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सामाजिक संदर्भ में साहित्यिक उजाला फैलाने का प्रयास
(See the review in Englsih here - http://biharidhamaka.blogspot.in/2017/05/contemporary-ambience-samayik-pariwesh.html)
ममता मेहरोत्रा के प्रधान सम्पादकत्व में समीर परिमल द्वारा सम्पादित त्रैमासिक पत्रिका 'सामयिक परिवेश' मई 2017 के इस नवीन अंक में गद्य और पद्य दोनो श्रेणी में अपनी स्तरीयता की कसौटी पर खरी उतरी है. विशेष रूप से कहानियाँ और कुछ चुने हुए शायरों की गज़लें तथा कसावट वाले नवगीत का चमत्कार दर्शनीय है. पाठक को आह्लाद और अपनी संंवेदनाओं से साक्षात्कार होना तय है.
गद्य
नीतू नवगीत ने चम्पारण आन्दोलन के शताब्दी वर्ष में 'चम्पारण का वह अकेला मर्द' शीर्षक लेख में विस्तार से राजकुमार शुक्ल के उस अविस्मरणीय प्रयास के बारे में लिखा है जिसके फलस्वरूप गांधी जी चम्पारण आये और अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय आंदोलन को नई दिशा देकर महात्मा बने. भागवत शरण झा 'अनिमेष' की मिथिला चित्रकला पर शोधपरक लेख बारीकी से मधुबनी पेंटिंग के उद्भव को तो रेखांकित तो करता ही है उसकी अनोखी विशिष्टताओं को भी सरलता के साथ विश्लेषित करता है. 'हाय रे पानी' आलेख में तारकेश्वरी तरु 'सुधि' दैनिक जीवन में जल की अल्पव्ययता के उपायों को बता कर भविष्य की सबसे बड़ी समस्या को दूर करने का ईमानदार प्रयास करती दिखती हैं. भोजपुरी सिनेमा के उन्न्यन में रोड़ा बननेवाले कारणों की अंतर्वीक्षा करने का जोखिम भरा काम किया है विनोद अनुपम ने. यह डॉ. प्रदीप कुमार चित्रांशी की दार्शनिक विद्वता ही है कि उन्होंने अपने लेख में मंथरा को द्वैतवाद की पक्षधर साबित कर दिया है अपने जीव (भरत) और ब्रह्म (राम) की अनोखी व्याख्या से.
प्रधान सम्पादक और प्रकाशक- ममता मेहरोत्रा |
राजकुमार राजन ने त्रिलोचन की काव्य-धारा गहन साहित्यिक मीमांसा प्रस्तुत की है जिसका शीर्षक है- 'जीवन जिस धरती का कविता भी उसकी'. हिन्दी रंगमंच को शौकिया कार्यकलाप से निकल कर पेशेवर क्षेत्र में प्रवेश करना ही होगा - ऐसा कहना है रंगकर्मी अनीश अंकुर का ताकि 'रंगमंच का भविष्य' उज्ज्वल हो सके. डॉ. कासिम खुर्शीद की कहानी 'फाँस' एक अत्यन्त उच्च कोटि की कहानी है. कहानी की गुणवत्ता का कारण उसका कोई विशाल दार्शनिक सन्देश नहीं वरन आज के शहरी जीवन में रिश्तों की अहमियत को बिना किसी बनावटीपन के सामने लाना है. एक लड़की अपने अकेले पिता को विवाह के बाद अपने साथ रखना चाहती है ताकि उनकी ठीक तरह से देख-भाल हो सके. अपनी माँ की देखभाल को ही अपनी और अपनी भावी पत्नी की एक मात्र जिम्मेवारी समझनेवाला लड़का उधेरबुन में पड़ कर उस लड़की को अपनी पत्नी बनाने में चूक जाता है और जिन्दगी भर पछताता रहता है.
शम्भू पी. सिंंह की कहानी 'इजाजत' आज के अपार्ट्मेंट संस्कृति में छीज रहे रिश्तों की तीखी पड़ताल करती है. एक व्यक्ति के मर जाने पर उसके परिवार वालों और पड़ोसियों को रोने की भी इजाजत नहीं ताकि दूसरों के भ्रमित आनन्द के जायके में बाधा न आये. सौरभ चतुर्वेदी की कहानी 'रुद्राभिषेक' भी इस अंक में है. दिनेश प्रसाद सिंह 'चित्रेश' अपनी कहानी 'श्मशान ज्ञान' में बड़ी कुशलता से मानव मनोविज्ञान के उस अफसोसजनक पहलू को दर्शाते हैं जहाँ मौत को करीब आया देख कोई आदमी निष्कपट और निर्मल हृदय हो जाता है पर पुन: मृत्यु को दूर गया देख वह वही टुच्चापन पर उतर आता है जिसे वह घृणित समझने लगा था. असित कुमार मिश्र की कहानी 'सरहद' काफी मार्मिक ढंग से विधवा फुआ को अपनी घर की लड़की की विदाई के समय न देख पाने की सामाज की कोशिश के विरुद्ध विद्रोह का मानो आँखो देखा हाल कह रही हो. आँख में आँसू आ जाते हैं.
सम्पादक- समीर परिमल |
राजेश कुमारी की कहानी 'शक' एक मजदूर वर्ग के पिता की कहानी है जिसे उच्च आय वर्ग वाले से अपनी बेटी की दोस्ती नागवार गुजरती है और वह उसकी हत्या कर बैठता है. बाद में जब उसे पता चलता है कि उसका शक गलत था तो वह आत्मग्लानि की आग में जल जाता है. 'सोने की बंदूक' शीर्षक से लक्ष्मी शंकर बाजपेयी की लघु-कथा है. 'झंझावात' शीर्षक संस्मरण में ममता मेहरोत्रा अपने पिता की मुत्यु के समय का सजीव वर्णन किया है. प्रसिद्ध लोक-गायिका शारदा सिन्हा से निराला बिदेसिया का साक्षात्कार न सिर्फ कलाकार की कला-यात्रा को कमलबद्ध करता है बल्कि यह नए कलाकारों को जरूरी संदेश भी प्रदान करता है. प्रीति अज्ञात की दो व्यंग्य कथाएँ भी इस अंक में हैं और लक्षमण रामानुज लड़ीवाला की लघु-कथा 'आधार' भी.
तीन बेहद उम्दा पुस्तक समीक्षाएँ भी हैं. राजकिशोर राजन की कविताओं की पुस्तक 'कुशीनारा से गुजरते हुए'की समीक्षा में स्वपनिल श्रीवास्तव बताते हैं कि किस तरह से कवि ने बुद्ध के जीवन को केंद्र में रख कर कविताएँ लिखने का जोखिम उठाया है. राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध कवि और काव्य-समीक्षक शहंशाह आलम ने प्रभात सरसिज के कविता-संग्रह 'लोकराग' की समीक्षा करते हुए कहा है कि प्रभात सरसिज भाषा के खंडहर को नहीं रचते बल्कि भाषा की चमचम नदी बहाते हैं. हेमंन्त दास 'हिम' के कविता-संग्रह 'तुम आओ चहकते हुए' की समीक्षा करते हुए राष्ट्रीय स्तर के वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि 'हिम' के संग्रह में अकेलेपन की त्रासदी से जुड़ी कई ऐसी रचनाएँ हैं जो अंतर्मन को गहरे आन्दोलित करती है.
पद्य
पत्रिका के इस अंक में गज़लों और गीतों की प्रचूरता है. साथ ही मुक्त-छन्द कविताएँ भी हैं. कुछ गज़लें और गीत तो जीवन की सच्चाइयों से रू-ब-रू कराती हुई अपने स्पष्ट सन्देशों को पूर्ण लालित्य के साथ सम्प्रेषित करने में पूरी तरह से सफल रहीं हैं जिनमें लक्ष्मी शंकर बाजपेयी, अनिरुद्ध सिन्हा ( विशेष रूप से दूसरी और तीसरी गज़ल), प्रज्ञा विकास, ,ममता लड़ीवाल, अंकुर शुक्ल नाचीज, संजय कुमार 'कुंदन, अरबिन्द श्रीवास्तव, अस्तित्व अंकुर, रामनाथ शोधर्थी, डॉ. महेश मनमीत, दिनकर पाण्डेय 'दिनकर. अवनीश त्रिपाठी के तीन और वीणा चंदन के चार नवगीत भी बड़े मोहक हैं.
साथ ही अन्य गज़लें/ गीत/ कविताएँ भी हैं जिनमें कुछ-न-कुछ मुद्दे उभर कर आगे आते हैं. इस श्रेणी में शामिल कवियों में कांन्ति शुक्ला, कुमारी स्मृति उर्फ कुमकुम, मेरी एडलीन, सरोज तिवारी, शुभ्रा शर्मा, डॉ. सरिता शर्मा, डॉ. मीरा मिश्रा, बनज कुमार बनज, , रंजित तिवारी मुन्ना, राहुल वर्मा 'अश्क, हमजा रज़ा खान, ईशिता परिमल, प्रीति सेन, धीरज श्रीवास्तव, मुकेश कुमार सिन्हा, मंजू सिन्हा और प्रियंका वर्मा.
पत्रिका के प्रारम्भ में सम्पादकीय लेख भी काफी सधा हुआ है. पत्रिका के अंत में कुछ साहित्यिक गतिविधियों की संक्षिप्त रिपोर्ट भी है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है पत्रिका का यह अंक न सिर्फ प्रधान सम्पादक और प्रकाशक ममता मेहरोत्रा के लिए बल्कि सम्पादक समीर परिमल के लिए भी स्मरणीय उपलब्धि है. यह अंक निस्संदेह सुधी पाठकों की सामाजिक प्रतिबद्धता को और अधिक सशक्त करते हुए उनके साहित्यिक अनुरंजन का गुरुतर कर्तव्य का निर्वाह करता प्रतीत होता है.
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