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Sunday, 21 October 2018

उमाशंकर सिंह परमार की पुस्तक "समय के बीजशब्द" पर राजकिशोर राजन द्वारा चर्चा

नब्बे की दशक की हिन्दी कविता का सही आकलन
आज को विवेचित करने में मूक्तिबोध, निराला और धूमिल भी काफी नहीं

साहित्य में और वह भी कविता में अभी, बिल्कुल अभी से मुठभेड़ केवल चुनौतीपूर्ण कार्य नहीं अपितु इसके कई खतरे हैं।एक तो हिंदी आलोचना संस्कृत साहित्य के अनुकरण में अभी भी जीवित साहित्यकारों पर नहीं दिवंगत पर केंद्रित है हालांकि दिवंगत हमारी जड़ें हैं और हमारे पथ निर्माता भी। पर,इससे बात आधी ही रहती है कभी आगे नहीं जाती। एक अवसाद, एक सन्नाटे में चुक्का मुक्का बैठी हिंदी आलोचना में रह रह कर सुखद और अच्छी खबरें भी आती हैं। कई युवा आलोचक,कवि समय के साथ मुठभेड़ करने की चुनौती स्वीकार करते हैं उनमें उमाशंकर सिंह परमार जैसे आलोचक,कवि का नाम महत्वपूर्ण है।

समय के बीज शब्द,कविता आज,को पढ़ते सर्वप्रथम जो तथ्य प्रभावित करता है कि यह कृति रचना का आनंद देती है,तर्कों के साथ अपनी बात रखती है,जो है, जैसा है को कहने की सामर्थ्य रखती है। ठीक वैसे समय में जब हम भाषा में बच निकलने का अद्भुत हुनर प्राप्त कर चुके हैं कि बिना कुछ कहे ,सब कुछ कह दिया जाए। इस पुस्तक में नब्बे के दशक से हिंदी कविता का आकलन है और परमार उस दशक को ही कविता के वास्तविक समकाल के रूप में चिन्हित करते हैं। उनका मानना है कि नब्बे के दशक के मूल्यांकन में भारी चूक हुई है तथा इसके संबंध में वागर्थ पत्रिका द्वारा चलाया गया लांग नाइंटीज अभियान की चर्चा की है जो उस दशक की कविता का गलत प्रमाणन था।   

उमाशंकर सिंह परमार के पास अभी को अभी की दृष्टि से देखने समझने का माद्दा है,वे कभी, तभी से पोथी नहीं लिखते। वे कहते भी हैं, हम मुक्तिबोध,निराला और धूमिल का संदर्भ लेे कर अपने समकाल का आकलन करें भी तो आज के रचनात्मक वैविध्य, चुनौतियों, दबाव, यंत्रणाओं, विमर्श, अस्मिता के उभारों और संघर्षों के पारस्परिक संबंधों को विवेचित नहीं कर सकते।

इस पुस्तक में समकाल में लिख रहे विभिन्न धाराओं के कवियों की चार पीढ़ियों की चर्चा है,ये कवि हिंदी पट्टी के जनपदीय और लोक से सरोकार रखनेवाले कवि हैं जिनसे दिल्ली अभी भी दूर है। वैसे तो साहित्य के पाठक इस किताब को अपने ढंग से पढ़ेंगे और कई बिंदुओं पर सहमत,असहमत होंगे,और होना भी चाहिए पर इस किताब में यत्र तत्र इस युवा आलोचक के विचार कविता में एक विमर्श को शुरू करती है,जो प्रभावपूर्ण तो है ही ,कविता के प्रति नए ढंग से सोचने और समझने को बाध्य करता है......

कवि होना और वामपंथी होना एक ही बात नहीं है,दोनों अलग अलग बातें हैं।
जिस लेखक या कवि में विस्तृत लोक के प्रति कोई आत्मीयता नहीं है वह लेखक या कवि नहीं हो सकता।
बाजारवाद पुरुषवाद की सामंती वृत्तियों से अधिक घातक है।
प्रगतिशीलता या लोकधर्मिता केवल गांव ,किसान,मजदूरों का वर्णन नहीं है क्योंकि वर्णन काल्पनिक, कला वादी, अमूर्त व रोमांटिक भी हो सकता है। लोकधर्मिता का आशय विशाल जन समुदाय के जमीनी व जीवन के संघर्षों का वैचारिक आयामों के साथ यथार्थवादी रेखांकन है।
यदि काव्य में कला की बात आती है तो त्रिलोचन समस्त लोकधर्मी कवियों पर बीस ठहरते हैं।
हिंदी कविता में त्रिलोचन के सबसे बड़े उत्तराधिकारी विजेंद्र हैं।
आज के समय में जब अधिकांश कविता दुहराई जा रही है,कविता के समक्ष भाषा और मौलिकता का बड़ा संकट उपस्थित हो गया है।
मुझे कहने में संकोच नहीं है कि हिंदी कविता का जितना नुकसान इन आलोचकों ने किया है उतना बड़ा नुकसान इस बाजारवाद ने भी नहीं किया है। आलोचकों ने नए परिवर्तनों व आधुनिकता को समझने की कतई कोशिश नहीं की है,कोई भी आलोचक नए प्रतिमान नहीं बना सका है। सबने पुराने प्रतिमानों को धो मांज कर चमकाया है।
आज की कविता सच कहने का साहस रखती है और सच कहती भी है। इसलिए उसे किसी थोथे चमत्कार की जरूरत नहीं है।
जानबूझकर देशकाल और भाषा के आग्रह को ढोना भी कलावाद है।
ये कुछ पंक्तियां इस आलोचक को और इस पुस्तक को तनिक जानने की ओर इशारा कर सकती हैं,तो सोचा उन्हें जस का तस उतार दूं क्योंकि शमशेर कहते हैं...
बात बोलेगी हम नहीं
भेद खोलेगी बात ही।
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आलेख - राजकिशोर राजन
ईमेल-  rajan.rajkishor56@gmail.com

पुस्तक के लेखक - उमाशंकर सिंह परमार
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbiharidhamaka@yahoo.com


समीक्षक का काव्य संग्रह

राजकिशोर राजन साहित्यिक कार्यक्रम का संचालन करते हुए

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