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Wednesday, 17 October 2018

साहित्यिकता बाजार की वस्तु बन रही है- 1968 में आरा के जगदीश नलिन ने मुजफ्फरपुर से प्रकाशित 'निकष' में कहा

महानगरों में रह रहे चर्चित साहित्यकारों की सामंतवादी प्रवृतियाँ


आरा शहर की साहित्यिक उर्वरता जग जाहिर है। हिन्दी, उर्दू, भोजपुरी तीनों भाषाओं में एक से बढ़कर एक विभूतियाँ यहाँ अपनी सक्रिय भूमिका निभाती रही हैं। इस शहर से बाहर अन्य शहरों महानगरों में जाकर भी यहाँ के लोगों ने साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन दायित्व बखूबी निभाया है। 80वर्षीय बुजुर्ग कवि, अवकाश प्राप्त इंगलिश शिक्षक जगदीश नलिन  1960--70 के दशक में मुजफ्फरपुर (बिहार) में मलेरिया उन्मूलन विभाग में सेवारत थे लेकिन हिन्दी साहित्य से उनका नाभि नाल का संबंध था। उन दिनों उन्होंने प्रह्लाद पटेल और कुमारगुप्त के साथ मिलकर "निकष"के तीन अंक मुजफ्फरपुर से निकाले। परामर्शदाता थे प्रसिद्ध गीतकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह और डॉ शुकदेव सिंह। तब गैर काँग्रेसवाद की लहर पूरे उत्तर भारत में चल रही थी।नंक्लबाड़ी के बसंत का बज्रनाद बिहार के मुसहरी और भोजपुर-पटना में दस्तक दे रहा था। हिन्दी कविता में अकविता और राजकमल चौधरी का दौर चल रहा था, तब जगदीश नलिन 'निकष' द्वारा हिन्दी समाज और पाठक और रचनाकारों से क्या कह रहे थे। जगदीश नलिन जी ने निकष के तीन अंक जीर्णशीर्ण हालत में मुझे सुपुर्द किये। मैं उनका आभारी हूँ। निकष-1 का प्रकाशन नवंबर 1968 में हुआ। उसका संपादकीय यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। इससे उनकी साहित्यिक दृष्टि पर प्रकाश पड़ता है। अफसोस है कुछ शब्द फट कर अलग हो गये हैं।इसलिए इस टिप्पणी के साथ संपादकीय की छायाप्रति भी पोस्ट कर रहा हूँ। आप स्वयं विश्लेषण करेंगे।

संपादकीय
कोई डेढ़ दशक पूर्व धर्मवीर भारती एवं लक्ष्मीकांत वर्मा के सम्पादन में साहित्यिक संकलन के रूप में निकष का प्रकाशन आरम्भ हुआ था।इसके पाँच अंक प्रकाशित हुए थे। संदेह नहीं, पांचो अंक हिन्दी साहित्य की ऐतिहासिक उपलब्धि हैं। निकष नाम पंजीकृत नहीं है तथा इसका प्रकाशन बहुत वर्षों से स्थगित अथवा पूर्णतः बन्द है।

निकष की प्रकाशन योजना में प्रकाश्य सामग्री सम्बन्धी विशेष परिकल्पनाएँ बनी थीं। किन्तु उद्देश्य की आंशिक सफलता ही सम्भवतः प्राप्त हो सकी। बाहर के लब्धप्रतिष्ठ लेखकों से अनिवार्य दायित्व समझते हुए पत्र सम्बन्ध स्थापित किया गया, उनसे....... गई। किन्तु उनका सहयोग प्राप्त न हो सका।.........स्पृहा ने बड़े नाम नगरों या दूसरी ऐसी इकाइयों से अलग कर दिये हैं या फिर आये दिन पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ और रचनाओं की भयानक मांगों से वे नाम ऊब गये हों या (ज्यादा सच... है  वे चुक गये हों। तथ्य चाहे जो हो, किन्तु यह बात स्पष्ट है कि महानगरों में बसने का सौभाग्य प्राप्त कतिपय चर्चित साहित्यकारों की सामंतवादी प्रवृतियों और उनके व्यावसायिक दृष्टिकोण की शुष्कता से बड़ी निराशा उत्पन्न हुई। प्रतिभाओं की उर्वरता किसी स्थान विशेष की अधिकृति नहीं। नगरों, कस्बोंया गाँवों में भी विशुद्ध प्रतिभाएँ जनमती हैं, जिन्हें सिफारिश के अभाव में व्यावसायिक, तथाकथित बड़ी पत्रिकाएँ स्थान न दे पाने का सहज खेद प्रकट कर देती हैं। धारणा-सी बन गई है, बड़ी पत्रिकाएँ बड़े नाम पैदा करती हैं, जो कालान्तर में उनकी लीक पर चलते हुए पूर्णतः व्यावसायिक विचार धारा के हो जाते हैं। परिणाम है, साहित्यिकता बाजार की वस्तु बन गई है।

एत्दर्थ तय हुआ, नगरों, कस्बों, गाँवों, अधिकांशतः स्थानीय प्रतिभासम्पन्न रचनाकारों से व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित कर उनकी रचनाएँ उपलब्ध की जायँ। इस तरह छोटे स्थानों में बसने वाले बुद्धिजीवियों की मन:स्थितियों, कालसंवेगों, विचार प्रबुद्धता आदि का एक सही अध्ययन प्रस्तुत किया जा सकता है। 

निकष नगर बोध की एक छोटी पत्रिका है (यह नगर बोध क्या है?) वर्तमान स्थिति में नगरों का जन जीवन महानगरों की तरह ही निस्संग, स्वयं में अतिशय गत्यात्मक एवं व्यवहार में फॉरमल हो गया है। पाश्चात्य विचारों का शीघ्रातिशीघ्र आयात कर पाने और अत्याधुनिक रचनाओं के सृजेता बनने की सुविधाएं महानगरों के लेखकों को सुलभ हैं। पूर्णतः नहीं तो आंशिक रूप में अवश्य ये सम्भावनाएँ नगरों के साथ भी सम्बद्ध हैं। यह समय और दूरी पर यांत्रिक नियंत्रण का युग है। आज समय और दूरी किसी अवरोध के.... देह नहीं रहे।समसामयिक चिंतन प्रक्रिया के हम सभी समा.... से भागीदार होते हैं और लेखन में किसी विशेष क्राफ्ट.... परम्परा अत्यानुधिकता के क्रम में पहले ही नकार....... किसी भी विधा का लेखन विगत (परम्परा) से हटकर या........ तो उसके साथ रहकर किसी भी ढंग या तौर का रूप ग्रहण कर सकता है। शर्त है बातें आज की हों-----नितांत अद्यतन, भोगी जा रहीं (किस वर्ग या समाज द्वारा?)। चिंतन-प्रक्रिया-प्रकर्ष समसामयिक हों या कुछ अच्छे आंदाज में कहा जाये, संदर्भ वैज्ञानिक, अत्याधुनिक हों। ये शर्तें कहीं भी निभायी जा सकती हैं। अब यह कहना उचित नहीं जँचता कि नगरों की रचनाएँ सेकेंड हैंड होती हैं (कोई प्रमाण है क्या?) ---महानगरों की फर्स्ट हैंड रचनाओं की मात्र अनुकृति।

किन्हीं विशेष परिस्थितियों में निकष का प्रस्तुत अंक नियत तिथि के पाँच महीने बाद आया---इसका दुख है।
डॉ चंद्रभूषण तिवारी, प्रो विजय मोहन सिंह, राजीव सक्सेना के सहयोग--आश्वासन के लिए धन्यवाद।
निकष के लिए रचनाएँ एवं अंक--1की प्रतिक्रियाएँ आमंत्रित हैं।

नवंबर,1968 ---जगदीश नलिन
उपरोक्त संपादकीय पर आप की प्रतिक्रिया आमंत्रित है।
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प्रस्तुति - जीतेंद्र कुमार
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल- editorbiharidhamaka@yahoo.com






 जीतेंद्र कुमार 

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