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टके सेर भाजी, टके सेर खाजा / Where coals and diamonds are equal
(हिन्दी में टेक्स्ट हर अंग्रेजी अनुच्छेद के बाद पढ़िये)
It is said that the Indian agriculture is sort of gambling with monsoon. On the same lines, it will not be unfair to say that the dependence on the grant is gambling with theater. Grant probably comes once a year and no one can say how much it will be. The moment showering of grants start treating coals and diamonds equally, a flood of theatrical productions is seen. Where some dedicated theatre-artists keep on working for their new productions, the seasonal frogs go in hibernation when the season is off. They like to spend their time gazing towards Delhi with their mounts open. Probably from June to October, our stage is in the grip of rain, and during this period, few stage show of drama are seen.
कहते हैं भारतीय कृषि मानसून के साथ जुआ है। इसी तर्ज पर यह कहना कही अनुचित नहीं होगा कि अनुदान के भरोसे नाटक रंगकर्म के साथ जुआ है। ग्रांट संभवतः साल में एक बार आती है और किसको कितनी रकम आएगी कोई कह नही सकता। 'टके सेर भाजी, टके से खाजा' की तरह जब ग्रांट की बारिश शुरू होती है, तो नाटकों की भी बाढ़ आने लगती है, वही ग्रांट के बिना भी कुछ ही रंगकर्मी नाटकों की रचना प्रक्रिया में लगे रहते
हैं, बाकी बरसाती मेढक की तरह बिल में दुबक जाते हैं और मुह बाये दिल्ली की
तरफ ताकते रहते हैं। संभवतः जून के बाद से अक्टूबर तक बरसात की चपेट में
हमारा रंगमंच होता है, और इन दिनों नाटक के इक्का-दुक्का मंचन ही दिखाई
देते हैं।
Scene of the play 'Bedesia' |
After the natural monsoon is over, the dramas start pouring in from October to March. Perhaps in March, the projects of grant are to be settled, hence the process of assembling the play begins, then the paper from the chartered accountant and then re-application. According to many other honest actors, this season is particularly suitable for performing drama in the Kalidas Rangalaya, because then there is less heat in the atmosphere and the danger of water logging is over. This is also the main reason why Premchand Rangshala is almost dormant with no staging of dramas. But the fact is that during this very period and in the midst of rainy season 'Theatrewala Natyotsv' (Theatrewala drama fest) is conducted from Aug. 10 to 14 having remarkably good number of audience. In such a situation, less footfall of viewers can not be accepted as a concrete reason as even in scorching heat or condition of downpour, it's good crowd there in Kalidas Rangalay provided the show is good.
वही बारिश खत्म होते ही अक्टूबर के बाद से मार्च तक नाटकों की
बारिश होनी शुरू हो जाती है। मार्च में संभवतः ग्रांट रूपी प्रोजेक्ट
निपटाने होते हैं, इसलिये नाटक असेम्बल करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है,
फिर चार्टर्ड अकाउंटेंट से कागज और फिर पुनः आवेदन। इसके इतर कई ईमानदार
कलाकारों की माने तो ये मौसम खासकर कालिदास रंगालय में नाटक करने के लिये
उपयुक्त होता है, क्योंकि तब यहां गर्मी नही लगती और बरसात में पानी लगने
के खतरे से भी निजात मिल जाती है। वहीं बरसात में प्रेमचंद रंगशाला के बाहर
पानी जमा हो जाना भी प्रमुख वजह है, नाटकों के मंचन नही किये जाने
के। रंगमार्च द्वारा "थिएटरवाला नाट्योत्सव" का आयोजन प्रतिवर्ष 10 से 14
अगस्त बरसात में ही किया जाता है और दर्शकों की संख्या भी अच्छी-खासी रहती
है। ऐसे में दर्शकों का नही आना कोई ठोस वजह नही कहा जा सकता, क्योंकि
कालिदास रंगालय में भीषण गर्मी या बरसात में भी नाटक अच्छी रहने पर भीड़
होती है।
If we go deep delve into it we find that today the theatre is not only drifting from it's people-oriented legacy, rather it is merely engaged in assembling dramas like a project-work totally different from producing dramas with truly artistic diligence . Today thanks to grants, every other theatre-artist has turned into a director. Though it may create sort of rain on the stage, the very ground of theatre will become barren. Parvez Akhtar, Sanjay Upadhyay, Randhir Kumar, Tanvir Akhtar, Praveen Gunjan, Suresh Kumar Hazju, Suman Kumar, Mithilesh Singh, Abhay Sinha, Aneesh Ankur, Mrityunjaya Sharma, Punj Prakash, Rajesh Raja, Ajit Kumar, Prakash Bandhu, Shubro Bhattacharya, Jahangir Khan, Sameer Kumar, Roshan Kumar and such theatre-artists are engaged in their process of creative production like a farmer regardless of rain so that the ground of theater must ever remain fertile. Nowadays, In theatre, discussions and reviews are almost extinct. It is said that more rain brings floods and less rain drought. The same thing applies to theater as well.
इसकी तह में यदि हम जाएं तो निष्कर्ष यही निकलता है कि आज रंगमंच
अपनी जन सरोकार वाली विरासत से न सिर्फ कटता जा रहा है,बल्कि नाटक को तैयार
करने की कलात्मक श्रम-साध्य प्रक्रिया से इतर महज एक प्रोजेक्ट की तरह
असेम्बल करने की कबायत में जुटा है। आज अनुदान की वजह से हर दूसरा रंगकर्मी
निर्देशक हो गया है, ये रंगमंच पर भले नाटकों की बरसात ले आये लेकिन इससे
रंगमंच की जमीन बंजर हो जाएगी। परवेज़ अख्तर, संजय उपाध्याय, रणधीर कुमार,
तनवीर अख्तर, प्रवीण गुंजन, सुरेश कुमार हज्जु, सुमन कुमार,मिथिलेश
सिंह,अभय सिन्हा,अनीश अंकुर, मृत्युंजय शर्मा, पुंज प्रकाश,राजेश राजा,अजीत
कुमार,प्रकाश बन्धु, शुभरो भट्टाचार्या,जहाँगीर खान,समीर कुमार,रोशन कुमार
सहित और भी कई रंगकर्मी अपनी रचना प्रक्रिया में एक कृषक की तरह लगे रहते
हैं,बरसात की परवाह किये बिना ताकि रंगमंच की ये जमीन हमेशा उपजाऊ रहे। आज
रंगमंच में बातचीत या समीक्षा लगभग समाप्त हो चुकी है। कहते हैं ज्यादा
बारिश से बाढ़ आ जाती है वही कम बारिश सुखाड़ लाती है। यही बात रंगमंच पर भी
लागू होती है।
The rain of dramatic productions is essential but the extent to which our heritage of theatre remains fertile and in real sense, national-level artists from among us come up who can give fame to Bihar on the national level. Patna plays a leading role if we talk of the presence of Bihar Theater on the national scene. The main reasons for this are the availability of basic amenities. The other is that from the districts of whole of Bihar, the theatre-artists gather only here. Only those dramas of Patna have left their mark in the national arena, in which the content and ideas have got prominence while presenting them artistically on theater. Some major drama, such as 'Dur desh ki katha' ,Mukti-parw, Videsia, Nyayapriya, Gunda, Jahaji, Akkarmasi etc. are notable. Secondly, only those plays are in limelight which can raise contemporary questions of today with their thoughts and conclusions. Of course, there may be some shortcomings in Patna's theatrical productions at the artistic level, the main reason of which is the lack of the training system.
नाटकों की बारिश जरूरी है लेकिन उतनी ही जितने से हमारे
रंगमंच की विरासत उपजाऊ रहे और सही मायने में हमारे बीच से राष्ट्रीय स्तर
के कलाकार निकलें, जो राष्ट्रीय पटल पर बिहार का नाम रोशन करें। राष्ट्रीय
परिदृश्य पर यदि बिहार रंगमंच की उपस्थिति की बात की जाये तो पटना शहर
अग्रणी भूमिका निभाती है। इसका प्रमुख वजह यहां की मूलभूत सुविधाएं हैं,
दूसरे पूरे बिहार के अन्यत्र जिले के रंगकर्मी यही जमा होते हैं। पटना के
वही नाटक राष्ट्रीय पटल पर अपनी छाप छोड़ पाये हैं जिसमें कथ्य और विचार को
कलात्मकता के साथ रंगमंच पर प्रमुखता दी गई है। दूर देश की कथा, मुक्ति
पर्व, विदेशिया, न्यायप्रिय, गुंडा, जहांजी, अक्करमासी आदि कुछ प्रमुख नाटक
उलेखनीय है। दूसरे चर्चा भी वैसे ही नाटकों की होती है , जो अपने विचार और
कथ्य से आज के समकालीन सवालों को उठा पाते हैं। हां कलात्मक स्तर पर पटना
की नाट्य प्रस्तुतियों में कुछ कमी देखी जा सकती है, जिसकी प्रमुख वजह यहां
प्रशिक्षण की व्यवस्था का नही होना है।
From here every year, three or four theatre-artists go out for training, but the proportion of their return is very low. There is even a less proportion of those who really work after coming back. What happens is that whatever they learn from outside, they start imposing on others. While we already have the strong grounds of theater along with public-orientation. In such a situation, there is a stark need of a drama school based on our rich legacy rather than any imported training system. Sometimes, the training snatches away our very strengths and the grounds we stand. This is the demerit of our education system prevailing here. Another important point is that granting can be beneficial for theater, but here also our fellows are suffering from the tendency of settling the dramas like NGO's project. Theatre is an ideological and social work and not a business. This is high time we understand this too.
यहां से हर वर्ष तीन या चार रंगकर्मी
बाहर प्रशिक्षण को जाते जरूर हैं, लेकिन बापस आने का अनुपात बहुत कम है।
दूसरे बापस आकर काम करने वालों का और भी कम अनुपात है। होता ये है कि वो
बाहर से जो भी सीख कर आते हैं, अपने यहां थोपना शुरू कर देते हैं। जबकि
हमारे यहां रंगमंच की मजबूत जमीन विचार और जन सरोकर आधारित पहले से है। ऐसे
में अपनी इस विरासत को आधार बनाकर एक नाट्य विद्यालय की आवश्यकता है न कि
किसी आयातित प्रशिक्षण पद्धति की। कभी कभी प्रशिक्षण हमसे हमारी अपनी खूबी
और जमीन भी छीन लेती है। ये हमारे यहां की शिक्षा व्यवस्था का दोष है। एक
और प्रमुख बात अनुदान रंगमंच के लिये लाभकारी हो सकता है, लेकिन यहां भी
हमारे साथी नाटक को एन जी ओ के प्रोजेक्ट की तरह निपटाने की प्रवृति से
ग्रसित हैं। रंगकर्म एक वैचारिक और सामाजिक कर्म है न कि कोई धंधा। इसे भी
समझने की बहुत जरूरत है।
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The Hindi version of this article has already been published in Hindustan (Patna) on 19th July, 2017.
Original article in Hindi by: Rajan Kumar Singh
Link of Rajan Kumar Singh: https://www.facebook.com/raajdev.9507271010
Translated into English by: Hemant Das 'Him'
Rajan Kumar Singh is a well-known theatre-artist and writer.
राजन कुमार सिंंह के सम्बंध में मृत्युंजय कुमार शर्मा के विचार
......सीतामढ़ी में रंगमंच के विकास को लेकर पिछले कुछ
वर्षो से इनके द्वारा किया जा रहा प्रयास आने वाले समय में बिहार रंगमंच की
बड़ी उपलब्धि के रूप में देखी जायेगी। एक उभरते हुआ विचार सम्पन्न,
स्वाध्याय से प्रशिक्षणरत इस युवा रंगकर्मी को प्रोत्साहन की ज्यादा जरूरत
है, बशर्ते वैसे जो अपनी जमीन छोड़कर लॉबी, टैगिंग और दिल्ली के भरोसे
रंगमंच का नहीं अपना भला करना चाहते हैं।
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ युवा साथी ! लिखना जारी रखें....!
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ युवा साथी ! लिखना जारी रखें....!
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