Pages

Sunday, 5 August 2018

जनशब्द और हिन्द युग्म के द्वारा विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास "हमन है इश्क मस्ताना" पर सम्वाद और कवि गोष्ठी 4.8.2018 को टेक्नो हेराल्ड, पटना में सम्पन्न

खुद से बच कर निकल गए होते / अपने दिन भी बदल गए होते





आज का समाज ऑनलाइन का समाज है और संस्कृति मोबाइल की संस्कृति है. इस आभासी संस्कृति ने इस कदर हमारे दैनिक जीवन को लील लिया है कि साहित्य को इससे पृथक रखना एक छलावा होगा. प्यार भी ऑनलाइन ही होता है, रिश्ते भी ऑनलाइन बनते हैं लेकिन इससे प्रभावित होने वाला जो दिल होता है न साहब वह बिलकुल ऑफलाइन होता है - बिलकुल वास्ताविक जीवन में सचमुच में धड़कनेवाला दिल. इस आभासी संस्कृति में जो आनंद मिलता है वह तो आभासी रहता है लेकिन जो चोट पहुँचती है वह सचमुच के जीवन को तबाह कर देती है. दुनिया कितनी भी आगे बढ़ जाए प्यार की भूख अब भी आदिम है और हमेशा रहेगी. कुछ इसी तरह के प्यार पर आधारित विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास "हमन हैं इश्क मस्ताना" पर सार्थक और गर्माहट भरी चर्चा का दौर चला और फिर हुई एक विभिन्न स्वरों को एक साथ उठाती हुई वरिष्ठ और युवा की बराबर भागीदारी से संपन्न कवि-गोष्ठी. 

जनशब्द पटना और हिन्द युग्म दिल्ली के द्वारा  विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास "हमन है इश्क मस्ताना" का लोकार्पण और कवि गोष्ठी का आयोजन टेक्नो हेराल्ड, तीसरी मंजिल, महाराजा कामेश्वर सिंह कॉम्प्लेक्स, पटना जं. के समीप दिनांक 4.8.2018 को किया गया. इसमें बड़ी संख्या में वरिष्ठ और युवा कवि-कवयित्रियों ने भाग लिया. लोकार्पण करनेवाले साहित्यकारों में ध्रुव गुप्त, प्रभात सरसिज, जीतेंद्र कुमार, रानी श्रीवास्तव और  शम्भू पी. सिंह शामिल थे. कार्यक्रम के संयोजन में शहंशाह आलम की विशेष भूमिका रही.

पहले सत्र में लोकार्पित पुस्तक "हमन हैं इश्क मस्ताना" पर विमर्श हुआ जिसका सञ्चालन राजकुमार राजन ने किया. उपन्यासकार विमलेश त्रिपाठी ने अपने उपन्यास की रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डाला और उससे जुड़े कुछ सन्दर्भों को उजागर किया.

शम्भू पी सिंह ने उपन्यास में कुछ ठेठ बिहारी शब्दों जैसे- लोर, चिनियाबदाम आदि के प्रयोग पर प्रसन्नता व्यक्त की क्योंकि इससे जाहिर होता है कि बिहारी लोगों की अपनी भी एक शब्दावली है जो अन्य हिन्दीभाषी राज्यों से भी इतर है. उन्होंने बताया कि लेखक ने आज के युग की मित्रता के उस स्वरुप को अपने तानेबाने में इस्तेमाल किया है जिसमे ऑनलाइन सोशल साइट पर मित्रता होती है फिर मिलना जुलना होता है और फिर बात दैहिक सम्बन्ध पर तुरंत आ जाती है. लेखक की नज़रों में बिहारी अगर किसी चीज को पसंद करेगा तो वह किसी भी स्तर तक जा सकता है. इस उपन्यास का अपना एक विशेष लक्षित पाठकवर्ग है जो निस्संदेह युवावर्ग ही है. 

विनय ने कहा कि आज के सामाजिक जीवन का प्रतिनिधित्व सोशल मीडिया और मोबाइल से होता है. मोबाइल ही आज के समय का सबसे बड़ा आविष्कार है.

रानी श्रीवासत्व का वक्तव्य बिलकुल दूसरी ही दिशा में था. उन्होंने लेखक द्वारा अपने उपन्यास को अपनी पत्नी को समर्पित करने को एक बड़े सामाजिक रुख का द्योतक बताया जिसमें सिर्फ पत्नी ही नहीं पति भी उन्ही ही शिद्दत के साथ विवाह संस्था के प्रति अपना समर्पण व्यक्त करने लगा है.

जीतेन्द्र कुमार ने कहा कि उपन्यास की कहानी में कसाव है. साहित्यकार हमेशा से सत्ता और राजनीति से आगे चलता रहा है और वही गुण इसमें भी परिलक्षित होता है.

राजकिशोर राजन ने इस उपन्यास को एक विमर्श के तौर पर देखा. लेखक दरअसल एक कवि है जो संकेतों में अपनी बातों को कहने का आदी है. यह सही है की इस उपन्यास का अपना एक लक्षित पाठकवर्ग है लेकिन वह मात्र युवावर्ग नहीं बल्कि वह वर्ग भी है जो आज के समय को ठीक तरह से जानना चाहते हैं. स्त्री जो आज भी अपने देह के इर्द गिर्द ही अपने व्यक्तित्व का अस्तित्व समझने लगी है उसके अपने ही देह से मुक्ति का गंभीर विमर्श इस उपन्यास में खींचा गया है. दिल्ली वाली शिवांगी उसका एक उदाहरण है. लेखक अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता है किन्तु पत्नी निहायत ही निर्मम स्वभाव की है. हालांकि लेखक को अपनी पत्नी से सच्चा प्रेम है लेकिन वह अन्य स्त्रियों से भी प्रेम करता है.  इश्क को कई-कई ओर से विश्लेषित किया गया है.

दूसरे चरण में कवि गोष्ठी हुई जिसका सञ्चालन रानी श्रीवास्तव और अध्यक्षता श्रीराम तिवारी ने की. कवि गोष्ठी इस लिहाज से ख़ास रही कि इसमें बिलकुल भिन्न विचारधारों और काव्यात्मक स्तरों के रंग बिखरते रहे.

डॉ. रामनाथ शोधार्थी ने प्रेम में जीने-मरने की पोल खोल दी-
ऐसा लगता था कि मर जाऊंगा मैं तेरे बग़ैर और अभी ऐसा है चेहरा भी तेरा याद नहीं

उत्कर्ष आनंद 'भारत' ने अनीति के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया-
युद्ध युद्ध युद्ध है / अनीति के विरुद्ध है
पार्थ भीम संग में / धर्मराज क्रुद्ध है

एक अलग तरह का युद्ध लड़ते हुए कुमार शिवम् ने खौफनाक वक्त पर अपनी जीत दर्ज कराई-
खुदा करे  / तुम्हारी आस
जिसमें मेरे लिए बेपनाह मुहब्बत है
जीत दर्ज कर सके /  इस खौफनाक वक्त पर

राजकिशोर राजन ने इस देश में सदा से गड़ेरियों का राज देखा-
मुझे पता नहीं आप क्या समझते इस देश के भेड़ियाधसान के बारे में
मुझे साफ़-साफ लगता -  यहाँ हमेशा से रहा है गड़ेरियों का राज

डॉ. विजय प्रकाश ने बदले जमाने की तस्वीर खींची-
भेड़ बकरियों ने मिलकर है मारा बब्बर शेर
ज़माना बदल गया है

पंकज प्रियम  ने मानव के जीवन में कुंडली में बंधा पाया-
मैं तो निर्जीव हूँ  / मुझे तुम जबरन हांकते हो / दौडाते हो
मेरी उम्र कुंडली में समाप्त हो गई.

तो हरेन्द्र सिन्हा ने किसी भी दशा में तनहा न होने को कहा-
दोस्तों की दोस्ती गर ना मिले
आप अपने को न तनहा कीजिए

अरविन्द पासवान  अवश्यम्भावी अत्याचार हेतु अपनी बारी का इन्तजार करते दिखे-
हम लाख कविता- कहानी ओढें या बिछाएँ
सच यही है कि / हत्याएँ रोज हो रहीं हैं  / लड़कियाँ रोज  लुट रहीं हैं
आंखों का पानी सूख रहा है / हम अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं

सितमगरों को गुठली की बजाय पूरा जामुन छोड़ देने को कहा शहंशाह आलम ने-
इस गुठली की बजाय / समूचा जामुन छोड़ जाता कोई अगर
मैं जामुन के पेड़ जितनी दुआएँ देता उसको

शम्भू पी. सिंह ने आज के समाज में छोटी सकारात्मक कोशिश करनेवालों पर तरस खाते हुए कहा-
दोष किसी का नहीं है / दोषी अगर है तो यह पौधा ...
....और  रक्षा का दायित्व लिया तो इन समुद्री किनारों का

प्रभात कुमार धवन ने ऐसे समाज में मूक दर्शक बन जाने में अपनी भलाई समझी-
हे आकाश! / मुझे भी बुला ले अपने पास
और मैं भी छा जाऊँ जहाँ पर / मूक दर्शक बन / तुम्हारी ही तरह

चितरंजन भारती  ने मानवता का मूल तत्व पा लिया-
जूतों चप्पलों से / शानो-शौकत से / नहीं आती मानवता
मित्र, इसके लिए तो / प्रेम प्यार की पूँजी चाहिए
और चाहिए / दूसरे के दुःख को अपना लेने की / तीव्र संवेदनशीलता

भावना शेखर  ने सच की चाल का गौर से अध्ययन किया-
झूठ के पुलिंदे में बंधा है सच / घुटा कसमसाता
सच अब आगे नहीं पीछे चलता है
हर सच को तलाश है अपने अपने गांधी की

हेमन्त दास 'हिम' को धर्म पर इस कदर विश्वास हो चला है कि-
बच्चे की भूख मिटाने 'हिम'  ने / काम नहीं तांत्रिक को तलाशा
शांतिपूर्वक जो होगा तबाह / वही है आजकल भला सा

सुधा मिश्र ने आखों में बह रहे नीर से नदी बना डाली-
गुजरे हुए कल की अपनी कहानी है
इन आँखों में नदिया पुरानी है

राजमणि मिश्र ने आँसू और दुःख की भाषा निर्धारित की-
आँसू तेरे हों कि आँसू मेरे हों / आँसुओं की भाषा एक है
दुःख तेरा हो की दुख मेरा हो / दुःख की परिभाषा एक है

नसीम अख्तर डरे हुए हैं की सर सलामत कैसे रहे पत्थरों से-
हाथ में सभी के जब पत्थर रहे
तो किस तरह सलामत कोई सर रहे

गणेश जी बाग़ी ने आज के जमाने की रीत बता दी-
रीति जहाँ की देख कर / मन चंचल मुख मौन
अभिप्राय जो पूर्ण हुआ / पूछे तुम हो कौन

अमीर हमजा ने दहेजलोलुपों को बकरा बना दिया तो कोई बात नहीं उन्होंने लुगाई को कसाई कैसे बना दिया. उनकी निडरता की दाद देनी होगी-
लड़का अगर आपको हाई फाई चाहिए / मेरे बेटे को भी सुन्दर लुगाई चाहिए
बिना दहेज़ हम शादी कर नहीं सकते / बकरा तैयार है एक कसाई चाहिए

विभूति कुमार ने खबर से खतरे को टाल दिया-
खबर है चल चुके हैं पहुंचेंगे भी सारे हमसफ़र
मेरे सर से सारे खतरे टलने तो दीजिये

एम. के. मधु, प्रेयसी  से प्रेम करने को किताब पर जिल्द चढ़ाना शुरू कर दिया-
तुम शब्द शब्द फ़ैल गई हो मेरे पन्नों पर
तुम्हें सहेजने चढ़ाता रहा जिल्द किताब पर

संजय कुमार कुंदन ने सुन्दर ग़ज़ल पढ़ी-
इस ज़रा सा में बहुत दिलचस्पी

ध्रुव गुप्त ने आपनी अपने दिन को बदलने का नुस्खा खोज लिया-
खुद से बच कर निकल गए होते / अपने दिन भी बदल गए होते
हम भी आवारगी में बच निकले / दुनियादारी में सड़ गए होते

विमलेश त्रिपाठी जुल्फों के आर-पार होते रहे-
तेरी जुल्फों के आर पार कहाँ / एक दिल अजनबी सा रहता है
डूबकर जिसमें फ़ना सा होना था / वो दरिया मुझमें तश्नगी सा रहता है

श्वेता शेखर  काँटों से बचने के चक्कर में और उलझती चली गईं-
कोई काँटा जो चुभता रहता है बेतहाशा / जिसे निकालने की जद्दोजहद में
कई और काँटों से उलझकर / रह जाते हैं हम

कवि घनश्याम ने अपनी आग सुलगाई रखी-
तेरा किरदार जो होता सियासी / तेरे वादे पे हैरानी न होती
तुम्हारे हौसले ठंढे न होते /  तो फिर आग सुलगानी न होती

जीतेंद्र कुमार अकाल में लड़कर धान रोपने आते हैं-
मैं धान रोपने खेत में खड़ा हूँ
महीना दिन अकाल से लड़ा हूँ

मधुरेश नारायण ने खुशियों की बहार ले आये-
रहता है कोई अपना / उसकी खबर ले आये
जीवन में ला के भर दे /  खुशियों की बहार

सजीव श्रीवास्तव छूने के मुद्दे पर गूढता के साथ विचार कर डाला-
जरूरी नहीं छूने के लिए / जिस्मों का करीब होना
.....बनी रहती है तमाम जगहें / तब भी छूने के लिए

कुंदन आनंद ने अपनी मुश्किलों पर ही कहर बरपा दिया-
मुश्किलों ने कभी हम पे ढाया कहर
मुश्किलों पे कहर हम भी ढाएँ कभी

सिद्धेश्वर प्रसाद ने जीते जी नहीं मरने का प्रण लिया-
जिंदगी तू घबराती क्यूँ है?
जीने के पहले मर जाती क्यूँ है?

रानी श्रीवास्तव ने लड़की होने के अभिशाप को कुछ इस तरह से बयाँ किया-
मैं कैसे जानूँ / मैं कैसे मानूँ
लड़की होना / मांस का लोथड़ा  होना है

प्रभात सरसिज ने रूप बदलने वालों  को एक दूसरे को तमगे पहनाते देख लिया-
दृश्य से अन्दर हैं केवल / रुपंकर कलाओं के सृजनहार
जो एक दूसरे को तमगे पहना रहे हैं
अंत में कार्यक्रम का अध्यक्ष को मंच पर आने का आग्रह किया गया.

अध्यक्ष श्रीराम तिवारी ने आज के कार्यक्रम पर  अपनी संक्षिप्त टिप्पणी दी और अपनी कविता के माध्यम से  मेघों सा लदकर आनेवाले की प्रतीक्षा करने लगे-.
 मेघों सा लदकर आएँगे / जड़ में जानेवाले
पैदल आएँगे / समय सार लिखनेवाले
अंत में राजकुमार राजन ने सभी साहित्यकारों को धन्यवाद ज्ञापित किया और अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की g
........
आलेख-  हेमन्त दास 'हिम' / उत्कर्ष आनन्द 'भारत'
छायाकार- बिनय कुमार
........
नोट- इस रिपोर्ट में छुटी हुई सामग्री को जोड़ने या सुधार करने अथवा इसपर अपने विधार देने हेतु पोस्ट पर टिपण्णी करें अथवा editorbiharidhamaka@yahoo.com पर ईमेल भेजें. 































































































No comments:

Post a Comment

अपने कमेंट को यहाँ नहीं देकर इस पेज के ऊपर में दिये गए Comment Box के लिंक को खोलकर दीजिए. उसे यहाँ जोड़ दिया जाएगा. ब्लॉग के वेब/ डेस्कटॉप वर्शन में सबसे नीचे दिये गए Contact Form के द्वारा भी दे सकते हैं.

Note: only a member of this blog may post a comment.