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संवेदनहीनता और नारी-शोषण की परतों को उधेरते हुए
ममता मेहरोत्रा एक जानी-मानी हिन्दी रचनाकार हैं. इनकी विशेषता है इनकी सम्भ्रांत भाषा और तीखी व्यंग्यात्मक शैली. आश्चर्यजनक रूप से इनकी भाषा उस समय भी शिष्ट बनी रहती है जब नाबालिक बच्ची से बलात्कार होता है और गरीब नौकर की माँ, सेठ की असंवेदनशीलता की स्थिति में मर जाती है. परंतु इसका अर्थ कदापि नहीं है कि लेखिका को दर्द का अहसास तनिक भी कम है. सच्चाई तो यह है कि सामाजिक छिछोरेपन और मानसिकता की सड़ांध से ये इतनी ऊब चुकी हैं कि इनका क्रोध, शब्द की सीमा को लांघ चुका है. यही कारण है कि गाली-गलौज की भाषा की इन्हें कोई आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती है. विलुप्त अंत:करण की इस विकट संकट की घड़ी में दर्द व्यंग्यात्मक टिपण्णियों के द्वारा अभिव्यक्त होता है. पीड़ा के अतिरेक ने कहानी की शैली को कई जगहों पर काव्य में परिणत कर दिया है.
ममता मेहरोत्रा |
एक बात और भी स्पष्ट करना उचित होगा कि ममता जी कोई बड़ी साहित्यकार बनने की ललक में रचनाकर्म नहीं करती हैं बल्कि मूल रूप से वह समाज-सुधारक हैं और रचनाकर्म उनके समाज-सुधार के कार्य का उपकरण मात्र है. इनका रचनाकर्म साहित्यिक विवेचना में नाम कमाने हेतु नहीं है बल्कि शत-प्रतिशत और आरम्भ से अंत तक फल-क्रियावाद से प्रेरित है. अर्थात यह अपनी रचना के द्वारा समाज में सकारात्मक बदलाव चाहती हैं. यही कारण है कि उन्होंने बिल्कुल सपाट तरीके से अपने संदेशों को सामने रखने में भी कोई परहेज नहीं किया है.
इनके द्वारा घटनाएँ बिल्कुल स्वाभाविक रूप में वर्णित हैं. उनमें लेशमात्र भी नाटकीयता नहीं है और अतिशयोक्ति का तो सवाल ही नहीं उठता. बहुत कम रचनाकार ऐसे दिखते हैं जो बिना थोड़ा भी बढ़ा-चढ़ाकर लिखने का साहस कर पाते हैं. ममता मेहरोत्रा उनमें से एक हैं.
उठाये गए विषयों में नारी-विमर्श तो निश्चित रूप से सर्वप्रमुख है किंतु नारी-संघर्ष पुरुष जाति के विरोध में नहीं है बल्कि सभी सकीर्ण सोचवाले लोगों के विरोध में है चाहे वो पुरुष हों अथवा नारी. नारी की समस्या पुरुषों से अधिक होती हैं क्योंकि उन्हें रोजी-रोटी तो जुटाना ही पड़ता है साथ-ही-साथ अपनी उस इज्जत को भी बचाना पड़ता है जिस पर धावा करनेवाले घर के बाहर तो घात लगाये बैठे ही हैं, घर के अंदर भी हैं. एक जगह एक नाबालिग लड़की यह कहने पर मजबूर हो जाती है कि उसके गर्भ का पिता वही है जो स्वयँ उसका पिता है.
'टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी औरत', 'नजराना', 'रिश्ता', 'तुम बिन' और 'घूस' शीर्षक कहानी जहाँ नारी-शोषण के काले सच को सामने रखती है वहीं 'अक्स' नारी-मनोविज्ञान का सूक्म विश्लेषण करती दिखती है. 'सफर', 'गम','परम शांति', 'अपने बेगाने' और 'सलाम साक्षरता' परिवार और समाज के असंवेदनशीलता को नंगे रूप में दिखा रही है. 'पुलिस आ गई' और 'चोरी' पुलिस में ब्याप्त भ्रष्टाचार को तार-तार कर देने वाली है तो 'डिनर सेट' में मध्यमवर्ग की मजबूर जिन्दगी की झलक है जहाँ वह जीवनपर्यंत डिनरसेट जैसी तुच्छ चीज खरीद लेने के बाद भी उसका सुख नहीं ले पाता.
एक और बात उल्लेखनीय है कि ममता मेहरोत्रा के इस कहानी-संग्रह में हर कहानी सिर्फ और सिर्फ आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों की समस्याओं पर अपने विषय को केंद्रित रखती है और यह सबसे बड़ी सराहनीय बात है. जिस महिला ने कभी घोर गरीबी का जीवन जीया ही नहीं उसके जेहन में गरीबों की समस्याओं के अतिरिक्त कुछ और नहीं. समस्या तो हर वर्ग में होती है लेकिन ये लेखिका जानती हैं कि सभी वर्गों की समस्याओं को अगर इकट्ठा भी कर दिया जाय तो वह उसके बराबर नहीं हो पाएँगी जो सर्वहारा और अतिनिर्धन वर्ग प्रतिदिन झेलता है. वैसे लेखिका 'घूस' शीर्षक कहानी में एक सरकारी अधिकारी की बेबसी को भी उतनी ही संजीदगी से दिखला पाने में कामयाब हुईं है जो चाह कर भी कमजोर तबके की शोषिता का कुछ खास भला नहीं कर पाती. ऊपर और नीचे दोनो तरफ से प्रशासन-तन्त्र स्वार्थ, लिप्सा और भावनाशून्यता के कारण सड़ा हुआ है जहाँ कुछ भी भला कर पाने की कवायद का विफल हो जाना तय है.
लेखिका ने जान-बूझकर विषय को दार्शनिक बवंडर से बचाकर कमजोरों के दर्द की आवाज रहने दिया है अन्यथा उन्होंने अपनी कहानी 'अक्स' में यह सिद्ध कर दिया है कि वह नारी-मनोविज्ञान के सूक्ष्म गह्वरों में उतरकर मोती चुनने में भी वो कुशल हैं.
उल्लेखनीय रूप से अनेक कहानियों के अंत में नारी-पात्र समस्याओं में उलझकर नि:शक्त हो जाती है और उसका सिर चकराता है फिर वह बेहोश होकर गिर पड़ती है. यह दर-असल नारी-जीवन की सच्चाई को बताता है कि उसकी कहानी चाहे जैसे भी लिखी जाय उसे अंत में इतनी प्रताड़ना झेलनी ही पड़ेगी कि वह विवश होकर गिर पड़ेगी. यह समाज की बड़ी डरावनी तस्वीर है और इसे किसी भी हालत में बदलना होगा.
आइये अब एक-एक कहानी पर विचार करते हैं-
टुकड़ों टुकड़ों में बँटी औरत
पूरी कहानी प्रतीकात्मक है. एक कमजोर तबके की नारी को अपने बाल-बच्चों की भूख मिटाने के लिए दर-बदर किस तरह भटकना पड़ता है और किस तरह से हर जगह उसे अपनी इज्जत का अंश देकर ही सफलता मिलती है, इसका मार्मिक वर्णन कथाकार ने बहुत ही सावधानीपूर्वक शब्दों की पवित्रता को बरकरार रखते हुए किया है. समाज में व्याप्त गंदगी का इतने साफ-सुथरे शब्दों में हूबहू रख देना कथाकार की विशिष्ट क्षमता का परिचायक है.
कहानी का अंत यथार्थपरक किंतु अत्यंत भयावह है-
"बच्चे बाहर बुझे हुए चूल्हे के ठण्ढे अंगारों पर अपना मांस भून रहे थे. उसकी महक से उस औरत (माँ) का सिर चकराने लगा"
अक्स
दो आत्म-सवादों की झलक देखेंं-
"क्या इसको पतिव्रता होना ही कहेंगे कि तुम अपनी पति की ईमानदारी का बाहर दलालों से सौदा करती हो?"
"अपने समकक्ष नारी का चरित्र छिद्रांवेषण किसको आनंदित नहीं करता और अगर वह नारी सौंदर्य और दिमाग से परिपूर्ण होते हुए किसी भी स्तर पर कमजोर सी प्रतीत होती है तो अन्य नारियों के स्वाभिमान में इजाफा होता है."
यह कहानी 'स्वगत सम्वादों' की श्रृंखला है जिसमें कोई घटना घटित नहीं होती लेकिन 'नारी मनोविज्ञान' का चरम स्तर की सूक्षमता के साथ विश्लेषण किया गया है.
सफर
बड़ा ही सटीक कथन है लेखिका का-
"गरीबी का सबसे दु:खद पक्ष है कि वह भूख को उम्र, शरीर और चेहरे पर ले आती है."
एक गरीब काम की तलाश में अपने बीबी-बच्चों से बिछुड़ने को मजबूर है. पत्नी और बच्चे तो कमी महसूस करते ही हैं, वह स्वयं भी परिवार से दूर रह कर खुश नहीं है. लेकिन मजबूरी है रोजगार न छूट जाय. बड़े ही मार्मिक परंतु अत्यंंत स्वाभाविकता के साथ कहानी का ताना-बाना रचा गया है.
गम
यह कहानी के रूप में एक काव्य है जो पति-पत्नी के बीच आत्मीय सम्बंधों की खोज में लगा है. अपनी पत्नी ज्योति के मरने पर किरोड़ी के मन में जो संताप है वह मात्र इस बात का है कि उसकी सेवा कौन करेगा. कोई आत्मिक लगाव नहीं दिख रहा है और एक साल के अंदर वह तुरंत दूसरा विवाह कर ही लेता है.
नज़राना
सरहद के इस पार या उस पार होने अथवा उसके हिन्दु या मुस्लिम होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर वह औरत है तो उसे प्रताड़ित होना पड़ेगा. या तो वह बबली के रूप में विजातीय मनोज से प्रेम करने के जुर्म में खाप पंचायत द्वारा पति के साथ मृत्यु दंड पाप्त करेगी या शाहिदा के रूप में अपने स्वसुर द्वारा शील-हरण होने के पश्चात उसकी बीवी बनकर रहेगी और अपने से बहुत मुहब्बत करनेवाले वर्तमान शौहर की माँ बना दी जाएगी.
तुम बिन
राहुल की दीदी बारहवीं कक्षा के अपने सहपाठी मनोज से प्रेम कर बैठी और सम्भवत: गर्भवती हो गई. बाद में मनोज के पिता ने लड़की को बहू बनाने से इनकार कर दिया. लड़की यानी राहुल की दीदी को अपने पिता से भी परित्यक्त होना पड़ा और उसने नींद की गोली खाकर आत्महत्या कर ली.
रिश्ता
यह कहानी बड़े ही सिलसिलेवार ढंग से आगे बढ़ती है. बेटी घर के अंदर भी असुरक्षित है, यह कहानी इसका प्रमाण है. बार-बार पूछे जाने पर वह कहती है कि इस (मेरे) बच्चे और मेरा पिता एक ही है." वह तो किसी तरह अपनी नाजायज संतान को बगल वाली नवप्रसूता महिला को देकर छुटकारा पा लेती है और पानेवाली महिला दूसरे के बेटे को पाकर इतना खुश है कि उसे अपनी नवजात बेटी के खोने का कोई गम ही नहीं.
परम शांति
एक व्यक्ति वृद्धावस्था में किस तरह से अपने ही पुत्रों की सम्वेदनहीनता का शिकार होता है वह बहुत ही सजीवता के साथ दिखाया गया है. सबसे बड़ा पुत्र विदेश में बसा है और दस वर्षों में सिर्फ दो बार आया है वह भी माँ के मरने पर और छोटे भाई के विवाह में. दो छोटे बेटे उसके पेंशन के लिए झगड़ते रहते हैं और बैंक से घर आते ही उस व्यक्ति से लेकर आपस में बाँट लेते हैं. पोता किसी तरह अपने दादा की देखभाल करने के लिए पेंशन में से \कुछ रुपयों को अलग रख कर उस वृद्ध व्यक्ति का बचाव करता है. अंत में अंदर से आत्मिक दु:ख से छुटकारा पाने के लिए वह वृद्ध व्यक्ति वकील को बुलाकर वसीयत बनवाता है और अपने सभी बेटों को उसकी सम्पति से बेदखल कर देता है. इस तरह से वह अपने तनाव से मुक्ति पाता है.
घटनाक्रम इतनी सजीव और वास्तविक सी हैं कि पाठक को पढ़्ने पर कुछ भी अचरज नहीं होता बल्कि लगता है कि कोई बिल्कुल सच्ची बातों को बिना नमक-मिर्च के कह रहा है.
डिनरसेट
एक मध्यम वर्ग की इच्छाओं की पूर्ति करने की कवायद के स्वरूप का बिल्कुल सुंदर और सच्चा वर्णन इस कहानी में मिलता है. मात्र तीन हजार रुपयों का बोनस पाकर राकेश इतना खुश है कि उसकी बाँछें खिल उठी हैं. पत्नी से जब वह पूछ्ता है कि वह इन अतिरिक्त मिलनेवाले रुपयों से क्या करना चाहती है तो उसे पहला जवाब मिलता है कि बिटिया के विवाह के लिए जमा कर लेंगे. मात्र दो साल की बेटी है पर बेटी का विवाह इतना बड़ा काम है हमारे समाज में कि मध्यम वर्ग को कोई खुशी मनाने ही नहीं देता. कारण है दहेज रूपी दानव. खैर, किसी तरह राकेश अपनी अपनी पत्नी को मना कर डिनर सेट खरीद तो लेता है पर जीते-जी उसका इस्तेमाल नहीं कर पाता क्योंकि वह सुरक्षित रखा जाना ही इतनी खुशी देता है कि उसका इस्तेमाल हो ही नहीं पाता. कहीं प्रयोग करने से टूट न जाये. जब राकेश की मृत्यु हो जाती है तो किसी तरह से उसे निकाला जाता है और उसका प्रयोग होता है. यह कहानी एक साथ अनेक मुद्दों को उठाती है पर जो सबसे बड़ा विषय लेखिका कहना चाहती है वह यह है कि जो कुछ खुशियाँ मिल रहीं हो उन्हें उठा लेने से चूकना नहीं चाहिए अन्यथा मरने के बाद अर्जित सामग्रियाँ धरी-की-धरी रह जायेंगी.
पुलिक आ गई
पुलिस-तंत्र के ढकोसले को बेपर्दा करती हुई यह कहानी अपने पूरे व्यंग्यात्मक तेवर में दिखती है. अपराधी और पुलिस की भयंकर मिलीभगत है. इसी मिलीभगत चोरी करवाती है फिर पुलिस अपनी खानापूरी किस तरह से करती है उसका बड़ा ही यथार्थ वर्णन किया गया है.पुलिस पहले तो कुछ अपराध के बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाहती और जब सुनती भी है तो उसकी चिन्ता मात्र इतनी है कि कहीं अपराधी उसका कमीशन न पचा जाये.अपराध की शिकार जनता तो कहीं किसी की निगाह में है ही नहीं.
अपने-बेगाने
राहुल खेलते-खेलते दुर्घटना का शिकार हो जाता है. पर उसकी फैशनपरस्त और मौज-मस्ती की शौकीन माँ सिनेमा देखने के लिए जाते समय उसे सड़क पर यह सोचकर छोड़ देती है कि वह कोई अनजान लड़का होगा. बाद में जब उसे पता चलता है कि अगर उसने सही समय पर गाड़ी रोक कर उस बच्चे को अगर अस्पताल पहुँचा दिया होता तो जो जिन्दा बचा होता वह उसका अपना बेटा ही होता. बड़े ही प्रतीकात्मक ढ़ंग से लेखिका यह बताती है कि अगर आप दूसरे लोगों के प्रति असंवेदनशीलता दिखाते हैं तो उसका परिणाम आपको स्वयँ भुगतना होगा. इसमें एक काव्यात्मक सौंदर्य इस बात से जुड़ता है जब पता चलता है कि वह बच्चा इसलिए दुर्घटना का शिकार हो गया था क्योंकि वह किसी पक्षी के घोंसले को सम्भालने का प्रयत्न कर रहा था.
सलाम साक्षरता
साक्षरता आभियान के नाटक में पिसता हुआ एक गरीब अंतत: अपनी जान दे देता है. पर अभियान बदस्तूर उतने ही उत्साह और दिखावे के साथ जारी रहता है.
चोरी
एक गरीब नौकर मालिक की दुकान से पाँच हजार रुपयों की चोरी करते पकड़ा जाता है तो पहले तो खुद उसकी धुनाई की जाती है फिर पुलिस बुलाकर उसे और पिटवाकर हाजत में बंद करवा दिया जाता है यह जानने के बावजूद कि वह नौकर सालों से ईमानदारी से काम कर रहा था और उसने चोरी इसलिए की थी क्योंकि सेठ उसे उसकी बीमार माँ के इलाज के लिए कोई एड्वांस देने को तैयार नहीं था. बाद में जब कुछ जानने के बाद भी सेठ को नौकर की माँ के बारे में पता करने से ज्यादा सरकारी बाबुओं की खातिरदारी पर ज्यादा ध्यान रहता है. नौकार लाख मिन्नतें करने के बद भी हाजत में डाल दिया जाता है और जब उसकी माँ मरनासन्न हो जाती है तो सेठ कुछ रुपयों को भिजवाता है. तब तक उस बीमार वृद्धा की मौत हो जाती है. वर्ग-भेद की खाई और समर्थ द्वारा असमर्थ के प्रति भावशून्यता का बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया गया है.
घूस
एक नाबालिग बच्ची की इज्जत लूट ली गई है दबंग मुखिया के बेटे और उसके साथियों द्वारा पर पुलिस नक्कारा बनी रहती है. फिर बड़े साहब के पास वो फरियाद लेकर जाती है जो स्वयँ महिला है. वह ऑफिसर दिल से इस गरीब पीड़िता बच्ची की सहायता करना चाहती है पर अपने आप को ऊपर के अधिकारियों के अनुचित दवाबों और नीचे के अधिकारियों की ढीठता से बँधी पाती है. असल बात यह है कि अपराध को प्रश्रय देकर पैसे कमाने के घृणित काम में संलग्नता के वास्ते ऊपर और नीचे के अधिकारी मिले हुए हैं और बीच में वह ईमानदार अधिकारी अपने आप को पंगु के समान अनुभव कर रही है. उसकी इस उधेड़बुन को देख कर पीड़िता और उसकी माँ यह समझते हैं कि शायद घूस नहीं देने के कारण यह महिला अधिकारी पूरा मन लगाकर काम नहीं कर रही है. इसलिए कुछ सौ रुपये वो बढ़ा देते हैं. इसको नकारने पर उन्हें लगता है कि यह राशि अपर्याप्त है तो बह अपने गहनो को खोलकर देने लगती है. इस पर महिला अधिकारी शरमा जाती है और कहती है कि कोई रुपये या सामान देने की जरूरत नहीं है, उससे जो हो पाएगा वह बिना कुछ लिये ही कर देगी. पूरे समाज की मानसिकता में घूस किस तरह सए प्रवेश कर गया है यह इस कहानी में दिखाया गया है.
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि ममता मेहरोत्रा का कथा-संग्रह 'टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी औरत' आज के समय में नारी की दारुण दशा का चित्रण ही नहीं बल्कि पत्थरदिल समाज के ऊपर एक करारा प्रहार है. यह समाज चाहता तो है सुख और शांति लेकिन एक भी काम ऐसा नहीं करता जिससे सुख या शांति मिले. ऐसे पत्थरदिल लोगों के अंदर संवेदना जगाने का यह पुस्तक एक सफल प्रयास है और इस हेतु लेखिका बधाई की पात्र हैं. कुछ कहानियों जैसे 'सलाम साक्षरता' और 'गम' में कथ्य पूरी तरह से उभर नहीं पाया है, ऐसा लगता है. परंतु कथा-संग्रह के विषय इतने विस्तृत हैं कि इसमें नारी-शोषण, पुलिस तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, न्यायतंत्र की अक्षमता, पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर असंवेदनशीलता, नारी-मनोविज्ञान, पुरुष-मनोविज्ञान, मध्यमवर्ग की विवशता, आर्थिक वर्ग-भेद आदि अनेक मुद्दों को बड़ी संजीदगी के साथ प्रदर्शित किया गया है. लेखिका ने अत्यंत साफ-सुथरी और विनयशील किंतु व्यंगात्मक और काव्यात्मक भाषा में सारी सामाजिक गंदगियों के बारे में लिखा है जो रोचक के साथ-साथ संदेशों से परिपूर्ण भी है. पुन: लेखिका को उत्तम रचना के लिए बधाई.
लेखिका का इमेल: mamtamehrotra69@gmail.com
इस आलेख पर अपने विचार इमेल से बताएँ: hemantdas_2001@yahoo.com
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