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Saturday, 19 August 2017

प्रभात सरसिज- कविता के चरित्र की रक्षा में अपने जीवन को झोंक देनेवाला कवि (Prabhat Sarsij - a poet who blew his whole life for saving the character of poetry)

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शब्दों के मीठे झरने के तल में ज्वालामुखी 
Volcano in the bottom of the sweet spring of words



याद किया

मैंने तुम्हें याद किया
जैसे
गर्म झरने की धार से
थोड़ा हटकर न जाने कब से पड़ा है 
एक भारी चट्टान
I remembered you 
As if
A hulking rock 
is left off since long
From a warm spring

जैसे
नदी के ऊपर ठहरी रात को 
चीरती चली जाती है किसी वन-पाखी की चीख
जैसे 
बुखार जैसे गर्म दिनों में 
भर दुपहर
बरगद के खोखल से 
उगते हैं बाँसुरी के बोझिल स्वर
As if
The night stopped over the river
Is being ripped off  by a wild bird
As if 
In the feverish scorching days 
For the whole mid-day
From the holes of the banyan
Emerges a cumbrous sound of flute

मैंने तुम्हें याद किया
अतल में बह रही 
खनिजों की नदी के किनारे
तुम खिली हो
खनिजों के गर्म भपारों में 
घुली है तुम्हारी सुगंध जो
हरसिंगार की जड़ों से होकर 
पहुँची मुझ तक
I remembered you 
That you have blossomed 
At the bank of a river of minerals
In the hot steams of minerals 
Your fragrance is dissolved
That has reached me 
Through the roots of 'Harsingar'

देखो! पृथ्वी के 
सारे पुष्प टूटकर जाना चाहते हैं तुम्हारे पास
वे सिमट-लिपट जाना चाहते हैं तुम्हारे गुरुत्व से
वे मर मिटकर
लौटाना चाहते हैं तुम्हारी दी हुई सुगन्ध
वे जाना चाहते हैं तुम तक
दूबों की जड़ों से होकर
See! All the flowers of the earth
Wants to go to you after breaking off
Being wound and clung by your gravity
They want to go collapsed and devastated
They want to return your fragrance
They want to reach you 
Through the roots of grass

याद होगी तुम्हें वह घड़ी
जब रात के गात बेहद साँवले थे
ब्रह्माण्डीय हवा में 
झिलमिला रहा था सितारों का दर्पण
हमने साथ-साथ मनाया था
सृजन का उल्लास पर्व.
You might remember that moment
When the body of the night was so black
In the air of the universe
The mirror of stars were flickering
Both of us had celebrated together
The gleeful festival.
...............................

बेसब्र नहीं हैं न्यायाधीश

अदालत अभी बुढ़िया नहीं हुई है
लेकिन
न्यायाधीश के सभी बाल सफेद हो गए

परेशान हैं न्यायाधीश
लाचार हैं न्यायाधीश
बीच-बीच में घुस आते हैं 
संविधान संशोधन के गीदड़
गीदड़ कानून की किताब पर 
राल टपकाते हुए बैठ जाते हैं

बदरंग लाल जैकेट पहने अदालत परेशान है कि
संसद के दरबाजे से निकल
अदालत के दरवाजे में
क्यों घुस जाते हैं गीदड़?

तमतमा रहे हैं बूढ़े न्यायाधीश
न्यायाधीश के माथे पर बल पड़े हैं
उनकी चेतना में 
रह-रह कर कौंधते हैं विचार
अभी बेसब्र नहीं हुए हैं न्यायाधीश
क्योंकि अदालत 
अभी तक बुढ़िया नहीं हुई है.
.............................

\छलांग लेते शब्द

समय के पुल को 
उछलकर पार कर रहे हैं शब्द बन्ध खोजते हुए
अन्धेरे से बेखौफ

सभ्यता के औजारों से बचकर
मुँह तक पहुँचते हैं कौर
वैसे ही सहज जगह बनाते हुए
सजते हैं कतारों की तरह

समय की नदी में तिरती नावें हैं
क्षितिज के आस-पास किनारा खोजतीं
कुछ विस्फारित कुछ उंघती आँखें हैं सवार
खुली आँखें देखती हैं अपने सर के ऊपर से 
छलाँग मारते शब्दों को

जहाँ डग रखेंगे शब्द
वहाँ पहुँच सकती हैं नावें
पृथ्वी में गर्भस्त होती हैं अक्सर नावें
नावों पर सवार नहीं होना चाहते शब्द
समय की कविता में 
प्रवेश पाने के लिए ही
पुलों पर चलने से इन्कार करते आये हैं शब्द.
...................

प्रलय-गाथा (आंशिक)

तुम्हारी चम्पई किताब के 
पन्नों से बाहर 
ब्रहांध्रों को दगा देकर 
आयी थी शिव की अर्द्धकला
तो किस सुमेरू के किस ठेंगे पर
किस आसन में मग्न थे
तुम्हारे सातवें मनु-वैवस्वत?

बताएँ संवत्सरों के
फलाफल को कंठस्थ रखने  वाले
ड्रग्स की  तस्करी 
आयुधों की  दल्लाली
राजनीतिज्ञों  की  मर्दुमाशुमारी 
करनेवाले ब्रह्मचारी स्वामीगण
कूर्मपृष्ठ पर स्वर  कर  
तुम्हें भी भेजना ही पड़ेगा 
समुद्र की तलछट में 

मुदित होंगी तब 
गौरैये की जमात 
जो प्रलय के पूर्वाभास के साथ ही 
सभ्य संसार की सम्भावनाओं को लिए 
विरासत में
 ले आयीं थीं कंठों में 
कविता एवं संगीत 
और पंखों पर आंककर 
महान कलाकृतियाँ.
...............

कवि-परिचय:  प्रभात सरसिज हिंदी के अति-प्रतिष्ठित वरिष्ठ कवि हैं और प्रगतिशील लेखक संघ के बिहार प्रदेश के अध्यक्ष रह चुके हैं. ये आलोक धन्वा के समकालीन हैं. इनकी भाषा की पवित्रता पाठकों के सहसा आकर्षित करती है पाठ का आनंदमय बनाता है पर अर्थ में छुपा विप्लव काफी प्रबल है और वही इनकी कविता का मूल है. छद्म धार्मिकता और समाज में व्याप्त अन्यायपूर्ण अभिजात्य सोच इन्हें उद्विग्न किये रखते हैं और उनका पूर्ण आवेग प्रकट होता है इनकी अधिकांश कविताओं में. साथ ही प्रकृति-प्रेम का भाव भी काफी मुखर है. जहां संस्कृतनिष्ठ हिंदी अपने पूरे यौवन में खिलखिलाती दिखती है वहीं शब्दों के आशय  गम्भीरता के शिखर पर पाठकों को ठिठकाये रखता है.
Introduction of the poet: Prabhat Sarasheed is the veteran poet of Hindi and has been the Chairman of Progressive Writers' Association of Bihar State. He is contemporary of Alok Dhanva. The purity of his  language often attracts readers, makes the text enjoyable, but the denotations beneath the letters is quite strong and here lies the signature of his poetry. Pseudo-religious and unjust feudal thinking in society  keeps him distraught and its full impulse is manifested in most of his poems. At the same time, the sense of nature-love is also quite assertive. Where Sanskritised Hindi is blossoming fully in its entire youthfulness, though at the same time, the meaning of words keeps readers at the peak of gravity.
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कवि (प्रभात सरसिज) का मोबाइल -9708036211
कवि (प्रभात सरसिज) का इमेल- prabhatsarsij@gmail.com
अपनी प्रतिक्रियायें आप इमेल से भी भेज सकते हैं. You may send your response by e-mail also to hemantdas_2001@yahoo.com


















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