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Saturday, 24 October 2015

‘अनिमेष’ की ‘आशंका से उबरते हुए’ : एक समीक्षा - हेमन्त दास ‘हिम’ [ 'Animesh' ki 'Ashanka Se Ubarate Hue' : Ek Smiksha - Hemant Das 'Him' ]



              आशंका से उबरते हुए पुस्तक की समीक्षा
              समीक्षक -हेमन्त दास हिम
              ई-मेल – hemantdas_2001@yahoo.com
              पुस्तक के रचयिता का ई-मेल: bhagwatsharanjha@gmail.com
              पुस्तक के रचयिता का मोबाइल नं.:91-8986911256

कवि- भागवत शरण झा अनिमेष की यह काव्य-कृति आशंकासे उबरते हुए जीवन-संघर्ष के तत्कालिक और दीर्घकालिक नतीजों के सम्बंध में भयपूर्ण मानसिकता के विरुद्ध एक सशक्त विद्रोह है. प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित यह हार्डबाउंड प्रथम संस्करण समाज और व्यवस्था के संबंध में सुध रखनेवाले सभी संवेदनशील पाठकों के लिए एक आवश्यक, संग्रहनीय और पठनीय कृति है.

कठिन से और भी ज्यादा कठिन और जटिल से और भी ज्यादा जटिल होते जा रहे समकालीन मानव-जीवन में हर कोई किसी न किसी भय से आक्रांत है, आशंका से ग्रस्त है. आज उसके हाथ-पाँव चल रहे हैं तो वह अपना पेट भरने में सक्षम है, कल लाचार हो जाएगा तो क्या होगा? आज के कुटिल पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने में वह अपना सबकुछ झोंककर जो थोड़ा-बहुत सम्मान अर्जित कर पाया है वह कल सुरक्षित रह पाएगा या नहीं. आशंकासे उबरते हुए शीर्षक (पृ.५२) कविता में कवि कहता है:
“ऐसा क्यों सोचूँ कि प्रलय होगा
ऐसा क्यों न सोचूँ
कि प्रलय के बाद एक बार फिर
जीवन जीवन होगा”
स्पष्ट है कि कवि की आनन्द-प्राप्ति की यह खोज सायास है, संघर्षों में उठते-गिरते हुए प्राप्त तत्वज्ञान का परिणाम है. जो कुछ भी आपके पास है और आपके परिवेश में है आप अगर उसके सुधार के बारे में प्रतिबद्ध हो जाएँ तो वही जीवन को सम्पूर्ण रूप से आनन्दित रखने के लिए पर्याप्त है.

डर का एक सुन्दर चित्र कवि ने ”रे मोहन” (पृ. ५६) शीर्षक कविता में प्रस्तुत किया है:
“इस पार न आना रे मोहन
चुगना मत दाना रे मोहन
माया में राम भ्रुलाए तो
मतलब-
फँस जाना रे मोहन!”
भौतिकतावाद का यह डर दिन-प्रतिदिन अधिक प्रासंगिक होता जा रहा है.

जीवन की भाग-दौड़ में अवसर चूकना कितना मँहगा पड़ सकता है, देखिये “8.13 की फास्ट लोकल ट्रेन” शीर्षक कविता (पृ. ६५) का अंश-
“समय कम है
पलक झपकते आप च्ढ़ गए, चढा दिए गए
लद गए, लदा दिए गए
ठूँस दिए गए, ठूँसा दिए गए तो ठीक है
वर्ना पायदान का आसरा है
लटकते रहिए”

छुटकी छउँरी शीर्षक कविता (पृ.१४)में कवि पहले तो बच्ची के भोलेपन की पृष्ठभूमि रचता है फिर रामायण को एक मुहावरे के रूप में इस्तेमाल करते हुए स्त्री-शोषण के कटु यथार्थ को अत्यंत सांकेतिक तरीके से पाठकों के समक्ष उकेर देता है:

(पहले-)
“अलग है उसके हँसने का व्याकरण
रोने-गाने का गणित
तुतलाकर टुन-टुन बोलने की शैली”

(फिर-)
“अभी-अभी किसी विदेह को
.. मिली है
एक दिन धरती में समा जाएगी
छउँरी..!”

अनिमेष की भाषा में देसीपन है, मिट्टी की सौंधी सुगंध है. परिछन-गीत(पृ.११६), ‘हइया हो(पृ.११८), ‘गीत(पृ.११९), ‘धम्मक-धम्म…’ (पृ.१२२) आदि इसके उदाहरण हैं.

कवि को रोष है व्यावस्था में घुसे आत्मवाद से. कूड़ा शीर्षक कविता (पृ. १६) में व्यक्तिमात्र के सोंच में कुण्डली मारकर सर्प की भाँति बैठी संकीर्णताओं पर करारा चोट करते हुए कवि कहता है-
“हम अपने बाहर-भीतर झाँककर देख लें
कितना पसर गया है कूड़ा
रेंग रहे हैं यत्र-तत्र-सर्वत्र
स्वार्थ के कीड़े
उड़ रहे हैं अहं के विषाणु.”

अनिमेष का सरोकार मध्यम वर्ग की अपेक्षा सामाजिक-आर्थिक मानदण्डों पर सबसे निचली श्रेणी के लोगों से कहीं ज्यादा है. अच्छन मियाँ शीर्षक कविता (पृ.५५) में ताबूत बनानेवाले अच्छन मियाँ की ताड़क दृष्टि से कवि भयभीत है कि कहीं अच्छन मियाँ के रूप में ईश्वर उसके अंतर्मन में छुपी हुई बुरी बुरी भावनाओं को समझ तो नहीं गया है-
“आज सुबह-सुबह
अच्छन से मिली नजर
और मेरे होश उड़ गए
वे ऊपर से नीचे तक निरखते रहे मुझे लकडियों की तरह
और मुझे काठ मार गया”


समाजिक-आर्थिक के अलावे विषमताओं के अन्य आयाम जैसे कि स्त्री-शोषण भी कवि की ग्रहणबोध से बच नहीं पाये हैं. नारी चाहे शिशु हो, युवा हो या वृद्ध हो- कवि की रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती है और कवि बार-बार मर्माहत होता है उसकी नियति को  देखकर.
माँ और आलता रचे पाँव शीर्षक कवितओं जैसी अनेक कवितओं में कवि उनकी पीड़ा को आत्मसात करते हुए दिखते हैं.

“मन :एक परदा” (पृ. २७) कवि की एक उत्कृष्ट रचना है जिसमें उन्होंने बड़े ही आकर्षक ढंग से एक वृद्ध की बेरंग दशा को परदे के बहाने प्रस्तुत किया है. देखते बनाता है‌-
“...जितना फरफराता है
उतना ही तार-तार हुआ जाता है”

“पॉलिश....” शीर्षक कविता (पृ.३८) में कवि बड़े ही स्वाभाविक तरीके से मोची के कार्य का विवरण देते-देते ईश्वर पर और ईश्वर के बहाने समकालीन मानव-समाज पर तीव्र कटाक्ष करता दिखाई देता है:
“टूटी चप्पलों को बातों-बातों में
कर देना दुरुस्त
उन्हें ठोंककर, पुचकारकर, चमकाकर हँसाना
....मोची को ही क्यों आता है?
क्यों नहीं ईश्वर भी मोची की तरह
विलकुल अपना होकर
पूछता है मेरा हाल....चाल?”
यहाँ ईश्वर के रूप में प्रतिरूपित समाज और उसकी व्यवस्था से अपना हाल-चाल पूछे जाने की प्रतीक्षा कर रहा है संसाधनविहीन जनसाधारण. निस्संदेह कवि की संवेदना और उसका व्यक्तिकरण अत्यन्त प्रभावकारी है.

यह कवि की पैनी दृष्टि ही है कि वह “झाड़ू शीर्षक कविता (पृ. ४३) में झाड़ू को सबसे बड़ा कर्मण्य घोषित करता है-
“वह अर्जुन नहीं है
लेकिन जहाँ भी गंदगी है वहीं है इसका कुरुक्षेत्र
बिना किसी कृष्णा के”

कविता लिखना कोई शौक नहीं है, विवशता है क्योंकि अगर कुछ करने की शक्ति न बची हो तो औरों को कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देना श्रेयस्कर है. उठाईगीर शीर्षक कविता (पृ.४८) में कवि कर्मयोगी की तरह कहता है-
“एक अच्छी कविता लिखने से अच्छा है
पूरे जीवन में कम-से-कम एक उठाईगीर की शिनाख्त करना”

उसी कविता में यह साहसी और निडर कवि विधायिका और न्यायपालिका की गिरावट पर भी करारा प्रहार करने से भी नहीं चूकता है. यह प्रहार चरम है:
“उचक-उचककर उचक्के उठाईगीर
संविधान से ऊँचे होने की जुगत लगा रहे हैं
कानून से निष्पक्षता चुरा रहे हैं”


      लोक के परिष्कार में लीन कवि जीवन के अन्तिम सत्य को विल्कुल नहीं भूला है. गुलबी
 घाट शीर्षक कविता (पेज -१३४) में कवि ने सफल जीवन का वैराग्य मंन्त्र दिया है. निम्न पंक्तियों में तत्सम और विदेशज शब्दों की अद्भुत युगलबंदी देखने योग्य है-
.”... और गुलबी घाट 
जीवन के लिए पूर्णतः प्रासंगिक 
यम की पादटिपण्णी है 
गुलबीघाट की चिता का आलोक 
वैराग्य के लिए पासवर्ड है.”
काश, यह पासवर्ड सिर्फ प्रियजनों को चिताग्नि देते समय हमें हमेशा मालूम रहता तो जीवन में कलुषता आती ही नहीं.

खुशमिजाज लड़कियाँ” शीर्षक कविता (पृ.१२८) में कवि माया के भ्रमजाल से साधारण जन को आगाह कर रहा है बड़े ही कावित्यपूर्ण ढंग से –

“इनकी मुस्कराहट देखकर हम भूल जाते हैं 
की इनकी मुस्कराहट कितनी कैरेट की है”

यह सिद्धस्त गम्भीर कवि भी मानव ही है और खुलकर हँसना भी जानता है. यौवनसूक्त शीर्षक कविता (पृ.१२७) मे कवि ने सम्प्रेषण हेतु हास्य-व्यंग्य का सहारा लिया है परन्तु मुद्दों से भटका नहीं है-
“पेट में भले न हर्रे 
सूझे हैं 
इनको गुलछर्रे 
कंधे पर थैला लटकाए 
नैनन पर ऐनक अति भाए 
जहँ-तहँ फिरते 
चोंच मिलाए पंछी दो आजाद”

मन की सारंगी शीर्षक कविता (पृ.१२४) में कवि दिनकर की शैली में जीवन को हर रूप में भजने का संदेश दे रहा है-

“आज हुआ मेरा मन चन्दन 
सुनो, सुनो करुणा के क्रंदन 
हम हैं मानव, देव नहीं हैं 
जीवन भजते हैं 
मन की सारंगी में जग के सब राग बजते हैं”

सच है, जीवन का कोई रंग व्यर्थ नहीं है. कुछ आपको सीधे-सीधे उल्लसित करते हैं तो कुछ आपको उस दिशा में बढ़ाने का प्रयास करते हैं जहाँ आप स्वयँ और समुच्चय के लिए सार्वकालिक आनन्द का अन्वेषण कर सकते हैं.

माँ शीर्षक कविता (पृ.११५) में एक पूरे मानव समाज की बनाने-सँवारने वाली नारी की प्रौढ़ावस्था की करुण दशा से कवि को बहुत चोट पहुँच रही है-

“माँ बेटों में बँटकर रह गई हैं 
अपनी बेटियों में बह गयी हैं 
अपने अदारिस पति में 
समा गयी है”

बदलाव शीर्षक कविता (पृ.११२) में जीवन के खालीपन के स्थायी पड़ाव का चित्र एक वियोगी कलाकार की भाँति प्रस्तुत करने में सफल रहा है.
“रह जाएगा कोई 
खालीपन जीता 
जेब की तरह, आकाश की तरह 
तूफ़ान के बाद खाली और तबाह 
बंदरगाह की तरह”

सच में, वियोग की ये उपर्युक्त उपमाएँ कितनी सटीक और सजीव हैं-

अथ चम्मच कथा शीर्षक कविता (पृ.१०९) में कवि एक साधारण व्यक्ति की नि:शक्त्तता को बड़े ही सुंदर ढंग से महाभारत की शब्दावली में दर्शाया है-

“आज के युग का मैं अंधा अर्जुन हूँ 
चम्मचों का विराट रूप देखकर भी मैं उसे अनदेखा कर रहा हूँ 
भीतर से राष्ट्र की तरह कमजोर हूँ”

नाचघर शीर्षक कविता (पृ.१०५) का दूसरा और तीसरा पैरा नाचघर के अंदर और बाहर का दृष्य दिखाने के बहाने मानव-जीवन के बाहरी चमक-दमक और अंदुरूनी घिनौनेपन के विरोधाभास की वास्तविकता से परिचय कराया है-

हारमोनियम शीर्षक कविता (पृ.१०३) में कवि एक वाद्ययंत्र के अवतार में आया है और अपनी संवेदनाओं को गाते दृष्टिगोचर होता है-

कोई देखे और दिखाए दिल के दाग 
कोई समझ पाए मेरे मन के राग”

एक और गधे की आत्मकथा शीर्षक कविता (पृ.१००) में निनानवे के चक्कर में फँसे लोगों को सीख देते नजर आते हैं. उनकी आत्मकथ्यात्मक शैली का चुनाव पूरी तरह उचित है.

“उस समय था थोड़े में संतुष्ट 
आज ज्यादा पाकर भी बदहवास हूँ 
नगर निगम के नाले में वजूद बचाने के लिए 
जुगत भिड़ाती मछली की तरह”
नगर निगम और मछली के बिम्ब केवल अनिमेष जैसे मँझे हुए कवि के वश की बात है.

दीमकें शीर्षक कविता (पृ.९९) में कवि रचनात्मकता को खानेवाले दीमक नहीं वल्कि कलात्मकता का निर्माण करनेवाले रेशम बनने का परामर्श दे रहे हैं-
“आइए, एक पल के लिए बन जाएं रेशम का कीड़ा 
अपने तरीके से बचा लें अपना ब्रह्माण्ड 
……
हमारा प्यार ही हमारी बीमा है 
किसी भी विध्वंश के पूर्व 
हर त्रासदी के बाद”

दीमक और रेशम के कीड़े हैं तो आखिर कीड़े ही. आगर हम दीमक बन सकते हैं तो रेशम क्यों नहीं? प्यार को बीमा कहना भी एक अनूठा प्रयोग है.

शैतान को पत्थर मारते लोग शीर्षक कविता (पृ.९२) में कवि साहस का परिचय देकर कहता है-

“तुम जहां पत्थर मार रहे थे 
मैं वहाँ नहीं था 
मैं तो तुम्हारी रगों में था 
नजर में था, नजरिये में था”
निश्चय ही दूसरों पर पत्थर मारने से  शैतान का नाश नहीं होनेवाला है. वह तो तब मरेगा जब हम अपने हृदय के अंदर के शैतान को मारेंगे-

जोंक-श्लोक शीर्षक कविता (पृ.९०) में उपेक्षित वर्ग के शोषकों से घिरे होने का जो वर्णन किया है वह अतुल्य है. जो मुख्यधारा से कटा रह गया वह बन गया ग्रास शोषक पशुओं का.

“नदी से काटकर असहाय हो गया है 
यह सोता 
इस सोते में मत जाना 
इसके जल में अनेक भय हैं 
अनगिनत केंकड़े, मगरमच्छ, जोंक”
कवि इस महान सोच के लिए साधुवाद के पात्र हैं.
अथ उत्सव प्रसग शीर्षक कविता (पृ.८४) में कवि विंधित हृदय के लिए भी मरहम की खोज में लगे हैं-

अब भी उत्सव के कई उत्स शेष हैं 
अब ही खुश रहने के कई कारण हैं


अनिमेषपारिवेशिक यथार्थ के रूखेपन से इतना अधिक उद्विग्न हैं कि उन्हें अपनी सुध नहीं रही है और वो पूरी तरह समाज के, देश के होकर रह गए हैं. अनिमेषजिसकी सोच के परिष्कार की चिन्ता कर रहा है वह व्यक्ति नहीं व्यष्टि है. कवि की दृष्टि का कैनवास बहुत विस्तृत है. कवि की चिन्ता लिकहित में है न कि लोकप्रिय बनने में.

प्रस्तुत पुस्तक यूँ तो मुख्यत: मुक्तछ्न्द शैली में परन्तु बीच-बीच में गीत भी हैं और लोकगीत शैली का भी कवि ने बखूबी प्रयोग किया है. कवि अनेक कविताओं में सीधे, सपाट रिपोर्टाज शैली पर भी उतर आये हैं. कविताएँ न तो छोटी हैं न लम्बी. हाँ कुछ कविताओं को शायद थोड़ा और छोटा किया जा सकता है क्योंकि आजकल पाठक को समय की भारी कमी है.

बहुत-सी कविताएँ पाठक को गम्भीर विचारों की गह्वर में ले जाती हैं, कुछ ऐसी भी हैं जो हार रहे मनोबल को उच्च पर्वतों के शिखर तक ले जाने की क्षमता रखती है. कुछ कविताएँ दर्शन कराती हैं नैसर्गिक जीवन के शुद्ध सौंदर्य का तो कुछ उस अनछुए जीवन की पवित्रता का भी जो किसी भी तरह के कृतिमता से अब तक परे है.

आरम्भ से अन्त तक कवि मुद्दों पर अडिग रहा है- अन्याय, विषमता और उपेक्षा से घायल कवि को अवसर ही नहीं रहा है विलासिता में जाने का,

कुल मिलाकर आशंका से उबरते हुए कवि भागवत शरण झा अनिमेष की एक शेष्ठ काव्य-रचना है जो बारम्बार पठनीय है. जो जितना पढेगा उतना ही उसका साक्षात्कार होगा स्वयं से, समाज से और शोषण के विभिन्न रूपों से कराहती मानवीयता से. निश्चय ही पढ़नेवाले को आनन्द मिलेगा स्वयँ एवं समाज को दर्पण में साफ-साफ देख पाने का और संतोष मिलेगा अपनी चेतना के पूर्ण परिष्कार का.

“आशंका से उबरते हुए पुस्तक की समीक्षा
समीक्षक -हेमन्त दास हिम
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