"जहाँ देहि ना जरि के लह लह मन जरत रहे"
विवाह पूर्व सेक्स संबंध, अवैध गर्भका पात, बलात्कार को झेलती नारी की कथा
इन तीनों ज्वलंत मुद्दों को एक उपन्यास में सफलतापूर्वक गूँथना एक रचनात्मक चुनौती है। इस साहित्यिक चुनौती को स्वीकार किया है बिहिया ,भोजपुर (बिहार) की युवा उपन्यासकार नीतू सुदीप्ति 'नित्या' ने, अपने सद्यः प्रकाशित उपन्यास 'विजय पर्व' में। नीतू ने अभी चालीस वसंत नहीं देखे हैं। शिक्षा उनकी मात्र मैट्रिक तक की है। ऐसी बात भी नहीं है कि जिनके पास लंबी चौड़ी शैक्षिक डिग्रियाँ होती हैं वे रचनाकार भी हो जायें। नीतू बेहद महत्वाकांक्षी हैं लेखन में। हिन्दी में उनके दो कहानी - संग्रह प्रकाशित हैं। अपनी औपन्यासिक अभिव्यक्ति के लिए नीतू ने अपनी मातृभाषा भोजपुरी को चुना। 'विजय पर्व' उपन्यास की प्रस्तुति बेहद रोचक एवं प्रवाहपूर्ण है ; ऐसा कि जिले के कुछ नामवर और पुरस्कृत उपन्यासकारों को ईर्ष्या होगी कि एक कम उम्र की लीन-थीन लड़की जिसके कलेजे में छेद है, उसने प्रवाह, रोचकता, कल्पनाशीलता, शिल्प और यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में उन्हें पीछे छोड़ दिया है।
उपन्यास"विजय पर्व"की कथा वस्तु का संघटन उल्लेखनीय एवं दिलचस्प है। उपन्यास में तीन नायिकाएं हैं। तीनों समउम्र हैं, सहेलियाँ हैं एवं सहपाठी हैं। सँवरी, पमली और बारली। तीनों सहेलियों की अलग - अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि है। सँवरी फुटपाथ पर दुकान लगानेवाले दुकानदार की बेटी है। पमली के पिता शहर के नामी गिरामी होमियोपैथिक चिकित्सक हैं। बारली के पिता बैंक में कैशियर हैं। शहर में उनका तिमंजिला मकान है। यानी तीनों सहेलियाँ तीन सामाजार्थिक स्तर का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक निम्न आय वर्ग की है; दूसरी उच्च मध्यम वर्ग की और तीसरी उच्च वर्ग की है । अपने वर्गीय अनुपात में ही वे पढ़ने लिखने में प्रतिभा रखती हैं। संवरी मैट्रिक तृतीय श्रेणी में पास करती है, पमली द्वितीय श्रेणी में और बारली प्रथम श्रेणी में। उनकी शिक्षा संबंधी प्रतिभा भी प्रतीकात्मक लगती है। लगता है युवा उपन्यासकार कहना चाहती हैं कि हलुवा में जितनी चीनी पड़ेगी उसी अनुपात में हलुवा मीठा या फीका होगा। शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गई है कि जिस अनुपात में अभिभावक शिक्षा पर खर्च करेंगे वैसी बच्चों की उपलब्धि होगी ।
बहरहाल, तीनों सहेलियों की अलग अलग समस्याएँ और कहानियाँ हैं। सँवरी दहेज उत्पीड़न की शिकार है; पमली विवाह पूर्व सेक्स संबंध और गर्भधारण की समस्या से जूझती है; बारली बलात्कार की शिकार हो जाती है। सँवरी के दहेज उत्पीड़न पर समाज मौन और तटस्थ है। एक डॉक्टर (महिला) सँवरी के दुख से मर्माहत होती है और उसके पिता परिवार को खबर देती है। सँवरी के पिता बाद में कानून का सहारा लेते हैं।
पमली कॉलेज में पढ़ते समय माधव नामक लफुआ लड़के के झांसे में आ जाती है। सहेली बारली के सावधान करने पर भी अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पाती और माधव के साथ बिना विवाह बंधन में बँधे शारीरिक संबंध बनाती है और अवैध गर्भधारण करती है। माधव भाग खड़ा होता है।
बारली मैट्रिक की स्टेट टॉपर है। इंटर में भी प्रथम श्रेणी लाती है। लेकिन एक दिन बाजार का एक विवाहित युवक उसके साथ बलात्कार कर देता है।
तीनों सहेलियों की तीन कहानियां हैं। तीनों कहानियों को एक उपन्यास की कथा में गूँथना चुनौती भरा काम है। युवा उपन्यासकार नीतू सफलतापूर्वक तीनों घटनाओं को स्वेटर के तीन रंग के ऊनी धागों की तरह बुन देती हैं। उपन्यास के शिल्प में कहीं जोड़ तोड़ नज़र नहीं आता। पूरी कथा चौदह एपिसोड में समंजित है। प्रत्येक एपिसोड में आवश्यकतानुसार कथाभूमि और पात्र बदल जाते हैं। कथा प्रवाह को बिना बाधित किये। कहीं कोई अश्लील प्रसंग नहीं।
उपन्यासकार भोजपुरी लोकजीवन के मुहावरों से सुपरिचित हैं और उनका सिद्धहस्त प्रयोग भी जानती हैं; जैसे:जब तक जीय तब तक ले सीय; हँसलू त फँसलू आ मुसकइलू त गइलू....। उपन्यास की भाषा स्तरीय है। गद्यका नमूना: "बाबूजी के नीचे ना जमीन रहे आ ना ऊपर आसमान। ऊ त एगो लहरल आगि में खाड़ि रहन जहाँ देहि ना जरि के लह लह मन जरत रहे (पृष्ठ 81)।
विजय पर्व उपन्यास का अंत प्रेमचंदीय आदर्शवादी यथार्थ से होता है। बलात्कार के बाद बारली और उसका परिवार गहरे सदमे में चला जाता है। बारली जैसी तेज तर्रार और दूरदर्शी लड़की बलात्कार के बाद इस प्रकार हिल जाती है कि उसे लगता है कि अब उसके जीवन का कोई अर्थ नहीं रहा। वह आत्महत्या का प्रयास करती है। उसका भाई अवसादग्रस्त होकर ट्रक ऐक्सिडेंट का शिकार हो जाता है। लेकिन भाई की डायरी बारली को जीने का आधार प्रदान करती है। बारली बलात्कार के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़ने के लिए उठ खड़ी होती है। बारली विवाह-संस्था, यौन संबंध, प्रेम, गर्भधारण, पुरुषवादी समाज आदि पर उपन्यास में जबरदस्त विमर्श रचती है। जो उपन्यास को उल्लेखनीय बनाता है। अंत में बारली के विमर्श से प्रभावित होकर विश्वजीत नामक युवक उससे विवाह कर लेता है। बारली को जीवन साथी मिल जाता है। यह प्रेमचंदीय समाधान है बलात्कार का
उल्लेखनीय है कि उपन्यास के अंत में दहेज दानव केसर की आत्मा में भी परिवर्त्तन घटित होता है। लेकिन पुलिस केस होने के बाद दहेज दानवों का होश ठंडा होता है। केसर अपनी पत्नी सँवरी का पैर पकड़कर माफी माँगता है। इसी प्रकार पमली का प्रेमी माधव पिटाई खाने और सामाजिक दबाव के आगे झुक जाता है और पमली की मांग में सिंदूर डाल कर विवाह सूत्र में बँध जाता है। अंततः इस सुखांत उपन्यास को पढ़कर पाठक संतुष्ट ही होता है । भोजपुरी भाषा में इन सामाजिक बुराइयों पर उपन्यास लगभग नहीं है। इसलिए युवा उपन्यासकार नीतू सुदीप्ति का प्रयास सराहनीय एवं प्रशंसनीय है।
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समीक्षक : जितेन्द्र कुमार
समीक्षक का पता- मदनजी का हाता, आरा (बिहार)
समीक्षक का मोबाइल - 9931171611
लेखिका नीतू सुदीप्ति का लिंक- यहाँ क्लिक कीजिए
संदर्भ:
समीक्षक का पता- मदनजी का हाता, आरा (बिहार)
समीक्षक का मोबाइल - 9931171611
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संदर्भ:
विजय पर्व (भोजपुरी उपन्यास)
उपन्यासकार: नीतू सुदीप्ति 'नित्या'
प्रकाशक: जमशेदपुर भोजपुरी साहित्य परिषद्
होल्डिंग नं102,जोन नं11,भोजपुरी पथ
बिरसानगर, जमशेदपुर--831019, झारखंड
मूल्य: 200 रुपये पेपर बैक
पेज :168
समीक्षक - जितेन्द्र कुमार |
समीक्षक जितेंद्र कुमार, वरिष्ठ साहित्यकारों भगवती प्र. द्विवेदी और सत्यनारायण के साथ
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लेखिका - नीतू सुदीप्ति 'नित्या' |
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