता है. इस समय यदि बाँध से पानी छोड़ा न जाए तो बाँध टूट
जाएगा. यही कारण है कि बिहार में बाढ नेपाल से सटे एवं समीप के जिलों में केवल जुलाई से सितम्बर माह में हीं आते हैं.
बाढ़ संबंधी तैयारी के मोर्चे पर बिहार के नेता , प्रशासक और जनता में कमी
दिखाई पड़ती है जिस कारण कई लाशें बाढ़ में देखने को मिलती हैं. फिर
शुरू होता है लोगों का हाईवे पर शरण लेना, राहत बाँटना, केन्द्र द्वारा
मदद भेजना, बाढ़ के बाद बीमारी से मौत, फसल बर्बादी, पानी जाने के बाद जमीन
पर कब्जे की कोशिश , अपराध, पलायन आदि.
यदि हम संयुक्त राष्ट्र
द्वारा जापान में घोषित ह्यूगो ढाँचे (Hugo Framework, 2005) और याकोहामा रणनीति (Yokohama Strategy -2015)
की नीति को गौर से पढ़ें तो पता चलता है कि आपदा हमसे कई स्तर पर तैयारी
की माँग करती है-
1 . मौसम विभाग द्वारा समय पर चेतावनी - Forecasting
2. लोगों को समय से पहले हटा लेना - Evacuation
3. फँसे हुए लोगों को निकालना - Rescue
4. राहत वितरण - Relief
5. पुनर्वास- Rehabilitation
6. खतरा को कम करना = Risk Mitigation
दो परमाणु हमला झेल चुके जापान और 20% कृषिभूमि वाले देश जापान में
प्राकृतिक आपदा सबसे ज्यादा आता है इसलिए UN के आपदा नियंत्रण पर सम्मेलन
यहीं आयोजित किए गए है. इस मामले में तकनीक संपन्न जापान एक सफल उदाहरण
है. हमारे यहाँ, जहाँ तक मीडिया की रिपोर्ट है उसके अनुसार सस्ती और खाली
जमीनों पर बसे लोगों को कभी सरकार की उपर्युक्त तैयारी नहीं दिखी है. इसी
वर्ष 2017 में लगभग 400 लोगों के मरने का अनुमान है.
अन्य चीजों
पर चर्चा से पहले एक आसान सवाल है कि लोग स्थानीय स्तर पर जीवनरक्षक जैकेट (Life Jacket) और
नाव क्यों नहीं रखते? मेरी जानकारी के अनुसार खेल-कूद सामग्री की दुकानों में जीवनरक्षक जैकेट की कीमत 1700 रूपये है. जबकि ऑनलाइन खरीद में यह 799 रूपये में
मिल जाता है. यह समझा जा सकता है कि चुकि दुकान , गोदाम, विज्ञापण और स्टाफ
का भाड़ा नहीं देना पड़ता इसलिए ऑनलाइन उत्पाद सस्ते मिलते हैं.
लेकिन जीवनरक्षक जैकेट बनाना एक आसान काम है. यदि थर्मोकोल और कपड़े से इसे
स्थानीय स्तर पर बनाया जाए तो लागत 250 रूपये से अधिक नहीं होगी. इस
सामान्य चीज में आर्केमिडीज का सिद्धांत कार्य करता है. यानी कोई वस्तु
तैरती है यदि उसके द्वारा हटाया गया पानी का भार उस वस्तु के भार से ज्यादा
हो. जब आदमी पानी में जाता है तो लगभग बहुत वजन का पानी हटा चुका होता है
और उसे कुछ हीं पानी और हटाने की जरूरत होती है. यही काम जीवनरक्षक जैकेट में भरे थर्मोकोल करते हैं. जो अपने वजन का कई गुणा पानी हटाकर मनुष्य के
शरीर को पानी में डुबने से बचा लेते हैं. हमारे उद्योगपति और इंजिनियर अगर
साथ न भी दें तो भी स्थानीय लोग ( दर्जी) इसे बना सकते हैं.
नाव
बनाना तो मेहनती बढ़ई और मल्लाह के बायें हाथ का काम है. मोटरबोट और
हैलिकॉप्टर से बचाव अभियान से पहले स्थानीय नागरिकों को तैयार रहना भी
जरूरी है ताकि जान हानि न हो. गाँव में तैराकी का प्रशिक्षण मिलना चाहिए.
जब हरयाणा के युवा कुश्ती में मेडल ला सकते हैं तो बिहार के युवा तैराकी
में क्यों नहीं. यह प्रशिक्षण जरूरी है.
इग्नू (IGNOU) में छ: माह का आपदा प्रबंधन (Disaster Management) का डिप्लोमा कोर्स राज्य के युवा वर्ग को करना चाहिए
और अप्रैल मई में पूर्वाभ्यास (Mock Drill) का आयोजन पंचायत / मुखिया स्तर पर होना
चाहिए. ठीक वैसे हीं जैसे सेना युद्धाभ्यास करती है. कई बार खाली गैस
सिलेण्डर पर पेट के बल झुककर बाढ़ में डुबने से बचने के सफल प्रयास देखे गए
हैं.
बढ़ती आबादी और शहर में मंहगी जमीन के कारण अनियंत्रित जन
बसाव होता है. अत: बाढ़ से बचने बचाने के लिए हर स्तर पर तैयारी जरूरी
है. भारत में 2002 में शुरू अमृत क्रांति योजना द्वारा नदी जोड़ने , बाँध
बनाने और नहर निकालने को तकनीक और श्रमदान से सस्ता बनाया जा सकता है लेकिन
बिहार को यह खतरा उठाना होगा. बिहार के पटना में गोल घर वास्तव
में एक अनाज गोदाम था. ऐसे कई निर्माण ऊँचे स्थान पर हों क्योंकि बाढ़
के बाद चीजों की कमी कीमत को बढ़ा देती है.
याद रखिए, इन्सानी
जान की कीमत कोई मुआवजा या राहत कार्य नहीं हो सकता. भारत के लोग अपनी
जानकारी , मेहनत और मिल जुलकर मदद करने के दम पर हीं संसार के सबसे प्राचीन
संस्कृति के वाहक हैं. भारत में कई किताबें उस जमाने में लिखी गई जब फ्रांस और ब्रिटेन के लोग पैंट भी पहनना नहीं जानते थे और भारत में किताबें पैसा कमाने की नीयत से नहीं लिखी गई थी. सबकुछ
पैसा हीं नहीं है- इन्सानी जान की कोई कीमत नहीं लगा सकता. इसकी रक्षा
जरूरी है. मानव हीं मानव के लिए खतरा न बने प्रकृति में आग ( जंगल की
आग), हवा(तूफान) और पानी (बाढ़) , धरती (भूकम्प) यदि मनुष्य के अस्तित्व के
आधार हैं तो यही चारों मनुष्य के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.
भारत में रचित संसार के प्राचीनतम पुस्तक आग हवा और पानी की हीं वंदना कर
इसे प्रकृति की शक्ति बताते हैं और संसार के ज्ञान को बटोरने की सलाह देते
हैं.
खतरा महल वालों को भी है और झोपड़ी वालों को भी . जलजला
(भूकम्प) से महल गिरते हैं और तूफान से झोपड़ियाँ उड़ जाती है. इसलिए
भूकम्प के समय महल वालों को तम्बू में शरण लेना पड़ता है और तूफान के समय
झोपड़ी के लोग किसी महल की ओट ढूँढ़ते हैं. अर्थात हम मिल जुलकर हीं मानव
अस्तित्व की रक्षा कर सकते हैं. अगर हम आपसी घृणा और लड़ाई में उलझे रहेंगे
तो हमारा मस्तिष्क हिंसक हो जाएगा न कि रचनात्मक.
आप नेता हैं या अफसर या छात्र. बाढ़ से सबको सजग करें.
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इस लेख के लेखक - संजीव गुप्ता
लेखक एक सरकारी विभाग में कार्यरत हैं.
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