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Wednesday, 1 March 2017

डॉ. विनय कुमार की पुस्तक 'मॉल में कबूतर' का पटना में 26.02.2017 का लोकार्पण ( Release of Dr. Vinay Kumar's book 'Mall me Kabootar' in Hindi in Patna on 26.02.2017)

(Read the English version below the Hindi text and view photos below the English text)
बाज़ारवादी सोच से बचने की तड़प...

"मंज़िलें कई हैं
कोई भी चढ़ सकता है
कि देखने-दिखाने को है नs
लुभावना लोकतन्त्र यहाँ भी
सबके लिए खुला" 
(डॉ.विनय कुमार की अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'मॉल में कबूतर' से)
    दिनांक 26.02.2017 को पटना में भारतीय नृत्य कला मंदिर (बहुद्देशीय सभागार),फ्रेजर रोड के सभागार में डॉ.विनय कुमार के कविता-संग्रह 'मॉल में कबूतर' के लोकार्पण के अवसर पर वक्ताओं ने बाजारवाद के सर्वव्यापी सोच के बीच सृजनशीलता की अ‍क्षुण्णता बनाए रखने के मुद्दे पर गम्भीर विचर-विमर्श हुआ. कहा गया कि डॉ. विनय कुमार की प्रस्तुत पुस्तक सम्बवत:अब तक बाजारवाद और मॉल पर केंदित पहली पुस्तक है पुस्तक में मॉल शब्द का व्यवहार बार-बार हुआ है और दर्जनों कविताएँ तो विशेष रूप से मॉल की पृष्ठभूमि में ही रची गई हैं. कवि की सजगता इतनी अधिक है कि वह मॉल के बहाने सामाजिक-आर्थिक तंत्र के पाखण्डपूर्ण विरोधाभासों को परत-दर-परत खोलता चला जाता है और पुस्तक की एक झलक देखने की चाह में भी पाठक अनजाने में मंत्र-मुग्ध होकर एक साथ अनेक कविताओं को पढ़ जाता है.

"बनाना है उसे इक मॉल उम्दा
वो तुझ से दिल का रक़बा माँगता है
वो चीजों का तुझे अंबार देगा
फ़कत सोचों पे क़ब्ज़ा माँगता है"
    लोकार्पित पुस्तक की उक्त  पंक्तियाँ भी उद्धृत की करते हुए अनिल यादव ने कहा कि मॉल, वस्तुत: आज के संदर्भ में बाज़ारवाद का प्रतीक है और बाज़ार आज के जीवन के हर क्षेत्र में बूरी तरह से हावी है. हम अब फ्रूटी को ही आम समझने लगे हैं और मॉल के सेल्समेन द्वारा दिखाये जा रहे शिष्टाचार को ही अपनी सभ्यता का अंग समझने लगे हैं. हम यह भूल जाते हैं कि यह शिष्टाचार, विनयशीलता और मुस्कान दरअसल इसलिए है क्योंकि हमें आर्थिक रूप से छला जाना है. हम अपनी सहज बिहारी भाषा में बात करने की बजाय पंजाबी के साथ अंग्रेजी की छौंक वाली हिन्दी का व्यवहार करके अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करते हैं. अब हम दिखावे और तड़क-भड‌क को ही अपना जीवन-मूल्य समझने लगे हैं.

"मॉल न बनता है न खड़ा होता है
सच तो यह है
कि इसे शहर के सीने पर 
ठोंक दिया जाता है"
    अनिल यादव ने यह भी कहा कि वैसे विश्व स्तर पर मॉल 1970 के दशक में आधुनिक शैली में प्रकट हो चुका था परन्तु भारत में यह वैश्वीकरण, उदारीकरण और फिर छठे वेतन आयोग के लागू किये जाने के बाद यह काफी तेजी से फैला. कारण था लोगों के पास गलत तरीकों से आवश्यकता से अधिक पैसों का आना. उन्होंने कहा कि मध्यम वर्ग में नौकरीपेशा लोगों का एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो स्वयं तो घूस नहीं माँगता लेकिन अगर बैठे-बैठे रिश्वत के स्थापित तन्त्र से उसका 'कट' उसे प्राप्त हो जाए तो इन्कार भी नहीं करता और स्वयं को ईमानदार भी समझता है. ऐसे विरोधाभासी सोच वाले लोग मॉल में जाकर अपने पैसों को ज्यादा से ज्यादा खर्च करके मानसिक संतुष्टि प्राप्त करने की कोशिश करते हैं क्योंकि मॉल की संस्कृति उनके सोच से मेल खाता है.

   रविभूषण ने अनिल यादव द्वारा विचार-विमर्श के फलक को काफी विस्तृत कर देने के लिए उनकी सराहना की बाजारवाद के इस युग में अब कोई संस्था बची नहीं रह गई हैं जो दिखता है वह मात्र उनका ढाँचा है. बाज़ार ने हम से हमारे बच्चे छिन लिए हैं, हमारा परिवार छिन लिया है. सभी को बस मँहगे ब्रांडेड आइटम चाहिए चाहे उस के लिये पैसे जहाँ से भी आएँ. वस्तु की उपयोगिता से नहीं बल्कि ब्रांड से उसका महत्व निर्धारित होता है. उन्होंने कहा कि प्रस्तुत कविता-संग्रह मे 31 में से 15 में मॉल की चर्चा है. जिसमें मॉल शब्द का व्यवहार नहीं हुआ है वे कविताएँ भी मॉल के परिवेश से प्रभावित हैं. इस तरह का सामयिक प्रयोग सिर्फ डॉ. विनय कुमार ने ही किया है और हिन्दी में सम्भवत: अब तक ऐसा नहीं हुआ है.

"बुरे वक़्त को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता 
कि आपकी कलाई पर बँधी घड़ी
कितनी पाबंद
कितनी खूबसूरत 
और कितनी मँहगी है"
    सचमुच बुरा वक़्त अक्सर चमक-दमक के साथ आता है. रविभूषण ने यह कहा कि बाजारवाद डॉ. महमोहन सिंह के नेतृत्व के समय भारत में प्रविष्ट हुआ, फिर हमारे समाज में शामिल हुआ, फिर हमारे परिवार में आया, फिर हमारे व्यक्तित्व में ही शामिल हो गया. और अब गज़ब तो यह है कि यह हमारी व्यक्तिगत मानसिकता के दर्शन पर ही आधिपत्य जमा चुका है. इससे हमारे वैचारिक मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं और हम सिर्फ पूँजीपतियों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गए हैं. अस्सी के दशक में अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और उनकी समकालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्ग्रेट थैचर के जमाने में बाज़ारवाद का यह नया दर्शन चलाया शिकागो स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के मिल्टन फ़्रीडमैन ने चलाया और रीगन और थैचर उनसे बहुत ही प्रभावित थे. आज भी ट्रम्प और मोदी के युग में वह खतरा बना हुआ है.

    ये बातें भी उठी कि मिडिल क्लास अब मस्त क्लास हो गया है और बाजार उसे सामाजिक नहीं होने दे रहा है. पूरी दुनिया की आधी सम्पत्ति मात्र मुट्ठी भर लोगों के पास है और हम मॉल की विलासिता का आनन्द लेने में लगे हैं. अब जरूरत है इस मॉल संस्कृति के मरने की-
"साहिबान
कोई मॉल जब मरता है
तो सिर्फ प्रदर्शन नहीं 
एक दर्शन भी मरता है"

    पुस्तक का विमोचन एकान्त रविभूषण, अनिल यादव, एकान्त श्रीवास्तव,विपिन कुमार एवं गौरीनाथ ने किया. इस अवसर पर बिहार संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष आलोक धन्वा और बिहार आर्ट थिएटर के कुमार अनुपम भी उपस्थित थे.
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(Report in English)
    The poet is so much awakened to the disguised hypocrisy that he goes on unravelling each and every layer of the socio-economic paradoxes. Though the middle class family today have enough dischargeable money to buy most of the products from mall, they are in fact getting alienated from their very roots. These issues were discussed while 'Mall me Kabootar' a poem book created by Dr. Vinay Kumar and published by Antika Prakashan was being released on 26.02.2017 at Bhartiya Nritya Kala Mandir, Frazer Road, Patna. The book centres it's theme on mall and it's multi-dimensional effects on our lives. Vipin Kumar, Anil Yadav, Ravi Bhushan, Ekant Srivastav, Gauri Nath were among the prominent speakers on the occasion and the same persons released the books too. All of the speakers expressed deep concern over the market-centred mentality of people which is epitomised by the behaviour of salesmen or saleswomen in the malls. This show off of glittering counters and synthetic smiles have taken away our children and family from us. 

    If we look at it's history,  the mall culture had invaded humankind in modern sense long ago somewhere around 70s of last century, it came in India lately in the aftermath of liberalisation and globalisation brought forth by the then Finance Minister Dr.  Manmohan Singh. It gained momentum after 1998 the time when 6th Pay Commission raised the salary of Indian govt employees to an unprecedented level. Moreover, officers and employees began to getting illegal income directly or indirectly. 


   The biggest fallout of the mall culture is that it strikes off the connection between man and society. You go to the mall and get all the commodities of your monthly use at one place mostly in packed form. Myriad  of home industries of tiny sizes are devastated by the erection of one mall. Also the culture they promote is a frightfully impure one. We are losing our values because of it. So at the cost of our mental attachment and commitment to family and society, we are gaining a little comfort of the mall. 


    The speakers referred to many lines from the poem book. 'Mall me Kabootar' and stated that Dr. Vinay Kumar who is an MD (Psychiatry) is a contemporary and intensively considerate poet. The chairman of Bihar Sangeet Natak Akademi Alok Dhanwa and General Secretary of Bihar Art Theatre Kumar Anupam were also present on the occasion. 

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