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अतृप्त तुच्छ जिज्ञासाएँ
अतृप्त तुच्छ जिज्ञासाएँ
(See English version of this review at http://biharidhamaka.blogspot.in/2017/05/peeli-scooter-wala-aadmi-staged-in.html?m=0)
मानव कौल की कहानी 'पीले स्कूटर वाला आदमी' एक बार में कई बिंदु उठाती है - परिवार के किसी सदस्य से कुछ जानकारी छिपाई क्यों जाती है? क्यों लोग दूसरों की प्राकृतिक जिज्ञासु वृत्ति का सम्मान नहीं करते हैं? क्यों लोग दूसरों की भावनाओं के लिए कुछ महसूस नहीं करते और मानव भावनाओं से रहित जीवन जीते हैं और वह भी केवल यांत्रिक तरीके से। नाटक का विषय इतना अमूर्त् है कि दर्शकों को आकर्षित करने के लिए शायद ही इसमें कुछ हो, और मुझे लगता है कि बीस सालों के जिज्ञासु दर्शक के अनुभव के बाद भी मैं उनमें से एक हूं।
मन की शान्ति को छोड़कर मुख्य चरित्र (नायक) के जीवन में सब कुछ है। दो अत्यधिक सरलीकृत लेकिन अनुत्तरित सवाल दिन-रात उसे सालते रहते हैं - एक है "क्यों दादाजी को इंदिरा गांधी की मौत के बारे में नहीं बताया गया?" और दूसरा "क्यों उसके पिता हमेशा पीले रंग के स्कूटर की सवारी करते हैं?" उनके पिता बहुत चिंतित हैं और उसके बारे में काफी ख्याल रखते हैं, परन्तु उसके इन तुच्छ सवालों के जवाब देने की आवश्यकता कभी नहीं महसूस नहीं करते। और यही वो महत्वपूर्ण सवाल हैं, जिन्होंने मुख्य नायक के जीवन से सभी सुख का हरण कर लिया है। नायक की एक प्रेमिका है जो हमेशा अपने प्रेमी के साथ अपनी बातचीत यूँ शुरू करती है "..तो क्या अब मैं कपड़े उतारूँ?" नायक इस अजीब प्रेम संबंध के स्वरूप पर स्तब्ध है जिसमें शारीरिक संबंध छोड़कर कुछ नहीं प्राप्त होता है ।
नायक की मां अपने बेटे के प्रति बहुत प्यार करती है, परन्तु स्पष्टतया उसके ससुर अर्थात दादाजी के लिए एक कठोर महिला है। टीवी देखना पसंद करते हैं और वह कार्यक्रम को नहीं देखते हैं, वास्तव में वे टीवी कार्यक्रम के देखते नहीं हैं बल्कि अनुभव करते हैं। उन्होंने अपनी हस्ती को कार्यक्रम के दृश्यों के सुपूर्द कर दिया है। दुर्भाग्य से वह अपने बोलने की क्षमता खो देते हैं लेकिन फिर भी वह टीवी देखने को पसंद करते हैं। नायक की मां मामूली कारणों से दादाजी की इस अभिरूचि को नहीं पसंद करती है। अंततः वह अपने ससुर (दादाजी) को उस कमरे में बैठने पर प्रतिबंध लगाती है जहां टीवी स्थापित है। अब उस बूढ़े आदमी को अपने छोटे कमरे में ही सीमित रहकर पूरी तरह अकेलेपन में रहना पड़ता है। यहां तक कि नायक भी उनके कमरे में प्रवेश करने से बचता है क्योंकि उसे डर है कि अगर दादाजी ने उन पर हुए अत्याचार के बारे में कुछ भी क्रोधवश बोलने की कोशिश की तो वे "भोजन" और "पानी" भी नहीं बोल सकेंगे। दरअसल अब वह पूरी तरह से केवल तीन-चार शब्द ही बोल पाते हैं दिन-भर में।
कुछ दिनों के बाद दादाजी मर जाते हैं और नायक अभी भी अपने बेहद आसान दो सवालों के जवाब पाने में असमर्थ है। हालांकि वह जवाब जानता है। पहला सवाल का जवाब है, "दादाजी को इंदिरा गांधी की मृत्यु के बारे में सूचित नहीं किया गया था क्योंकि वह इस स्थिति में प्रसारित अंतिम संस्कार और भजन कार्यक्रमों को देखने के लिए जोर दे सकते थे और इस तरह नायक की मां को परेशानी हो सकती थी। " दूसरे सवाल का जवाब है, "उनके पिता केवल पीले स्कूटर का इस्तेमाल करते थे क्योंकि वह अपने स्कूटर को 'भगवा' रंग में रंगना पसंद नहीं कर सकते थे, जिसने किसी एक धर्म के अंध-समर्थक उन्हें समझा जा सके उसी तरह से वो हरा रंग पसंद नहीं करते थे जिससे उन्हें दूसरे समुदाय के चरम गुट के समर्थक के रूप में समझ लिया जाता।" पीला रंग ही तटस्थ रंग था। लेकिन नायक को अगर ये बातें बता दी जातीं तो शायद जीवन उसके लिए ज्यादा आसान होता।
समीक्षा: निर्देशक-सह-निर्माता स्वरम उपाध्याय को बेहद अमूर्त विषय के नाटक का चयन करने की हिम्मत दिखाने के लिए प्रशंसा होनी चाहिए. आत्मकथ्य और सपने के दृश्य दिखाने के उनके तरीके शानदार थे जिसमें उनके चारों ओर सहायक अभिनेताओं के द्वारा नायक के आंतरिक मन का अभिनय किया जा रहा था। अभिनेता विवेक कुमार, अभिषेक आर्य, सौरभ कुमार, विनीता सिंह और स्वरम उपाध्याय अपनी भूमिकाओं में जँचे और उल्लेखनीय लोगों में नायक, दादाजी, नायक की प्रेमिका, नायक के पिता और नायक की मां शामिल थे। जाफर और राजीव रॉय ने मंच के पीछे से अपना बहुमूल्य समर्थन दिया।
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(देखें 10 छायाचित्र नीचे)
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