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Thursday, 12 October 2017

'Bapu' staged by 'Nat-mandap' in Patna on 10th and 11th of Oct,17 in Patna ('बापू' का मंचन)

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A Hindu should die while saving a Muslim and Muslim should die while protecting a Hindu
(हिन्दी समीक्षा नीचे पढ़िये)
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[English Review by Hemant Das 'Him'] Bapu (Mohandas karamchand Gandhi) is feeling himself desolate and abandoned by his stalwart disciples like Nehru, Rajendra Babu, Pattabhi  and all other supporters like Maulana Azad and Sardar Ballabh Bhai Patel. Not to ask about Md. Ali Zinnah who is a big sore not only to Gandhi but also for the whole India. His biggest concern is why Congress is trying to emulate Muslim League’s stance of sheer bigotry and sectarian thinking. Bapu is saying  that Muslim League has no stake in Hindus so it is totally indifferent about their welfare though the same stance of Congress with Muslim would be disastrous as Congress can't do away with the significant mass of it’s Muslim supporters. He is pensive about Cabinet Commission recommendation while Nehru, Ballalabhbhai Patel, Maulana, Rajendra ji and all seem to be content about accepting the same. Bapu is clearly seeing the divisive tactic of British Rule in the inherent proposal to divide Punjab but Nehru and Sardar Patel are unable to see this.

Formulating his strategy for tackling communal riots, Babu pronounces that a Hindu should die while trying to protect a Muslim and a Muslim should feel pride to be martyr as a savior of a Hindu. This kind of death should be the cherished desire of every 'satyagrahi'. Also, he does not approve Subhash Babu's idea of defeating British with the help of armed force. He is fully confident that he will repulse the Japanese aggression with the great power of non-violence.

A memorably high calibre presentation of solo-acting was presented by Jawed Akhtar in the play 'Bapu' with Parwez Akhter as the director. Remarkably, Jawed had developed the typical Gandhi style of speaking. The bitterness of being neglected by his own people was starkly visible on his face. His body postures while raising both of his hands,  while standing with aplomb along with his stick, while resigning himself to his sole supporter that was his stick and while standing as a forced statue on a raised platform were marvelous.  The dialogues of Nand Kishore Acharya were superbly succinct and appealing. Umakant Jha showed up his mettle in giving the actor the perfect look of Gandhi.  Archana Soni did a marvelous job by keeping the sound to the exact level as required. And lighting by Tanweer Akhtar and Sanjay Barnwal was up to the mark.
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(राजन कुमार द्वारा की गई हिंदी समीक्षा) स्थानीय कालिदास रंगालय में नटमंडप, पटना द्वारा नन्द किशोर आचार्य लिखित परवेज़ अख़्तर के निर्देशन में नाटक 'बापू' का मंचन किया गया। आज़ादी के बाद गाँधी का अकेलापन इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण था की वो सच्चाई, प्यार, अहिंसा का मार्ग किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकते थे। आज के समय के झूठ, हिंसा, नफरत, समझौता में शामिल नहीं होने की वजह से गांधी की हत्या कर दी गई। आज़ादी के ठीक पहले और आज़ादी के ठीक बाद के बापू की मनोदशा को जावेद अख्तर खाँ ने पूरी संजीदगी से जिया। नाटक की दसवीं प्रस्तुति में अभिनेता जावेद अख़्तर खाँ उत्तरोत्तर और ज्यादा सहज दिखे। किरदार को रचने की प्रक्रिया जटिल होती है और उसे सहजता से निभाया गया। निर्देशक परवेज़ अख्तर अभिनेता के लिये उपयुक्त वातावरण के निर्माण के लिये पूरे देश में जाने जाते हैं। नेपथ्य का अच्छा और अनुशासित उपयोग नाटक के कथ्य को विस्तार दे रहे थे । प्रकाश, वेशभूषा, नेपथ्य संगीत भी नाटक के अनुकूल वातावरण के निर्माण में सहायक रहे।

बापू एक विचार है जिसकी हत्या तीन गोलियों से नहीं की जा सकती और उसकी प्रासंगिकता आज के समय में सबसे ज्यादा है। ऐसे में यह नाटक समय की मांग है लेकिन प्रेक्षागृह में दर्शकों की संख्या निराश करनेवाली थी। दर्शकों को प्रेक्षागृह तक लाना भी एक प्रस्तुति की एक महत्वपूर्ण कड़ी होनी चाहिए क्योंकि नाटक उन्ही के लिए तो किया जा रहा ह। यह नाटक लंबी दूरी तय करने लायक है। अब सवाल यह है कि क्या यह उद्देश्यपरक नाटक पटना से बाहर किसी गाँव में दिखाया और इसी शिद्दत से अपनाया जा सकेगा? आज रंगमंच की उद्देश्यपरकता के निमित्त इन सवालों से भी जूझना होगा। शायद रंगमंच का वर्तमान उद्देश्य सिमट गया है। ऐसी प्रस्तुतियाँ सम्भावना जगाती है लेकिन सम्भ्रांत वर्ग तक सिमट जाने का खतरा भी है। रंगमंच को अपने आयाम और तेवर बदलने होंगे। बापू की स्वीकार्यता आम जन में थी इस बात को नाटक के माध्यम से आम जन को समझाना शायद बाकी रह जाए। मंच पर सहचर एक-उमाकांत झा, सहचर दो-अभिषेक नंदन/मोना झा थे। नेपथ्य में-प्रकाश अवधारणा- तनवीर अख्तर, प्रकाश परिकल्पना एवं संचालन-संजय बर्णवाल, वेश-भूषा- उमाकांत झा, ध्वनि परिकल्पना एवं संचालन - अर्चना सोनी और सेट- मोना झा सहयोग- मनीष/ब्रजेश।
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English script and photography by - Hemant Das 'Him'
Hindi script by - Rajan Kumar
You may send your response to hemantdas_2001@yahoo.com













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