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Sunday, 8 July 2018

दूसरा शनिवार समूह द्वारा प्रशान्त विप्लवी का एकल काव्य पाठ 7.7.2018 को पटना में सम्पन्न

नदी के मध्य अब नदी नहीं है
प्रशान्त विप्लवी की कुछ पूरी कविताओं के साथ पढिए रिपोर्ट



पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दूसरा शनिवार की गोष्ठी में 7 जुलाई शनिवार शाम 4 बजे पटना कला एवं शिल्प महाविद्यालय के प्रांगण में प्रारम्भ हुई। प्रशांत विप्लवी अपनी कविताओं के साथ तैयार थे और उन्हें सुनने प्रभात सरसिज, अरुण नारायण, अनिल विभाकर, सत्यम कुमार, अभिजीत सेनगुप्ता, शशांक मुकुट शेखर, अस्मुरारी नन्दन मिश्र, सूरज ठाकुर ‘बिहारी’, समीर परिमल, संजय कुमार ‘कुंदन’, डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा, कृष्ण समिद्ध, हेमंत दास ‘हिम’, प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा, राजेश कमल, श्याम किशोर प्रसाद, आदित्य कमल, अक्स समस्तीपुरी एवं नरेन्द्र कुमार उपस्थित हुए। संचालन प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा के जिम्मे था।
प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा ने प्रशांत विप्लवी को आमंत्रित करते हुए कहा कि वे पाठ के पहले अपनी रचना-प्रक्रिया से हम सबको अवगत करायें। कवि का कहना था कि जो चीजें सबके सामने से गुजरती हैं, उनकी चर्चा तो सभी करते हैं, लेकिन जो दृश्य या घटनाएं छूट जाती हैं… उपेक्षित रह जाती हैं, उनपर मैं सोचता हूँ और कविता में दर्ज कर पाता हूँ। उसके बाद उन्होंने पाठ की शुरूआत ‘नदी’ शीर्षक कविता से की, जो उनकी पढ़ी गयी कविताओं में सबसे अधिक सराही गयी। एक अंश देखिए –
“ नदी के मध्य हैं असंख्य रसूखदार लोग
नदी के मध्य हैं डम्पर, ट्रक, ट्रैक्टर और भाड़े के भूखे गरीब लोग
नदी के मध्य हैं असंख्य लटकते हुए पुल
नदी के मध्य हैं असंख्य सरकारी योजनाएँ
नदी के मध्य अब नदी नहीं है… ”

इसके बाद जो कविताओं का सिलसिला प्रारंभ हुआ तो वहाँ उपस्थित लोगों के बीच भावों की आवाजाही हो रही थी। कुछ कविताओं के शीर्षक थे, तो कुछ को कवि ने शीर्षकविहीन भी रख छोड़ा था। शीर्षक वाली कविताएँ थीं - ‘उस शहर की अंतिम कब्र’, ‘लिजलिजा जहर’, ‘बकवास है प्रेम’, ‘रातें गहरी रातें’ और कवि को सार्थकता प्रदान करती एक महत्वपूर्ण रचना ‘बैंक की पुरानी पासबुक’। कुछ और कविताओं की पंक्तियां आपके लिए –
“ जाने दो कविता को 
उसकी ही गति में
जैसे कोई बच्चा विदा किया हो
अभी-अभी कागज की कश्ती नदी में ”

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“ निकासी किसी पर्व का उल्लास रहा होगा
निकासी बहन की कोई मंहगी सौगात रही होगी
निकासी माँ की दवाई रही होगी
निकासी भैया के कॉलेज की फ़ीस रही होगी
निकासी मेले से ली हुई मेरे जिद्द का कोई खिलौना रहा होगा
निकासी पिता की मज़बूरी रही होगी
निकासी हमारी ख़ुशी रही होगी ”

अब कविताओं पर कुछ बातें करनी थीं। उनकी कविताओं पर बात करते हुए अस्मुरारी नन्दन मिश्र ने कहा कि उनकी कविता ‘देश खुशहाल’ सुनते हुए लगता है कि सबकुछ अच्छा है, पर कविता में स्पष्ट पता चलता है कि कोई खुशहाल नहीं है। इसी तरह ‘बकवास है प्रेम’ की भाषा से पता चलता है कि प्रेम बकवास नहीं है। कविताओं की भाषा में व्यंग्य है। जहाँ नदी, खेत है, वहीं वे खत्म हो रहे हैं। कवि की कविताओं में वह है जो छूट जाता है। जो बार-बार आता है, वही नहीं है।


सत्यम ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि प्रशांत विप्लवी की कविताएं खुद के अनुभव से बनी कविताएं हैं, केवल कल्पनाओं पर आधारित नहीं हैं। ये स्वतः लोगों से जुड़ जाती हैं। समीर परिमल ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि कवि की रचनाओं में अनुभूतियां सघन रूप में आयी हैं।


अरुण नारायण ने कविताओं पर बात करते हुए कहा कि ये आम मध्यवर्गीय जीवन से जुड़ी हैं। उनके जीवन के संत्रास को व्यक्त करती हैं तथा मनुष्यता का पर्याय बन पड़ी हैं। ‘इस शहर की अंतिम कब्र’ और बनारस से जुड़ी कविताओं में आम से अलग शिल्प है। संजय कुमार कुंदन ने पढ़ी कविताओं पर कहा कि ‘रातें गहरी रातें’ में अपने अंदर की यात्रा है। इनमें बेचैनी है।


कृष्ण समिद्ध का कहना था कि कविताओं में दो तरह से प्रवेश किया जाता है। एक तो शब्दों के माध्यम से और जीवन-अनुभव को साधकर। कवि को सुनते हुए लगता है कि वे ईमानदार कवि हैं। हरेक आदमी रचनाओं में सबकुछ अनुभव करे, जरूरी नहीं। ‘बैंक की पुरानी पासबुक’ काफी पसंद आयी। वहीं उनकी कविता ‘गुलबिया’ बेहतर है, ‘लिजलिजा जहर’ से उतना कनेक्ट नहीं हो पाया।


अनिल विभाकर ने कहा कि कविताओं में ताजगी है। नदी कविता में नदी का मरना स्पष्ट रूप से आया है। ये संभावनाओं के कवि हैं। डॉ बी. एन. विश्वकर्मा ने बात आगे ले जाते हुए कहा कि कवि यथार्थ को अक्षरशः सहज रूप में रख देते हैं।


राजेश कमल ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि जब आप लिखते हैं तो वह सबकी हो जाती है, तो रचनाकर्म के प्रति गंभीरता तो होनी चाहिए। इनकी कविताएं सिंगल नोट हैं। प्रसव पीड़ा के सुख के बाद उससे आगे नहीं जाना चाहते हैं, जिसे कवि ने भी स्वीकार किया। 


अंत में प्रतिक्रिया देते हुए प्रभात सरसिज ने कहा कि कवि होना साधारण काम नहीं है। समाज में रचना की उपादेयता हो, इस पर सोचने की जरूरत है। ‘नदी’ कविता में नदी अपनी अस्मिता खोती है। रचना-प्रक्रिया पर बातें करते हुए विमर्श होना चाहिए, केवल कविता सुनना नहीं।


दूसरा शनिवार की अगली गोष्टी में कवि आदित्य कमल के एकल पाठ की घोषणा हुई। अंत में नरेन्द्र कुमार द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया। उपस्थित-अनुपस्थित सभी मित्रों की टिप्पणियों का स्वागत है।
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आलेख- नरेंद्र कुमार
लेखक का ईमेल- narendrapatna%40gmail.com
लेखक का लिंक- https://aksharchhaya.blogspot.com/
आप अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट पर कमेंट के माध्यम से अथवा editorbiharidhamaka@yahoo.com को ईमेल के द्वारा भी भेज सकते हैं
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नीचे प्रस्तुत है प्रशान्त विप्लवी की कुछ कविताएँ -

  बैंक की पुरानी पासबुक

वो बैंक की कोई पुरानी पास-बुक थी
आवरण पर पिता का नाम
 गाँव का पता
 और पिता को चिन्हित करने के लिए अंकित कोई विषम संख्या
 लम्बे अरसे से माँ की पोटली में बंधी
 कुछ मुड़ा-तुड़ा-सा पास-बुक
 इनदिनों मेरे बेटे के हाथ लग गया है
 नगण्य राशि लिए ये खाता
 जिनमें उपार्जन की असमर्थता साफ़ झलक रही
 जमा से ज्यादा टुकड़ो में निकासी हुई
 बेटे का कौतुहल
 अंकित नीले और लाल रंगों में है
 मेरी नज़र बची राशि पर टिकी है
 और अंतिम तारीख पर भी
 उनकी बेचैनी इन्ही दिनों बढ़ गई थी शायद
 एक द्वंद्व निकासी और खाते के खात्मे के बीच का था
 जो अनिर्णीत रहा होगा मंहगाई के कारण
 कोरे पन्नों पर
 बेटे ने आंक दिए हैं कुछ बेचैन मानवीय आकृति
 रंगों की ढेर से चुना है उसने
 सिर्फ और सिर्फ नीला रंग
 आसमान की असीमित गहराई से
 उभर आती है पिता की कोई तस्वीर
 पेन्सिल की तीक्ष्ण रेखाओं का सहारा लिए
 हमारी इच्छाओं से बढ़कर
 उनका भविष्य नहीं रहा होगा
 निकासी किसी पर्व का उल्लास रहा होगा
 निकासी बहन की कोई मंहगी सौगात रही होगी
 निकासी माँ की दवाई रही होगी
 निकासी भैया के कॉलेज की फ़ीस रही होगी
 निकासी मेले से ली हुई मेरे जिद्द का कोई खिलौना रहा होगा
 निकासी पिता की मज़बूरी रही होगी
 निकासी हमारी ख़ुशी रही होगी
 पास-बुक का लेन-देन
 मेरे पिता का जीवन रहा होगा
 जहाँ दर्ज था हमसे जुडी उनका अंकित संघर्ष.
 (-प्रशान्त विप्लवी)

एक नदी तक पहुंचना चाहता हूँ ..

रेत फिर गीली रेत
फिर छिछला पानी
फिर एक दुर्बल जलधारा
नदी का अंत
छिछला पानी फिर रेत ही रेत

कभी गहरी नदी का मध्य भी होता था
जब नदी अपनी इच्छाएँ मांगती होगी
नदी अपने मध्य में रहती होगी

हम नदी के शुरुआत में खड़े हैं
और नदी अपनी अंत की ओर गतिशील है

नदी के मध्य है असंख्य रसूखदार लोग
नदी के मध्य हैं डम्पर , ट्रक , ट्रेक्टर और भाड़े के भूखे गरीब लोग
नदी के मध्य हैं असंख्य लटकते हुए पुल
नदी के मध्य हैं असंख्य सरकारी योजनाएँ

नदी के मध्य अब नदी नहीं है
नदी के मध्य उस नदी का नाम है
नदी के मध्य है नदी का एक इतिहास

पुल पार करता बुजुर्ग सुनाता है
यहाँ एक नदी बहा करती थी
और किसी को उस बुजुर्ग की बातों पर विश्वास नहीं है
 (-प्रशान्त विप्लवी)

  
शब्दों को रखो ऐसे ..

जैसे तुलसी-चौरे पर रखती थी दादी
कांपते हाथों से संभालकर
एक टिमटिमाता हुआ दीया

पंक्तियों को बन जाने दो खुद-ब-खुद
जैसे छोटी लड़कियां
खेल-खेल में बाँध लेती है
अपना-अपना हाथ

संवेदना के ज्वर में तपने दो अभिव्यक्ति
जैसे देर तक सेंकती है कोई माँ
मक्के की रोटी दोनों ही पीठ

जाने दो कविता को
उसको उसकी ही गति में
जैसे कोई बच्चा विदा किया हो
अभी-अभी कागज की कश्ती नदी में ...
 (-प्रशान्त विप्लवी)
कवि प्रशान्त विप्लवी का लिंक- https://www.facebook.com/pra5hantkumar?lst=100009393534904%3A100000348302204%3A1531070312













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