वेश्या के अरमान भी औरों की तरह
हम आदमी को अक्सर उसके पेशे से आँकते हैं और भूल जाते हैं कि वह दरअसल एक आम इनसान भी है। पेशा चाहे जैसा भी हो अंदर से हर किसी में मौजूद होता है एक आम आदमी अपने छोटी-बड़ी उन हसरतों के साथ जिनका उसके पेशे से कोई लेना-देना नहीं होता। कुुुुछ ऐसे ही तथ्य को उजागर करती हुआ एक नाटक हाल ही में मंचित हुआ।
पटना के कालिदास रंगालय में 15 जून, रविवार की शाम नाट्य संस्था"रंगम"के नाम रही। जिसने सआदत हसन मंटो लिखित कहानी "काली सलवार" की बेहतरीन प्रस्तुति द्वारा उपस्थित दर्शकों को अंत तक बाँधे रखा।
कहानी की नायिका सुल्ताना (ओशिन प्रिया) एक वेश्या है। अम्बाला में उसके बहुत ग्राहक थे तीन से चार घंटो में ही 8 से 10 रुपये कमा लेती थी । खूब काम था और ज़िंदगी अच्छी चल रही थी । लेकिन जब वह अपने साथी खुदाबख्श (कृष्णा किंचित) जो एक पेशे से फोटोग्राफर है उसकी बातो में आकर अम्बाला से दिल्ली आ जाती इस आस में कि पैसे खूब कमायेंगे वहाँ उसकी दोस्ती मुख्तार (विभा कपूर) से होती है जो एक पुरानी वेश्या है और उसके पडोस में ही रह्ती है जिसके साथ सुख-दुख कि बाते करती है ।
कई महीने गुज़र जाते हैं सुल्ताना और खुदाबख्श का दिल्ली में धंधा नही चल पाता और दिन पर दिन हालत बहुत दयनीय हो जाती है और सारे सोने-चांदी के ज़ेवर भी सब के सब बिक जाते है । मोहर्रम सर पर है वह बेचैन है कि उसके पास काली सलवार नहीं । वह अपने साथी खुदाबख्श को काली सलवार लाने को कहती है लेकिन खुदाबख्श अपनी किस्मत का ताला खुलवाने की खातिर एक फकीर के चक्कर में लगा है एक ऐसा फकीर जिसका "किस्मत का ताला" जंग लगे ताले की तरह बंद है खुदाबख्श काली सलवार नही प्रबंध कर पाता।
इसी बीच उसकी मुलाकात एक व्यक्ति (शंकर) से होती है जो एक जिगोलो है जिससे सुल्ताना की नज़दीकिया बढती है और उससे काली सलवार का जिक्र छेड़ती है । वह काली सलवार देने का वादा करता है मगर बदले में उसके बूंदे मांग लेता है । शंकर, मुख्तार की काली सलवार ले आता है और उसे तोहफे के रूप में सुल्ताना से लिये बूंदे दे देता है ।
मुहर्रम का दिन सुल्ताना काली कमीज और दुपट्टा जो उसने रंगवाए थे एंव काली सलवार के साथ पहनकर वह खुश ही हो रही होती है कि तभी मुख्तार आती है दोनो एक दुसरे को गौर से देखती है मुख्तार को लगता है उसकी सलवार है मुख्तार पुछ्ती है - सुलताना ये कमीज़ और दुपट्टा तो रंगाया हुआ मालूम पडता है लेकिन ये सलवार?
सुल्ताना कहती है – है न अच्छी आज ही दर्जी दे गया है, फिर सुल्ताना को लगता है कि उसके बुंदे मुख्तार पहनी है पूछ्ती है - मुख्तार ये बुंदे कहा से लायी?
मुख्तार कहती है ये बुंदे आज ही मंगवाई है दोनो हैरानी और खामोशी के बीच स्तब्ध ।
कहानी ‘काली सलवार’ की सुलताना, वेश्याओं की तमाम हसरतों को हमारे सामने रखती है जिससे यह साबित होता है कि उसका अस्तित्व सिर्फ लोगों की जिस्मानी जरूरतों को पूरा करने वाली एक भोग वस्तु की तरह ही नहीं है बल्कि उसके भी अरमान एक आम औरत की तरह होते हैं ।
पटना के कालिदास रंगालय में 15 जून, रविवार की शाम नाट्य संस्था"रंगम"के नाम रही। जिसने सआदत हसन मंटो लिखित कहानी "काली सलवार" की बेहतरीन प्रस्तुति द्वारा उपस्थित दर्शकों को अंत तक बाँधे रखा।
कहानी की नायिका सुल्ताना (ओशिन प्रिया) एक वेश्या है। अम्बाला में उसके बहुत ग्राहक थे तीन से चार घंटो में ही 8 से 10 रुपये कमा लेती थी । खूब काम था और ज़िंदगी अच्छी चल रही थी । लेकिन जब वह अपने साथी खुदाबख्श (कृष्णा किंचित) जो एक पेशे से फोटोग्राफर है उसकी बातो में आकर अम्बाला से दिल्ली आ जाती इस आस में कि पैसे खूब कमायेंगे वहाँ उसकी दोस्ती मुख्तार (विभा कपूर) से होती है जो एक पुरानी वेश्या है और उसके पडोस में ही रह्ती है जिसके साथ सुख-दुख कि बाते करती है ।
कई महीने गुज़र जाते हैं सुल्ताना और खुदाबख्श का दिल्ली में धंधा नही चल पाता और दिन पर दिन हालत बहुत दयनीय हो जाती है और सारे सोने-चांदी के ज़ेवर भी सब के सब बिक जाते है । मोहर्रम सर पर है वह बेचैन है कि उसके पास काली सलवार नहीं । वह अपने साथी खुदाबख्श को काली सलवार लाने को कहती है लेकिन खुदाबख्श अपनी किस्मत का ताला खुलवाने की खातिर एक फकीर के चक्कर में लगा है एक ऐसा फकीर जिसका "किस्मत का ताला" जंग लगे ताले की तरह बंद है खुदाबख्श काली सलवार नही प्रबंध कर पाता।
इसी बीच उसकी मुलाकात एक व्यक्ति (शंकर) से होती है जो एक जिगोलो है जिससे सुल्ताना की नज़दीकिया बढती है और उससे काली सलवार का जिक्र छेड़ती है । वह काली सलवार देने का वादा करता है मगर बदले में उसके बूंदे मांग लेता है । शंकर, मुख्तार की काली सलवार ले आता है और उसे तोहफे के रूप में सुल्ताना से लिये बूंदे दे देता है ।
मुहर्रम का दिन सुल्ताना काली कमीज और दुपट्टा जो उसने रंगवाए थे एंव काली सलवार के साथ पहनकर वह खुश ही हो रही होती है कि तभी मुख्तार आती है दोनो एक दुसरे को गौर से देखती है मुख्तार को लगता है उसकी सलवार है मुख्तार पुछ्ती है - सुलताना ये कमीज़ और दुपट्टा तो रंगाया हुआ मालूम पडता है लेकिन ये सलवार?
सुल्ताना कहती है – है न अच्छी आज ही दर्जी दे गया है, फिर सुल्ताना को लगता है कि उसके बुंदे मुख्तार पहनी है पूछ्ती है - मुख्तार ये बुंदे कहा से लायी?
मुख्तार कहती है ये बुंदे आज ही मंगवाई है दोनो हैरानी और खामोशी के बीच स्तब्ध ।
कहानी ‘काली सलवार’ की सुलताना, वेश्याओं की तमाम हसरतों को हमारे सामने रखती है जिससे यह साबित होता है कि उसका अस्तित्व सिर्फ लोगों की जिस्मानी जरूरतों को पूरा करने वाली एक भोग वस्तु की तरह ही नहीं है बल्कि उसके भी अरमान एक आम औरत की तरह होते हैं ।
बतौर निर्देशक रास राज सफल रहे वहीं जिगेलो (पुरुष वेश्या)शंकर की भूमिका में भी उन्होंने जान डाल दी। मंटो की इस विवादास्पद व लोकप्रिय कहानी में स्त्री पात्र महज माँस का लोथडा़ भर नहीं दिखतीं जो शरीफजादों की हवस को ठंडा करने का सामान भर हों, बल्कि वे जीती-जागती आम स्त्रियों की तरह छोटी-छोटी ख्वाहिशों, आपसी खींचतान, जलन, ऊब,संवेदनाएँ....से भरी होती हैं। आम जिंदगी की परेशानियाँ उनकी पेशानियों (ललाट/माथा) पर भी बल ला देती हैं।
इस कहानी की वेश्या-स्त्री पात्रों को सुल्ताना के रूप में ओशिन प्रिया ने और मुख्तार की भूमिका को विभा कपूर ने पूरी संजीदगी से जिया। सुल्ताना के खास दोस्त खुदाबख्श के परेशान, बिन कमाई समान जिंदगी के संत्रासपूर्ण जीवन को अभिनेता कृष्णा किंचित ने अत्यंत भावपूर्णता से निभाया।
ग्राहक/ जिगेलो की भूमिका इस नाटक के निर्देशक रास राज ने पूरे रंग में निभाया और दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रहे। सबसे बडी़ खूबी इस मंचन की रही कि छोटी भूमिकाओं को निभाने वाले कलाकारों --अनंत, अविनाश, कुणाल आदि अन्य सभी कलाकारों ने अपनी-अपनी संक्षिप्त भूमिकाओं को प्राणवान कर दिया।
'रंगम' की यह प्रस्तुति पटना रंगमंच के सक्रिय- सक्षम होने को प्रमाणित करते हुए सुखद-समर्थ भविष्य हेतु आश्वस्त भी करती है।
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समीक्षक - अनिल मिश्रा
सामग्री सौजन्य - संतोष कुमार
सामग्री सौजन्य - संतोष कुमार
छायाचित्र - रंगम
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