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Monday, 19 February 2018

दूसरा शनिवार समूह की साहित्यिक गोष्ठी पटना में 17.2.2018 को संपन्न

फूल खिलते हैं तो भौरों को खबर होती है 
प्रेम की सफलता के लिए मिलन होना जरूरी नहीं 



प्रेम एक सार्वभौमिक सच्चाई है जो मानवीय अस्तित्व की सबसे मूलभूत आवश्यकता है. पटना के प्रसिद्ध साहित्यिक समूह दूसरा शनिवार द्वारा 17.2.2018 को एक साहित्यिक गोष्ठी को पुनः गांधी मैदान पटना में आयोजित की गई जिसमे तीस से अधिक नए और पुराने रचनाकारों ने भाग लिया. पहले सत्र में प्रेम में साहित्य और साहित्य में प्रेम विषय पर परिचर्चा का आयोजन हुआ और दूसरे सत्र में सभी रचनाकारों ने अपनी अपनी रचनाएँ पढ़ीं. 

पहले सत्र में प्रकट किये गए विचार कुछ यूँ थे- 

प्रभात सरसिज ने प्रयोगवाद और भौतिकवाद के साहित्य पर प्रभाव की चर्चा की जिसका असर प्रेम की अभिव्यक्ति पर भी पड़ा. प्रेम विस्तारित होता है. सच्चा प्रेम संकुचित हो ही नहीं सकता. परन्तु यह भी सत्य है कि द्वंदात्मक भौतिकवाद से प्रेम अछूता नहीं है. यह गौरतलब है कि युग का निर्धारण काव्य की प्रगति से होता रहा है. गद्यलेखको की तुलना में कवियों की संख्या ज्यादा है. काव्य ही प्रेम कि अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रहा है. 

अरुण नारायण ने कहा कि साहित्य में प्रेम की परंपरा भक्तिकाल से आधुनिक काल तक रही है। भक्तिकाल में संत परंपरा है तो रीतिकाल में सामंतवाद के चरम पर प्रेम का स्वरूप थोड़ा बदला। नवजागरण के समय देश-प्रेम के रूप में प्रेम साहित्य में अभिव्यक्त हुई।

रामदेव सिंह, जिनका उपन्यास 'टिकट प्लीज' हाल ही में प्रकाशित हुआ है ने प्रेम विषयक गोष्ठी आयोजित करने के लिए दूसरा शनिवार को बधाई दी और कहा कि 1974 की नुक्कड़ काव्य गोष्ठी की तर्ज पर खुले मैदान में कविता को उतारनेवाला यह समूह प्रेम को भी उतना ही महत्व देता है जितना कि संघर्ष को यह जानकर ख़ुशी हुई. प्रेम की कहानियाँ और कवितायेँ कम लिखीं जा रहीं हैं. इस विषय को बाहर लाना भी प्रेम ही कहा जाएगा.

अवधेश प्रीत ने कहै कि प्रेम मैंने किया है लिखा नहीं है. प्रेम का सामान्य अर्थ है स्त्री-पुरुष का प्रेम, देह और देह का प्रेम. वही प्रेम अक्सर अमर हो जाता है जो कभी मिलन की स्थिति तक नहीं पहुँच पाता. प्रेम का एक विशिष्ट पहचान है इसका आदर्श. यह आदर्श बिलकुल यूटोपिया के स्तर तक हो सकता है. रीतिकाल में सब कुछ बुरा नहीं था. उस समय के साहित्य में बहुत कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ रची गईं. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती), मुझे चाँद चाहिए (सुरेन्द्र वर्मा) आदि प्रेम के अनूठे स्वरुप को उजागर करनेवाले उपन्यास हैं. प्रेम के साहित्य में अन्दाजे-बयाँ बहुत मायने रखता है. नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा और अशोक बाजपेयी को नई कविता/ कहानी का प्रतिनिधि रचनाकार कहा है और आश्चर्य की बात है कि दोनों ने संघर्ष पर कम लिखा है प्रेम पर अधिक.

शिवनारायण ने कहा कि प्रेम केवल आनंद नहीं संताप भी है. प्रेम का मिल जाना ही सफलता नहीं है. नहीं मिलना भी उतना ही सफल माना जाता है. प्रेम में वियोग को ज्यादा तवज्जो दिया जाता है. मनुष्य की आत्मा के सौंदर्य की ऊर्जा है प्रेम.  जिनके मन में प्रेम नहीं होता वे दूसरों को भी प्रेम नहीं करने देते.

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा कि प्रेम की चर्चा शहद है प्रेम तीखा जहर है.

हेमन्त दास 'हिम' का विचार था कि साहित्य में प्रेम का होना आवश्यक  है लेकिन प्रेम में साहित्य का होना जरूरी नहीं प्रेम करुणा का ही एक रूप है. प्रेम में स्त्री-पुरुष का प्रेम सबसे ज्यादा प्रबल होता है जो विविध कलाओं को जन्म देता है.

समीर परिमल ने कहा कि प्रेम की परिभाषा ही संभव नहीं है। जिसने किया उसने कहा नहीं। यह मानवता का चरमोत्कर्ष है।

मधुरेश नारायण ने कहा कि साहित्य में प्रेम और प्रेम में साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. साहित्य रचना का प्रादुर्भाव प्रेम को आधार बना कर ही की गई होगी. सगुण और निर्गुण दोनों प्रेम के ही रूप हैं. 

समता राय ने कहा कि साहित्य में प्रेम जरूरी होता है. स्त्री-पुरुष प्रेम के अनेक सकारात्मक पहलू भी हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जौहर का सामना भी एक तरह का प्रेम ही था. 

संजीव कुमार ने प्रेम के विषय पर एक कहानी सुनाई जिसमें एक प्रेमिका प्रेमी को ठुकरा कर दूसरे से प्रेम करने लगती है.

अमीर हमजा ने कहा कि मनुष्य प्रेम के बिना जीवित नहीं रह सकता. सभी लोग किसी न किसी रूप में प्रेम करते ही हैं. 

चंद्रभूषण चन्द्र ने एक फिल्म की कहानी पर प्रकाश डाला जिसमें एक पत्नी इसलिए अपने पति की हत्या करवा देती है क्योंकि उसे पता चलता है कि उसके पति ने ही उसके पूर्व प्रेमी की हत्या करवाई थी. 

एक अन्य प्रतिभागी ने कहा कि हर भौगोलिक क्षेत्र में प्रेम का स्वरुप अलग-अलग है. 

अस्मुरारी नंदन मिश्र ने कहा कि प्रेम निरर्थकता को सार्थकता प्रदान करता है।

राजेश कमल ने कहा कि प्रेम पर लिखा जाना एक सुखद स्थिति होगी. पर वैसी स्थिति आये तो सही.

राजेश चौधरी ने कहा कि बाल्मीकि के साहित्य में जीवन की हर दृष्टि एवं फलक को उदात्त ढंग से वर्णन किया गया है।

एक महिला प्रतिभागी ने कहा कि आज के समय में प्रेम करने की जगह तक नहीं है. हर जगह पहरा है और निषेध है. सामाजिक वेबसाइट्स पर प्रेम करनेवालों के जो छायाचित्र लगाए जा रहे हैं वे भयावह हैं.

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दूसरे सत्र में पढ़ी गई रचनाओं की झलक नीचे प्रस्तुत है-

तुम क्या मिले हर पल मेरा रसरंग हो गया / देखो सनम मौसम हसी बसंत हो गया
जादूगरी ऋतुराज की कमाल देखिये / कोई sहकुंतला कोई दुष्यंत हो गया 
(हरेन्द्र सिन्हा)
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तमाम शय में वो अक्सर दिखाई देता है / बड़ा हसीन ये मंज़र दिखाई देता है
तुम्हारे हाथ की इन बेजुबान लकीरों में / हमें हमारा मुकद्दर दिखाई देता है
(समीर परिमल)
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दिल के दरिया में मुहब्बत की लहर होती है / जब कभी आपको आने की खबर होती है
चीज होती है गज़ब की प्यार की खुशबू / फूल खिलते हैं तो भौरों को खबर होती है 
(घनश्याम)
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अलकों का पलकों से मिलना / पीन पयोधर का खिल जाना 
कस कसक मसक मन हो आना / क्या दिल ने दिल को है जाना
सबने देखा / पीर प्रेम का / तीर प्रेम का किसने छाना!
(शिव नारायण) 
....
सच है अपनी हरकतों से हम संभल नहीं सकते / पर ऐसा भी नहीं कि आप बच कर निकल नहीं सकते 
सबेरा होते ही भूल जाता हूँ रात का ये सबक / कुछ भी कर लो, मगर पत्थर पिघल नहीं सकते 
(हेमन्त दास 'हिम')
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1. मौसमे इश्क ऐसा मौसम है / जितनी भी तारीफ़ कीजिए कम है
2. क़त्ल नजरों से जब नहीं होता / मार डाले है बददुआ देकर 
3. प्रेम ही कृष्ण के अधरों से सजी बंशी है / प्रेम आकाश कभी उड़ता हुआ पंछी है
प्रेम एक मंत्र है ऋषियों की अमर वाणी है / प्रेम आकार निराकार है कल्याणी है
(-डॉ. रामनाथ शोधार्थी)
...
देह- / गुलमोहर और अमलतास / देह- / स्पर्श का सुखद एहसास 
मेरा उसका निर्मल विश्वास 
( एम.के.मधु ) 
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मन तुम्हारा हो गया तो हो गया 
(विद्या वैभव भारद्वाज)
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प्यार बिना मानवता की धरा हो गई है बंजर
प्यार के बोल बोलते नहीं हर बात पे निकालते है ख़ंजर
हरी-भरी हो बाँझ धरा प्यार का हो इतना करम

(मधुरेश नारायण)
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प्रियतम को बुलावा भेजो / हो न जाए कहीं छलावा देखो
मनमोहक वासंती पहनावा  देखो / बन्धु, वसन्त आया, वसन्त आया.....
(डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा)
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1. हम किसी से न बैर कर पाए / प्रेम का रोग खानदानी है 
2. अब यहाँ कुछ भी नहीं बाक़ी रहा / सब तेरा है क्या रहा मेरे लिए
जो लगा मुझको सही मैंने किया / आइये अब अपनी बाजी खेलिए 
(सूरज सिंह बिहारी)
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वसन्त की मधुर प्रणय वेला में / तेरी ज़ुल्फ़ घनेरी का वो मंज़र 
वसन्त का ये सुहाना मौसम / रंग बिरंगों में लिपटा उपवन 
(पंकज प्रियं)
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दोनों सत्रों के समापन के पश्चात नरेन्द्र कुमार ने धन्यवाद ज्ञापन कर कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा की. इस साहित्यिक गोष्ठी में एम. के मधु, अस्स्मुरारी नंदन मिश्र, विभा रानी श्रीवास्तव, ओसामा खान, अरुण नारायण, रंजन धीमल, राजेश चौधरी, अक्स समस्तीपुरी, अरुण नारायण, गुड्डू कुमार सिंह,  शशि भूषन कुमार, गोबिंद कामत, शांडिल्य सौरभ ने भी भाग लिया. 

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आलेख - हेमन्त दास 'हिम' / नरेन्द्र कुमार
छायाचित्र - डॉ. रामनाथ शोधार्थी / प्रत्युष चन्द्र मिश्र
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