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Monday, 30 October 2017

'सामयिक परिवेश' की कवि-गोष्ठी कॉफी कैम्पस, पंडूई पैलेस, पटना में 29.10.2017 को सम्पन्न (पूरी रिपोर्ट)




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हौसलों का कारवाँ बाकी रहा

कॉफी की चुस्कियों के बीच गज़ल और गीतों का दौर चले तो आनंद कई गुना बढ़ जाता है. शहर के कुछ जाने-माने गज़लकार और कवि ने ‘सामयिक परिवेश पत्रिका और क्लब द्वारा कॉफी कैम्पस, पंडूई पैलेस, बोरिंग रोड, पटना में आयोजित एक काव्य गोष्ठी में 29 अक्टूबर,17 को भाग लिया.


शबाना इशरत ने मुहब्बत का पैगाम को जोरदार ढ़ंग से बयाँ करती हुई गज़ल सुनाते हुए कहा-
यही तो शहरे-सितमगर है क्या किया जाय
हर एक हाथ में पत्थर है क्या किया जाय
उसी के सामने सिज़दे से हर बशर बेज़ार
वही तो पाक है अतहर है क्या किया जाय

ममता मेहरोत्रा ने रूठने मनाने में ज़िंदगी के बीत जाने का अंदेशा व्यक्त किया और लम्हों का कुछ कारगर इस्तेमाल करने की इच्छा व्यक्त की. फिर उन्होंने अंग्रेजी में अपनी एक कविता पढ़ी जिसमें विश्व के देशों द्वारा लिए गए निर्णय पर लड़ते हुए सैनिकों द्वारा जान देने की बात की चाहे हो सरहद के किसी पार का हो. उनका मूल संदेश था कि हर स्तर पर युद्ध को टालना चाहिए चाहे वह घर हो, समाज या देश.

'दिल्ली चीखती है' के शायर समीर परिमल ने अपनी गज़ल पढ़ी-
एक मुट्ठी आसमान बाकी रहा
हौसलों का कारवाँ बाकी रहा
आँधियों ने कोशिशें तो लाख कीं
दिल में पर हिन्दोस्ताँ बाँकी रहा.

हेमन्त दास 'हिम' ने अपनी कविता में जीव और माया के संबंध को निरूपित करते हुए कहा-
उड़ रहा है अब भी पिंजरे के आसपास
लोग कह रहे हैं कि तोता चला गया
पाने की आस में खोता चला गया
जाने क्या से क्या मैं होता चला गया.

संजय कुमार कुंदन ने वंचितों की हीनभावना का बड़ा सुंदर चित्र अपनी गज़ल के माध्यम से निरूपित किया- 
ख़ुद से मिलने कभी जो आते हैं
नज़रें ख़ुद से मिला न पाते हैं
जाने ये तंज़ है के उनका लगाव
हमको देखा तो मुस्कराते हैं.

जावेद हयात ने अंधा युग के आ जाने का ऐलान किया-
हमारा दिल अंधा हो चुका है
अंधेरे हर सू छाये जा रहे हैं
जमाना खोट से वाकिफ है फिर भी
वही सिक्के चलाये जा रहे हैं.

कासिम खुरशीद ने मूल्क और समाज के जिम्मेवार लोगों द्वारा समयानुकूल चारित्रिक बदलाव कर लेनेवाले इस युग के बिघटन की ओर ध्यान खींचा-
दुनिया के बाजार बदलते रहते हैं
हर दिन कारोबार बदलते रहते हैं
जो मनसब की पहरेदारी करते हैं
वो अपने किरदार बदलते रहते हैं.

ओसामा खान ने दिखावे की संस्कृति पर चोट की-
इन ऊँची दुकानों में हर चीज चमकती है
माटी की बनी मूरत को रेशम से सजाई है
ख्वाबों के दरीचों से कुछ मूरतें उभरी हैं
साहिल पे समंदर के जो शाम बिताई है.

डॉ.शम्भू कुमार सिंह ने एक छोटी सी मुलाकात से ही जीवन के सँवरने की कल्पना कर डाली-
देखूँ / एक नजर ही सही
पर भरपूर देख सकूँ तुझे
शायद यही एक नजर
जीवन के सपने पकने दे / पलने दे.

पूनम आनंद ने बेटी के विदा हो जाने के बाद माता की मनोभावना को व्यकत किया-
खेलते खेलते बीत गया सलोना बचपन
छूट गए पीछे मायके के घर आँगन
ढूँढती रह गई भाई की खुशियाँ
कब चुपके से बड़ी हो गई बेटी हमारी.

डॉ.रामनाथ शोधार्थी बहुत एहतिहात बरतनेवालों पर तीखा कटाक्ष किया और कहा-
आंसू तुम्हें पिलाऊं कि साग़र उबालकर 
यह साल जा रहा है दिसंबर उबालकर 
इस बार सर्दियों में वही लोग जम गये
पानी को पी रहे थे जो अक्सर उबालकर.

अंतिम दौर में नसीम अख्तर ने अपनी गज़ल से सब  को हँसने पर मजबूर कर दिया-
चलते चलते उनका खंजर रह गया
दिल का अरमाँ दिल के अंदर रह गया
खींच कर कातिल जो खंजर रह गया
रोज का झगड़ा मेरे घर रह गया.

'सामयिक परिवेश' की प्रधान सम्पादक ममता मेहरोत्रा ने इन माहवारी गोष्ठी की कार्यवाही के विवरणों और सदस्यों की कुछ अन्य रचनाओं के को मिलाकर एक लघु ई-पत्रिका निकालने का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसहमति से मान लिया गया.  श्रोताओं ने समसामयिक विषयों और मानवीय सम्बंधों पर आधारित गज़लों और छंदबद्ध कवितओं को खूब सराहा. कॉफी कैम्पस के तारिक इकबाल ने बताया कि इस तरह की गोष्ठियाँ वहाँ हर महीने आयोजित की जाएंगी. कार्यक्रम में नाफिस हबीब और अनीसुर रहमान भी मौजूद थे. गोष्ठी का संचालन हेमन्त दास हिमने और धन्यवाद ज्ञापण 'सामयिक परिवेश क्लब' की प्रभारी विभा सिंह ने किया.
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इस रिपोर्ट के लेखक- हेमन्त दास 'हिम'
फोटोग्राफर- हेमन्त 'हिम', तारिक इकबाल, कासिम खुरशीद, समीर परिमल
आप अपनी प्रतिक्रिया इस ईमेल पर भेज सकते हैं- hemantdas_2001@yahoo.com














































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