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"सभी मुफलिस हैं यहाँ कौन किसको क्या देगा"
हेमन्त 'हिम' की रिपोर्ट
हेमन्त 'हिम' की रिपोर्ट
चाँदमारी चौराहा, कंकड़बाग, पटना के गोबिन्द इनक्लैव में साहित्य परिक्रमा संस्था ने 11 अगस्त, 2017 को एक काव्य गोष्ठी आयोजित की जिसमें अनेक गणमान्य कवियों ने भाग लिया जिनमें श्रीराम तिवारी, भगवती प्रसाद द्विवेदी, अरुण शाद्वल, मधुरेश शरण, हेमन्त दास 'हिम', सिद्धेश्वर, हरेन्द्र सिन्हा, गहबर गोवर्धन, शशिकान्त श्रीवास्तव आदि ने भाग लिया. इस अवसर पर कवियो ने अपनी रचनाओं का पाठ किया और प्रतिभागियों में से मधुरेश नारायण की छ्प चुके काव्य-संग्रह 'मन की हसरत' तथा हरेन्द्र सिन्हा की पुस्तक 'जीवन-गीत' की रचना-प्रक्रिया पर भी संक्षिप्त चर्चा हुई यद्यपि अभी दोनो पुस्तकों का लोकार्पण होना बचा है.
कवि और आलोचक श्रीराम तिवारी की अध्यक्षता और साहित्यकार-पत्रकार हेमन्त 'हिम' के सञ्चालन में चले इस गोष्ठी में कविता पाठ का शुभारम्भ शशिकांत श्रीवास्तव से हुआ. उन्होंने टेलीफ़ोन/ मोबाइल की चकाचौंध में पीछे छूट रही मूलभूत आवश्यकताओं जैसे भोजन, वस्त्र आदि की समस्या पर ध्यान खींचते हुए कहा-
"कैसा ज़माना आ गया, कैसा ज़माना आ गया
रोटी मँहगी तो गई टेलीफोन सस्ता हो गया
रोटी के लिए कहीं न हल्ला न विरोध प्रदर्शन
मानो सबको मिल रहा हो जैसे भर पेट भोजन"
उनके पश्चात राष्ट्रीय स्तर के विख्यात रेखाचित्रकार और कवि सिद्धेश्वर ने अपनी कुछ कवितायेँ पढ़ीं. पहली कविता में आज के युग के एकाकी विकास और उसमें जीवन्तता की कमी की ओर इंगित करते हुए पढ़ा-
"सिकुड़ती हुई दुनिया तुमने बनाई है
तुमने विज्ञानं में तो बहुत कुछ पा लिया
फिर भी घटा-बढ़ा नहीं सके तुम
जीवन और मृत्यु के फासले
इसके बावजूद यह कम है क्या
रंग बिरंगे लाल-हरे रंगों से
रंग दी है तुमने सारी दुनिया"
दूसरी कविता में सिद्धेशवर ने घर के बिखराव को रेखांकित किया-
"काश बन पाती तुम मेरे लिए घर
नफरतों की बारिशो से बचा रखता अपना सर
काश मेरी निजी डायरी होती तुम
जिस पर हिम्मत नहीं होती किसी भी गैर को
कुछ भी लिखने की"
उनके बाद गहबर गोबर्धन ने अपनी गज़लों से समाँ बाँधा. पहली गज़ल रूमानी थी-
"फूल से प्यार है मगर खुशबू से प्यार नहीं
दोस्त अब तेरी मुहब्बत का ऐतबार नहीं
क्या बताऊँ तुझे क्या है मेरी ख्वाइश
बस इतना है मुझे क्यूँ मिला यार नहीं"
उनकी दूसरी गज़ल अपनी डगर खुद बनाने की बात कहती नजर आती है-
"मत सोच इस ढलान पर ऐसे ही ढला हूँ
साया-ए-वक्त से हमेशा ही लड़ा हूँ
मिन्नत से मिली राह न मन्नत से मिली
अपनी डगर बना के मैं खुद ही बढ़ा हूँ"
फिर संचालक के निवेदन पर वरिष्ठ कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी ने अपनी दो कविताओं से काव्य-सभा की गरिमा को और ऊपर उठाया. पहली कविता में उन्होंने "मेरा लौटना सम्पूर्णता में' की भाव-दशा का बयान बिल्कुल नायाब बिम्बों की सहयता से किया.-
"जैसे लौट आते हैं गदराकर, छिटककर अंकुरित बीज
मैं लौटूँगा सम्पूर्णता में
अपने गाँव की ओर"
उनकी दूसरी कविता समाज में दबंग वर्ग द्वारा कमजोर वर्ग का अपनी स्वार्थ-सिद्धि में इस्तेमाल करने की ओर इशारा करते हुए कहा-
"चौसर आप बिछाते रहते, हम सतरंजी मोहरे होते
हम हैं वह शख्स मूँगेरी जिसके सपन सुनहरे होते
खनक है अपनी खोटी जिसकी हम सिक्के वो सहमे जन हैं
आप बड़े हैं बहुत बड़े हैं, हम तो छोटे जन हैं"
फिर उपस्थित गणमान्य प्रतिभागियों के आग्रह पर संचालक हेमन्त 'हिम' ने अपनी दो गजलें पढ़ कर सभी लोगों को एक नए वैचारिक लोक में ले गए-
"पाने की आस में खोता चला गया
जाने क्या से क्या मैं होता चला गया
उड़ रहा है अब भी पिंजरे के आस पास
लोग कह रहे हैं कि तोता चला गया"
उनकी दूसरी गज़ल में आशावादिता पूरे आवेग में उत्प्लावित होती दिखती है-
"बुतखाने तक तो मैं जा न सका पर
देख मेरी ओर अब वो चला तो है
बुरा लगा मुझे पर मैंने सह लिया
कम से कम इसमें तेरा भला तो है"
काव्य-पाठ के क्रम को आगे बढ़ाते हुए मशहूर रंगकर्मी और नए काव्य-संग्रह 'मन की हसरत' के रचयिता मधुरेश शरण की कविता की पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं-
" तू शून्य से आगे बढ़ता जाता है
आज भी तेरी खोज बाँकी है
और आज भी तू किसी की मुस्कुराहट पर
मिटने को तैयार है"
उनकी पढ़ी गई दूसरी कविता के कुछ अंश कुछ ऐसे थे-
"पूरी किताब क्यों पढ़ें, नजर में जब सब लेख हो"
फिर नए काव्य-संग्रह 'जीवन-गीत के रचनेवाले कवि हरेंद्र सिन्हा ने अपनी कविताओं का पाठ किया-
"छोटे बच्चों को न घर में ड़ाँटा करें
हिन्दु-मुस्लिम में देश को न बाँटा करें
घर में खुशबू बिखेरने का जो जी करे
बूढ़े \माँ-बाप को सीने से साटा करें"
शहरी जिंदगी के परिणाम को बखूबी प्रदर्शित करते हुए उनकी अगली कविता की पंक्तियाँ थीं-
"शहर की जिंदगी ने मार डाला इस गरीब को
बिना पतझड़ के ही झाड़ डाला इस गरीब को"
पुन: वरिष्ठ कवि अरुण शाद्वल ने अपनी रचनाएँ पढ़ीं. पहली कविता माँ के प्रति उद्गार थी-
अम्मा, सूरज भी पीला-पीला सा बुझा बुझा सा लगता है
चन्दा भी मैला मैला सा थका थका सा लगता है"
अपनी अगली रचना को गजल के रूप में उन्होंने पेश किया और कहा-
"जो रहनुमा हो कोई थोड़ा फलसफा देगा
बिगड़ते वक्त में अब कौन भरोसा देगा
कुछ भी माँगोगे फकत वादे ही वादे पाओगे
सभी मुफलिस हैं यहाँ कौन किसको क्या देगा"
अंत में काव्य-सभा की अध्यक्षता कर रहे श्रीराम तिवारी ने प्रतिभागियों द्वारा पढ़ी गई कविताओं पर अपनी अध्यक्षीय टिपण्णी प्रस्तुत की. फिर उन्होंने आज के परिदृष्य पर अपनी कविता पढ़ी जो कुछ इस प्रकार थी-
"सपनों के रखवाले आएंगे आनेवाले
कूँची से रंग भरेंगे
मेघों जैसे लद कर आएंगे जड़ में जानेवाले
बस्ती बस्ती से आएंगे कथा सुनानेवाले"
इसके पश्चात मधुरेश नारायण ने सभी आगंतुकों का धन्यवाद ज्ञापण किया और इस तरह से एक संवेगपूर्ण काव्य-गोष्ठी सम्पन्न हुई.
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इस रिपोर्ट के लेखक: हेमन्त 'हिम'
इस आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया इमेल से भी भेजी जा सकती है जिसके लिए इमेल आइडी है: hemantdas_2001@yahoo.com
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