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क़र्ज़ इतना है अंधेरों का हमारे सर पर / हम अंधेरों को अंधेरा भी नहीं कह सकते
(हेमन्त दास 'हिम' की रेपोर्ट)
राजभाषा
क्रियान्व्यन समिति, पटना जंक्शन और
राजेंद्रनगर टर्मिनस एवं भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के संयुक्त तत्वावधान में
एक कवि गोष्ठी का आयोजन पटना जंक्शन के सम्मेलन कक्ष में 22.9.2017 को कवियों और कवयित्रियों की बड़ी भागीदारी के
साथ सम्पन्न हुआ.
मानव जीवन के
पल-पल को जाया करने की बजाय पूरे दिल से जीने की सलाह दी मधुरेश रंजन ने-
"ये मानव जीवन
कितना अनमोल है / इसे यूँ न जाया करो
जो मिला है
तुम्हें ये तो है रब की दुआ / इसे दिल से लगाया करो"
करुणा के आँसू की
अनवरत धार बहाने का संदेश श्रीकान्त व्यास ने कुछ यूँ दिया-
"हाथ में है मौत
का खंजर लिए / जमीं थी चमन अब है बंजर लिए
कभी न रुके करुणा
के आँसू / नयन भरे तो दिखे समन्दर लिए
इन दिनों बिहार
हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अत्यधिक सक्रिय रहनेवाली कवयित्री लता पराशर ने हिन्दी
की सार्वभौमिकता को उजागर किया-
"हिन्दी
हिन्दुस्तान के बाहर भी घूम आई है
दुनिया की हर
भाषा को ये भी खूब नचाई है"
हाल ही में
प्रकाशित 'दिल्ली चीखती है' के शायर समीर परिमल ने ज़िंदगी को जीने की सीख
तो दी लेकिन व्यवस्था पर भी चोट किया कि ज़िंदगी की पहुँच हर आदमी के घर तक आज भी
नहीं है-
"मैं बनाता
तुम्हें हमसफर ज़िंदगी / काश आती कभी मेरे घर ज़िंदगी
तू गुजारे या जी
भर के जी ले इसे / आज की रात है रात भर ज़िंदगी"
अगले युवा शायर नसीम
अख्तर ने आत्मकेंद्रित जीवन-शैली पर इस तरह से प्रहार किया-
"सब कैद हो चुके
हैं अपने ही दायरों में / कौन आता है तुम तक 'नसीम' बुला कर देखो
लगती है आग कैसे
किस तरह घर जला है / अपने मकाँ पर यारों बिजली गिरा के देखो"
विनाश के युद्ध
के विरुद्ध सादगी और सच्चेपन की लड़ाई को शरद रंजन शरद ने 'लावा' नामक सशक्त
मुक्तछंद कविता में बयान किया-
"अब तुम इसे
अहिंस्र पिछड़ेपन का नाम दो / या असमर्थ सादगी कहो
मगर यह तय है कि
जब विनाश के गोलों के साथ / लोग अन्तिम महायुद्ध के लिए कूच कर रहे होंगे
कुछ आत्मीय
आश्वस्त हाथ तब भी / दोनो हाथों में लावा और गुड़ भर रहे होंगे"
युवा शायर रामनाथ
शोधार्थी ने अपने विशिष्ट तेवर में कसे हुए शेर कहे. नमूने देखिए-
"कुछ हैं ऐसे जो हथेली पे नचाकर लट्टू / सोचते रहते हैं दुनिया ही हथेली पर है"
"क़र्ज़ इतना है अंधेरों का हमारे सर पर / हम अंधेरों को अंधेरा भी नहीं कह सकते"
सुहैल फारुखी ने
अपने ज़ुदा अंदाज में आज के जमाने की विसंगतियों को उजागर करते हुए कहा-
"मेरे दिमाग ने
खुशबू का शौक पाला है / मगर ये दौर तो कागज के फूल वाला है"
"इल्जाम सर पे धूप
के आता रहा मगर / शबनम से भी तबाह पौधे बहुत हुए"
'जलती है शमा'
की शायरा शमा कौसर 'शमा' ने इस तरह से
रौशनी बिखेरी-
"रेत की दीवार से
कैसे समंदर रोक लूँ / ज़िंदगी तेरे लिए मैं कोई मंजर रोक लूँ"
मासूमा खातून ने माशूक के शीरीं लब से ताने सुनने में लुत्फ बताया-
मासूमा खातून ने माशूक के शीरीं लब से ताने सुनने में लुत्फ बताया-
"किसने रुसवा किया किसी ने जो य पूछा / मेरी तुर्बत को इशारे से बता देते हैं
बेवफा तू है तेरा भरोसा नहीं कोई / लबे-शीरीं पे ये ताने भी मजा देते हैं"
सुधाकर राजेंद्र
ने भी नैनों की नदी में डुबकी लगाने में कोई कसर न छोड़ी-
"नैनों की नदी में
मैं तेरी डूबता रहा / मुझको बचाए रखना काजल की तरह जी"
तेरे प्यार की
दवा से दबा है दिल का दर्द / 'सुधाकर' है तेरे प्यार में कायल की तरह जी"
मीर सज्जाद ने
अपनी शायराना तन्हाई का इजहार इस अंदाज में किया-
"सोई-सोई रात को
गाती मीरा का भजन / मेरी हर ख्वाइश किसी जोगिन की चेली हो गई
शाम होते ही महक
जाती है हर गोशे में ये / मेरे आँगन की भी तन्हाई चमेली हो गई"
रमेश कँवल ने
समंदर की बेचैनी समेटे मील का पत्थर होने की बात की-
"तुम प्रीत की
राहों में रहे शबनमी चादर / मैं आज भी मील का पत्थर हूँ सद अफसोस
गंगा नहीं आती है'कँवल मिलने को मुझसे / तन्हाई का बेचैन समन्दर
हूँ सद अफसोस"
राजमणि मिश्र ने
प्रेम के दैहिक धरातल से उठकर मन से भी ऊपर जाने का चित्र प्रस्तुत किया-
"प्रेम / देह और
मन से परे है / उठता है जैसे-जैसे दैहिक धरातल से
अंतर्यात्रा में
होता जाता परिणत"
अर्चना त्रिपाठी
ने अपने बुरे दिनों को सभा में इस तरह जीया-
"बुरे दिनों में /
कुम्हलाती हैं कोंपलें / टूटती है हिम्मत / मर जाते हैं बीज
सन्नाटा-सा छा
जाता है / कुत्ता पूस की रात में रोता है"
रूमानियत के
बहाने उपेक्षित और वंचित वर्ग की ओर इशारा करते हुए हेमन्त दास 'हिम' ने कहा-
"तुझ में है कमी,
कोई न आएगा / मैं तुझ से दिल लगाना चाहता हूँ
मैं हूँ पत्थर,
ठोकर दे, पा ले उछाल / तुझ को मैं आगे बढ़ाना चाहता हूँ"
आर.पी. घायल ने
किसानों की हालत को बड़ी संजीदगी से लफ्जों में ढाला-
"उसे पढ़ना नहीं
आता उसे लिखना नहीं आता / मगर उसकी नजर इंसान को पहचान जाती है
कभी तो एक नन्हीं
बूँद भी उसके पसीने की / किसी बंजर जमीं पर ढेर सारे गुल खिलाती है"
कुमार विकास ने
तस्वीरों वाली बीवी पाने पर अपनी प्रतिक्रिया इस तरह से दी-
""पहले तो सिर्फ एक
चारपाई थी / फिर नया फर्नीचर, नए कपड़े नई रजाई
थी
तस्वीरों वाली
पत्नी जो हमने पाई थी"
अब पारी थी इस
कवि-गोष्ठी का संचालन कर रहे सिद्धेश्वर प्रसाद की जिन्होंने बहुत कुछ कहा-
"बिक रहा है हाट
में सपनों का राजकुमार / यहाँ प्रेम नहीं चाँदी-सोना है बहुत कुछ
नफरत, द्वेष,ईर्ष्या, जिसकी रही पूँजी
/ प्यार के गीत-छन्द उसने लिखे हैं बहुत कुछ"
काव्य-पाठ को
अंतिम शिखर पर पहुँचाने आए सभा के अध्यक्ष भगवती प्रसाद द्विवेदी. उन्होंने पहले
उपस्थित सभी अन्य कवियों द्वारा पढ़ी गई कविताओं पर अपना वक्तव्य दिया. उन्होंने
कहा कि गज़ल बहुत नाजुक विधा है जिसमें बहुत गहराई होनी चाहिए साथ ही इसमें काफिया,
रदीफ और बहर का भी समुचित निर्वाह अनिवार्य
होता है. परंतु आजकल सभी गज़ल लिख रहे हैं बिना किसी भी नियमों की परवाह किये. इसे
गम्भीरता से लिया जाना चाहिए. हालाँकि उन्होंने इस सभा में पढी गई गज़लों और
कविताओं की भरपूर तारीफ की और कहा कि हालाँकि पूरे सत्र में गज़ल ही आज हावी रहा
किन्तु शरद रंजन और अंकिता त्रिपाठी ने अपनी समकालीन विधा में काव्य पाठ कर इस सभा
को समकालीनता के रंग में ढाले रखा. साथ ही अनेक गज़लों में भी समकालीन मुद्दों को
बहुत सशक्त तरीके से उठाया गया जिसके लिए सभी रचनाकार बधाई के पात्र हैं.
द्विवेदी जी
पुराने समाज के दिन-प्रतिदिन असहिष्णु बनते जाने का दृश्य प्रस्तुत किया-
"कहाँ हैं वे लोग
/ वे बातें / उजालों से भरी?
पंच परमेश्वर के
जुम्मन शेख / अलगू चौधरी
खून के प्यासे
हुए / इंसाफ करते हिटलरी"
अंत में भारतीय
रेल की टीम की ओर से मानवेंद्र बामरा ने धन्यवाद ज्ञापण किया. इस कवि-गोष्ठी में अरुण शाद्वल ने भी अपनी कविताएँ पढ़कर वाहवाही लूटी और सभा में कथाकार उषा ओझा भी थीं.
.........................
इस रिपोर्ट के लेखक - हेमन्त दास 'हिम'
फोटोग्राफर- हेमन्त 'हिम' और लता पराशर
आपा अपनी प्रतिक्रिया इमेल के जरिये भेज सकते हैं जिसके लिए आइडी है-
hemantdas_2001@yahoo.com
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