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Saturday, 8 July 2017

डॉ.रामनाथ शोधार्थी - असीम ऊर्जा के धनी एक युवा कवि (Dr. Ramnath Shodharthi - a young poet with immense energy)

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गज़ल (Poem)
-by Dr. Ramnath Shodharthi


पत्थर या देवता हूँ मुझे कुछ पता नहीं 
तू ही बता कि क्या हूँ मुझे कुछ पता नहीं

 I am stone or a deity, I don’t know
You look my identity, I don’t know

जिससे मिला हूँ दिल-से बड़े एहतिराम से
छोटा हूँ या बड़ा हूँ मुझे कुछ पता नहीं
I met everyone heartily and warmly
It’s piety or enormity, I don’t know

लो हाथों-हाथ आज भी लोगो में बंट गया
किस मर्ज़ की दवा हूँ मुझे कुछ पता नहीं
See, everyone accepted me as his own
Of which bug I am remedy, I don’t know
  
लौटा हूँ जबसे अपना मैं ईमान बेचकर
जिंदा हूँ या मरा हूँ मुझे कुछ पता नहीं
Since I came back selling my honesty
I am alive or dead body, I don’t know

इक इत्तिलाअ सुनके गले शौक़ से मिलो
अच्छा हूँ या बुरा हूँ मुझे कुछ पता नहीं
Getting informed of it, you hug me please
I am virtue or depravity, I don’t know

रोता जहाँ है सारा फ़क़त देखता हूँ मैं
किस काठ का बना हूँ मुझे कुछ पता नहीं
Whole world is weeping and I just watch
By which mettle I got ready I don’t know

मुझको भी घर से निकले कई साल हो गये
बेजान या हरा हूँ मुझे कुछ पता नहीं
It’s matter of years when I left home
If I still have sensitivity, I don’t know

मंजिल की जुस्तजू में बहुत दूर आ गया
किस ओर आ गया हूँ मुझे कुछ पता नहीं
In search of goal, I have traveled so far
Have reached which City, I don’t know

खुशियाँ लुटा रहा हूँ मैं सारे जहान पर
इंसान या ख़ुदा हूँ मुझे कुछ पता नहीं 
I am showering happiness to the whole world
Belong to Gods or humanity, I don’t know.
............
Original poem in Urdu/Hindi by Dr. Ramnath Shodharthi
Poetic English translation by Hemant Das 'Him'


कवि का बायोडाटा

नाम       :         डॉ. रामनाथ
उपनाम  :         शोधार्थी
पिता     :          स्व. जंगबहादुर चौधरी
माता     :          स्व. सोना देवी
शिक्षा    :          जंतु विज्ञान (पी.एच.डी.)
जैव रासायनिक प्रयोगशाला,
जंतु विज्ञान विभाग, पूर्वोत्तर-पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिल्लोंग- 793 022, मेघालय, भारत
      
ई-मेल   :          nath.genetics@gmail.com, nath.shodharthi@gmail.com
संपर्क    :          096125 01437, 87318 02301 
सम्प्रति  :
जन्म      :         11 मई 1985,   स्थान : कोईलवर, भोजपुर, बिहार
प्रकाशन :
·       ज़मीन के सितारे’ हिन्दी साप्ताहिक (रायबरेली, उत्तर प्रदेश) में कुछ शे’र प्रकाशित, 13 जुलाई 2013, पृष्ठ 3.
·       सिर्फ तुम’, साझा काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण: 2013 (ISBN: 978-81-927313-2-2), संपादक: पवन जैन, प्रकाशक: सन्मति पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, हापुड़- 245 101, उत्तर प्रदेश) में चार ग़ज़लें प्रकाशित, पृष्ठ सं. 143-147.
·       शब्द-सरिता’, अंक- 5, जनवरी-मार्च, 2015 (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका, ISSN: 2349-8676, प्रधान संपादक: नितिन सिकरवार, प्रकाशक: एन. एस. पब्लिकेशन, मनैना, अलीगढ़- 202 134, उत्तर प्रदेश) में एक ग़ज़ल प्रकाशित, पृष्ठ सं. 44.
·       शब्द-सरिता’, ग़ज़ल विशेषांक, अंक- 8, ऑक्टूबर-दिसम्बर, 2015 (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका, ISSN: 2349-8676, प्रधान संपादक: नितिन सिकरवार, प्रकाशक: एन. एस. पब्लिकेशन, मनैना, अलीगढ़- 202 134, उत्तर प्रदेश) में दो ग़ज़लें प्रकाशित, पृष्ठ सं. 37.         
·       मधुराक्षर, अंक: ऑक्टूबर-दिसम्बर, 2014 (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका, संपादक: ब्रिजेन्द्र अग्निहोत्री) पत्रिका में एक ग़ज़ल प्रकाशित, पृष्ठ सं. 35.
·       मधुराक्षर, अंक: जनवरी-मार्च, 2015 (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका, संपादक: ब्रिजेन्द्र अग्निहोत्री) पत्रिका में एक ग़ज़ल प्रकाशित, पृष्ठ सं. 38.
·       अंजुमन वर्ष-1, अंक-1, जनवरी-जून, 2016 (छमाही साहित्यिकी, ISSN: 2454-9231, प्रधान संपादक: वीनस केसरी, प्रकाशक: अंजुमन प्रकाशन, 942, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद- 211 003, उत्तर पदेश) में तीन ग़ज़लें प्रकाशित, पृष्ठ सं. 55.      
·       नेहू ज्योति’, विश्वविद्यालयीय पत्रिका में कुछ ग़ज़लें प्रकाशित
·       परिंदे : एहसास की उड़ान’ वेब पत्रिका में कुछ ग़ज़लें प्रकाशित
·       सुख़नवरी’ वेब पत्रिका में कुछ ग़ज़लें प्रकाशित
मुशायरा/कवि-सम्मलेन : 
¨   ‘अंजुमन प्रकाशन’ द्वारा आयोजित ‘प्रथम अंतर्राष्ट्रीय ग़ज़ल संगोष्ठी’ दिनांक 10-12 ऑक्टूबर, 2015 इलाहबाद, उत्तर प्रदेश, भारत में सहभागिता
¨   ‘लेख्य-मंजूषा’ द्वारा आयोजित ‘बज़्म-ए-सुख़न: अखिल भारतीय कवि-सम्मलेन एवं मुशायरा’ दिनांक 22 जनवरी, 2017 पटना, बिहार, भारत में सहभागिता      
सम्मान :
·       कला संस्कृति मंच, भारतीय जनता पार्टी, बिहार प्रदेश द्वारा ‘भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी कला साहित्य साधना सम्मान – 2016’ दिनांक: 14-12-2016, स्थान: स्व. कैलाशपति मिश्र सभागार, भाजपा प्रदेश कार्यालय, पटना
·       संस्कार भारती पलवल द्वारा आयोजित चित्रकला प्रदर्शनी एवं काव्य गोष्ठी के दौरान काव्य संस्कार सम्मान – 2016दिनांक: 25-12-2016, स्थान: गाँधी आर्ट गैलरी, सुल्तानपुर, नई दिल्ली
·       फ्रेन्ड्स यूथ क्लब फरीदाबाद (हरियाणा) द्वारा ‘काव्य-शिरोमणि-2016दिनांक: 24-10-2016, स्थान: फरीदाबाद        
स्थायी पता :
रामनाथ शोधार्थी
रघुनन्दन आवास, वार्ड न. -13,
ग्राम: सुरौधा कोलनी, पोस्ट + थाना : कोईलवर
जिला : भोजपुर
पिन :  802 160
बिहार, भारत  
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कवि-परिचय:

नीचे डॉ. रामनाथ शोधार्थी को बहुत करीब से जाननेवाले एक ब्यक्ति द्वारा दिया गया उनका साहित्यिक परिचय दिया जा रहा है. परिचयकर्ता ने अपना नाम ब्यक्त करने की अनुमति नहीं दी है.

Following here is the Introduction of the poet by a person who closely knows him though prefers to conceal his identity:

अँधेरे का नुमाइंद: नहीं हूँ
उजाले मैं तेरा चमचा नहीं हूँ
मेरा लह्ज़: बुरा है पर करूं क्या
ज़बां है और मैं गूंगा नहीं हूँ.
 
       आइए एक ऐसे जुगनू की बात करें जिसे उजाले से मुहब्बत तो है, लेकिन उजाले की चमचागिरी और उधार की रौशनी से नफ़रत. एक मामूली शख्स की बात जो अपनी कमउम्री में ही ग़ैरमामूली शेर कहता है. भोजपुर ज़िले के कोईलवर प्रखंड अवस्थित ग्राम सुरौधा कॉलोनी में शिक्षक जंगबहादुर चौधरी एवं सोना देवी के घर उत्पन्न रामनाथ ‘शोधार्थी’ बचपन से ही मेधावी रहे हैं. प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा से लेकर स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई भोजपुर ज़िले से करने के पश्चात् पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिल्लोंग, मेघालय से उन्होंने से पीएचडी (जंतु-विज्ञान) किया एवं वर्तमान में बिहार की राजधानी पटना के अधिवासी हैं. शोधार्थी जी चार भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटे हैं. आज बात एक शोधार्थी की नहीं एक शायर की जो जवानी की चौखट पर पाँव रखने से पहले ही शायरी से दामन उलझा चुके हैं. इनको पढ़कर सहसा इनकी उम्र का अंदाज़ा लगाना एक दुष्कर कार्य है. किसी रचनाकार का अपनी रचना के प्रति क्या चाहत होती है इस शेर में देखें-

मिलाकर देख लीजे शक्लोसूरत
मेरी ग़ज़लें मियां मुझपर गईं हैं

     आशिक़ाना ग़ज़लें भी ख़ूब कहते हैं एक नवीनता लिए इनका ज़दीद लबो-लह्ज़ा, इनकी ज़बान बाक़ी के शायरों से बिलकुल अलहदा होने के बावज़ूद गंगा-जमुनी संस्कृति को संवहन करती हुई प्रतीत होती है.

आजकल सीरिअस बहुत हो तुम
वाक़ई प्यार हो गया है क्या

तुम्हारे नाम के जैसा हसीन लफ़्ज़ नहीं
अगर कहो तो तख़ल्लुस बनाये लेता हूं

मेरे लिए भी अज़ीज़ो ग़ज़ल तलाश करो
ज़बाँ 'क़ुबूल है' कहने को छटपटाए है 

    मुँह का ज़ायक़ा बदलने के लिए या यूँ कहें ख़ुद को अच्छी तरह संप्रेषित करने के लिए ये तंज़ का बख़ूबी इस्तेमाल करते हैं.

मुल्क पर सबकी हिस्सेदारी है
कुछ मुझे भी ख़राब करने दो 

'अदब' क्या है बताने की सनक में
उतर आई है बेअदबी पे दुनिया

गाली-गलौज के ही बहाने चलो सही
जारी है बोलचाल ज़माने से अब तलक

      शायर जिस माहौल में उठता बैठता है और सांस लेता है उसका असर भी लेता है. आज के माहौल के ऊपर यह तंज़ तो देखिए ज़रा-

इतने आज़ाद हैं यहां के लोग
क़ैद हैं मज़्हबी किताबों में 

बड़ा मैं जैसे-जैसे हो रहा हूं
मेरे अंदर का भारत घट रहा है 

'तिलिस्मी पेड़' के क़िस्से मेरा हर ख़्वाब कहता है
हक़ीकत कह रही है पेड़ पर पैसे नहीं लगते

       एक तरफ़ इनकी शायरी में भूत-वर्तमान और भविष्य तीनों का समावेश है, वही एक तरफ फ़न के लिहाज़ से इनकी शायरी बेऐब है, शायरी के नियम-उपनियम सभी का अक्षरश: पालन करते हैं. उर्दू पर इनकी पकड़ भी क़ाबिले-तारीफ़ है जो ज़ा-ब-ज़ा इनकी शायरी में दिखाई पड़ जाती है. अपने अस्तित्व की मौज़ूदगी बताने की छटपटाहट भी है कहीं न कहीं इनके जेह्न में तभी तो कहते हैं-

ख़त्म यह इंतिज़ार कब होगा
ज़र्र: जल्व:निगार कब होगा
अय अदब तेरे ख़ाकसारों में
नाम मेरा शुमार कब होगा

       इस शेर के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे –
ये जो शुह्रत की भूख है न मियां
पेट की भूख से भी बदतर है 

      वे किसी भी विषय-वस्तु पर अधिकारपूर्वक कलापूर्ण ढ़ंग से शेर कहते रहे हैं. इनके अशआर में आम लोगों की छोटी-छोटी संवेदनाओं का पुट मिल जायेगा. संगीत और चित्रकारी का शौक़ रखनेवाले डॉ. शोधार्थी शायरी को एक जुनून की तरह देखते हैं. लतीफ़ागोई के ज़माने में ग़ज़लगोई करनेवालों में शुमार डॉ शोधार्थी जिन्हें आलिम (विद्वान) कान लगाकर सुनते हैं और जो लिखते हैं उसपर समकालीन सर धुनते हैं. अपने परिवेश को शायरी में ढालना इन्हें बख़ूबी आता है. यह शेर देखिए ज़िंदगी की आपा-धापी के बीच से कैसे लम्हे चुरा रहे हैं-

यह जगह तेरी हो गई कैसे
पहले रूमाल मैंने रक्खा था

वक़्त पल-पल जहां बदलता हो
कम नहीं आदमी बने रहना 

भरोसा उठ गया है अब सभी से
ख़ुद अपना हाथ थामे चल रहा हूं

      आत्मविज्ञापन का कोई लोभ नहीं और चुपचाप साहित्य-साधना में लीन हैं. आज जहाँ ग़ज़ल के नाम पर दिखावापन,छलावापन न जाने क्या-क्या परोसे जा रहे हैं, वही डॉ शोधार्थी एक साधक की तरह अपना साहित्यिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं. इनको पढ़कर सुनकर एक अद्भुत संतुष्टि का आभास होता है और लगता है कि शायरी अच्छे हाथों में है अभी भी ज्वलंत है, ज़िन्दा है. शेर में जिस चीज़ का बयान करते हैं हूबहू तस्वीर खींचकर रख देते हैं-

किसी कांटे में अपना दिल फंसाकर
तुम्हारे दिल के अंदर छोड़ दूंगा

ज़िंदगी खेल है कबड्डी का
सांस टूटी तो मर गए समझो 

मैंने काग़ज़ पे लिख दिया था दरख़्त
सब परिंदे उतर के बैठ गये

इन फटी आंखों को रफ़ू कर ले
तेरे जज़्बात दिखते रहते हैं

चाय है गर्म बस तुम आ जाओ
आज नमकीन सी तबीअत है 

    पिटे-पिटाये हुए, चबाये हुए मज़मून से कोसों दूर रहनेवाले, सख्त नफ़रत करनेवाले सचमुच एक शोधार्थी की तरह अपने शेर कहने के लिए नया नया पहलू तलाश लेते हैं. हर क़िस्म के ख़याल को जिस रंग में चाहते हैं, कह जाते हैं. कभी तशबीह (उपमा) के रंग में सजाकर इश्तआरा (उदहारण) की दुनिया बसाते हैं तो कभी बिलकुल सादे लिबास में अपने फन का मुज़ाहिरा करते हैं, जल्वा दिखाते हैं. मगर ऐसा कुछ कह जाते हैं कि दिल में नश्तर सा खटक जाता है और मुंह से कभी वाह तो कभी आह अनायास ही निकल जाती है. जिन महानुभावों को मेरी बातों से इत्तेफाक़ नहीं वो उनकी शायरी को पढ़ के देखें, मेरी बातों पर यक़ीन आपको ख़ुद-ब-ख़ुद आ जायेगा. मालूम होता है उनके होंठों पर हर भाव के अनुरूप शब्दों के ख़ज़ाने हों. यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे बारीक़ से बारीक़ मतलब और पेचीदा से पेचीदा विषय को इस सफ़ाई से अदा कर जाते हैं गोया एक शरबत का घूँट था जिसे कानों के रस्ते पिला दिया गया. इसीलिए इनकी शायरी आम आदमी की समझ में आनेवाली शायरी है. वे नए प्रयोग करने से भी नहीं चूकते. अपने समकालीनों में इनका बढ़ता क़द इनके कलाम की पुख्तगी की बानगी है. अपने समकालिनों को चेतावनी भी देने से बाज़ नहीं आते- 

गुमां मत कर कि है तेरी बदौलत रौनक़े-महफ़िल
ग़ज़लवालो यहां हम हैं तो ये बाज़ार चलता है

       मुशायरे में जाना बहुत पसंद नहीं करते, कारण जो भी हो लेकिन हम सब जानते हैं की आज मुशायरों की क्या स्थिति है, पर दोस्तों की मुहब्बत के चलते यदा कदा पहुँच ही जाते हैं. कभी-कभी आलोचना करनेवालों को भी दो टूक जवाब देने से नहीं चूकते यह कुछ अशआर देखें-

शाख़े ग़ज़ल पे क़ब्ज़: है तीतर बटेर का
कह दो कबूतरों से करें इंतिज़ार और

पिलाके ख़ून-ए-जिगर मुफ़्लिसी में पाला है
हमारी ग़ज़लें तेरी दाद की मोहताज नहीं 

हमारा काम है जज़्बात को बयां करना
ग़ज़ल हुई कि नहीं आप सोचते रहिए

तू इसे कह मुशायरा लेकिन
यह मुझे क़ब्रगाह लगता है 

नाचना - गाना ही जब है तो करो नौटंकी
किसलिए ग़ज़लों की पल्लू में छुपे बैठे हो
.........
















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