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Sunday, 12 November 2017

(भाग-1) 'दूसरा शनिवार' की कवि-गोष्ठी में डॉ.रामनाथ शोधार्थी का काव्य पाठ पटना में 11.11.2017 को सम्पन्न

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इश्क़  दरअस्ल  कुछ नहीं  होता / इश्क़ दरअस्ल है तो सब कुछ है
दूसरा शनिवार - 11.11.2017 (भाग-1) 




बड़ा  मैं  जैसे-जैसे  हो  रहा हूं
मेरे अंदर का भारत घट रहा है

डॉ. रामनाथ शोधार्थी के द्वारा पढ़ा गया यह छोटा सा शेर विकृतिपूर्ण और घोर असमतावादी प्रगति को अपना ध्येय समझनेवाले आज के आदमी पर कठोर प्रहार है. 11.11.2017 को  'दूसरा शनिवार' संस्था द्वारा पटना के गाँधी मैदान में उनका और कुमार पंकजेश का काव्य पाठ हुआ जिसे बड़ी संख्या में उपस्थित श्रोताओं ने एकाग्रचित्तता से सुना और स्तब्ध होते रहे. ये दोनो शायर आज के अत्यंत सम्भावनाशील शायर हैं और उनमें सघन संवेदना और सबल संदेश का सुखद संयोग देखने को मिलता है.

रामनाथ शोधार्थी की गज़लों का शिल्प अभूतपूर्व है, बिम्ब-निर्माण में भी वो ऐसे प्रयोग करते हैं जो आज तक नहीं देखा गया और शब्द-संवाद बिल्कुल आम जिंदगी से जुड़े होते हैं. उनके शेर बिना चीख-चिल्लाहट के सब को स्तब्ध कर देते हैं.  रोमांस करते वक्त उनकी तबीयत नमकीन सी हो जाती है और फिर वे मुहब्बत को ही इबादत मानकर सिर्फ मुहब्बत करते हैं कुछ और नहीं. वहीं आदमी में घट रही इन्सानियत, समाज और राजनीति में सर्वत्र विराजमान भावशून्यता युक्त दंभ को काट डालनेवाली धार के साथ वार भी करते हैं. अंधेरो के नुमाइंदे उनसे न मिलें तो अच्छा अन्यथा वे उजाले में डुबाकर छोड़ दिए जाएंगे. सर्वत्र विराजमान भ्रष्टाचार का कीचड़ उन्हें ऐसे दिखता है कि कहीं साफ़ पानी मिलता ही नहीं और कीचड़ से ही कीचड़ को धोने की कोशिश में लोग लगे हैं.  


अँधेरे    का   नुमाइन्द:   नहीं हूं
उजाले  मैं  तेरा  चमचा  नहीं हूं

हरा तो  हूं मगर  कच्चा नहीं  हूं
अलग है  बात के  मीठा नहीं हूं

बुलंदी   कम  नहीं  मेरे लिए यह
तेरी  घुड़दौड़ का  हिस्स: नहीं हूं

मैं आदम हूं ख़ुदा का दस्तख़त हूं
सियासी  खेल का   प्याद: नहीं हूं

अरे   इब्ने-अदब   दस्तार  हूं  मैं
तुम्हारे  पांव  का  जूता   नहीं  हूं

मेरा लह्ज: बुरा है पर करूं  क्या
ज़बाँ   है   और  मैं  गूंगा नहीं  हूं
.......

दर्द क्यूं  बांटता फिरूं सबसे
मैं  हूं  बीमार, बेवुक़ूफ़  नहीं

मुहब्बत   शोर  है  तो  शोर  मत  कर
इबादत है तो फिर, कुछ और मत कर

मेरे दिल से मिलाओ अपनी घड़ी
इन दिनों  देर   से  तुम  आती  हो

चाय है गर्म बस तुम आ जाओ
आज  नमकीन  सी तबीअत है

इश्क़  दरअस्ल  कुछ नहीं  होता
इश्क़ दरअस्ल है तो सब कुछ है

वक़्त पल-पल जहां बदलता हो
कम   नहीं  आदमी  बने   रहना

भरोसा उठ गया है अब  सभी  से
ख़ुद अपना हाथ थामे चल रहा हूं

यूं   दबे   पांव   कौन  आता   है
दिल में आने की भी तमीज़ नहीं

मुल्क पर सबकी हिस्सेदारी है
कुछ  मुझे भी ख़राब करने दो

मैंने काग़ज़ पे लिख दिया था दरख़्त
सब    परिंदे   उतर   के    बैठ    गये

ज़िंदगी  खेल  है  कबड्डी का
सांस टूटी तो मर गए समझो

जाइए पहले 'आदमी' बनिए
मूंछ पर ताव दीजिएगा फिर

मैपरस्तो  ने  कर  दिया  साबित
घर की दहलीज़ लड़खड़ाती  है

अंधेरों  का  नुमाइंद: बनोगे ?
उजाले में डुबाकर छोड़ दूंगा

शाख़े ग़ज़ल पे क़ब्ज़: है तीतर बटेर का
कह  दो  कबूतरों  से करें इंतिज़ार  और

मयस्सर है कहां अब साफ़ पानी
सभी कीचड़ से कीचड़ धो रहे हैं

आइए और खेलिए मुझसे
मैं खिलौना हूं बोलनेवाला

नोटों की गड्डियां हों अगर दाद की जगह
मुजरा  नहीं  करे तो कोई  और क्या करे

'उजाले में फ़क़त शोअरा मिलेंगे
अंधेरे  में अभी  तक  शाइरी  है

बदल डालो निज़ामत को वगरन: ख़ुद बदल जाओ
निज़ामे-सल्तनत  पर  बौखलाने  भर से क्या होगा

मुबारक   हो   तुझे   तेरी   बुलंदी
जहां  पर हूं  वहीँ  पर  ठीक हूं मैं

मुसल्सल हर क़दम पर बेबसी है
इसी का  नाम  शायद ज़िन्दगी है

मेरी अज़मत बलंद करते हैं
जो  मुझे  नापसंद  करते हैं

जितनी चीज़ें यहां अधूरी हैं
ख़ूबसूरत  हैं  और  पूरी  हैं

गुमां मत कर कि है  तेरी बदौलत रौनक़े-महफ़िल
ग़ज़लवालो  यहां  हम  हैं  तो  ये बाज़ार चलता है

आदमीयत के सिवा जिसका अलग मज़्हब हो
शख़्स कुछ और तो हो सकता है फ़नकार नहीं

बुरे जो लोग हैं सचमुच मुझे अच्छे नहीं लगते
जो अच्छे हैं न जाने क्यूँ मुझे सच्चे नहीं लगते
....

क़र्ज़  इतना है  अंधेरों का  हमारे  सर पर
हम अंधेरों को अंधेरा भी नहीं कह सकते

कुछ हैं ऐसे जो हथेली पे नचाकर लट्टू
सोचते रहते हैं दुनिया ही हथेली पर है

'ग़ालिब' तेरी ज़मीन मुबारक तुझी  को हो
मैं अपनी फ़स्ल अपनी ज़मीं पर उगाऊंगा

मुझे ये लगता है इंसान जिससे बनता था
पुराने  सारे  वो  सांचे  ख़ुदा  ने तोड़ दिए

गाली-गलौज  के  ही  बहाने चलो सही
जारी है बोलचाल ज़माने से अब तलक
.............

आलोचना -1 (रामनाथ शोधार्थी के सम्बन्ध में) :
शोधार्थी आगे चल कर एक आगामी गज़ल युग के एक महत्ववपूर्ण अध्याय ही नहीं पथ-प्रदर्शक साबित होंगे इसमें तनिक भी संदेह करना व्यर्थ है. मुश्किल यह है कि पल भर में अपनी बेबाक बयानी से सबको सुन्न कर देनेवालाले यह शायर कभी कभी स्वयं भी अपने ही शिल्प के प्रभामंडल में उलझ-पुलझकर रह जाता है और संदेश देना तक भूल जाता है. कभी-कभी ये एक ही बात अलग-अलग तरीकों से कई बार कह डालते हैं जबकि हर शेर भले ही केंद्रीय भाव में एक ही दिशा की ओर उन्मुख हों उनके कथ्य में भिन्नता होनी चाहिए अन्यथा वह गज़ल नहीं गीत बन जाता है. नीचे दिये गए शेर शोधार्थी की नायाब शायरी की उच्चता को बाधित करते गैर-जरूरी लग रहे हैं-

तुम्हारे नाम के जैसा हसीन लफ़्ज़ नहीं
अगर कहो तो तख़ल्लुस बनाये लेता हूं

ये जो शुह्रत की भूख है न मियां
पेट  की  भूख  से  भी बदतर है

इन फटी आंखों को रफ़ू कर ले
तेरे   जज़्बात  दिखते   रहते हैं

मियां यह बुलबुला जो है न, दरअस्ल
हवा   पानी  पहनकर   घूम  रही   है
.....
इस आलेख के लेखक-  हेमन्त दास 'हिम'
फोटोग्राफर -  हेमन्त 'हिम'
ईमेल - hemantdas_2001@yahoo.com
भाग 1 - ऊपर में पढ़िए 
भाग 2 का लिंक - http://biharidhamaka.blogspot.in/2017/11/11112017_12.html
भाग 3 का लिंक - http://biharidhamaka.blogspot.in/2017/11/11-17.html

























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