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# DAILY QUOTE # -"हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर तक जाती है/ सीटी बजाती हुई / धुआँ उड़ाती हुई"/ Every good man has a rail / Which goes to his mother / Blowing wistles / Making smokes [– आलोक धन्वा, विख्यात कवि की एक पूर्ण कविता / A full poem by Alok Dhanwa, Renowned poet]

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Monday 14 May 2018

जनशब्द द्वारा टेक्नो हेराल्ड, पटना में 13.5.2018 को आयोजित कवि गोष्ठी सम्पन्न

ये दुनिया तो प्यार से इतनी खाली है / और हम हैं कि शैतान बनाते रहते हैं




जब हमारे शब्द अनुभव की आँच में सीझते हैं तो कविता का जन्म होता है और यह सीझे हुए अन्न की तरह आसानी से गले के नीचे उतर जाता है. कार्यक्रम के संचालक राजकिशोर राजन का यह कथन तब और भी प्रासंगिक हो जाता है जब हम जानते हैं कि इन दिनों अन्न के आस्वादन करनेवाले बड़े-बड़े पारखी ध्यान लगाये बैठे हैं कि कैसी कविता का जन्म हो रहा है. कविता में परिपक्वता की कमी को इन दिनों माफी की कोई गुंजाइश नहीं है. 13.5.2018 को पटना जंक्शन के समीप महाराजा कामेश्वर सिंह कॉम्प्लेक्स  में स्थित टेक्नो हेराल्ड में आयोजित कार्यक्रम एक कवि गोष्ठी मात्र नहीं थी बल्कि एक अनौपचारिक जलसा था. प्रभात सरसिज की अध्यक्षता में शहंशाह आलम के सहयोग से सम्पन्न इस कार्यक्रम में दिल्ली, कोलकाता, पटना, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, सुपौल, मधेपुरा, जमालपुर आदि स्थानों से आये राष्ट्रीय स्तर के इतने कवियों ने भाग लिया कि कुछ के नाम गिनाना संभव नहीं है. पूरी सूची रिपोर्ट के अंत में देखी जा सकती है. 

इस अवसर पर दो पुस्तकों और एक पत्रिका के नए अंक का लोकार्पण भी हुआ - प्रणय कुमार रचित  'जंगल गाथा और अन्य कविताएँ', प्रभात रंजन रचित हिंदी उपन्यास 'विद यू विदाउट यू' और रंजीता सिंह द्वारा सम्पादित मासिक 'कवि कुम्भ'. 

सभी कवियों ने विविध मनोभावों की समकालीन कविताओं को प्रस्तुत किया और मातृ दिवस होने के कारण माँ पर अनेक कविताएँ पढ़ी गईं. आदमी को इंसान बनाने वाले मुद्दे बार-बार मुखरित हुए.

'विद यू विदाउट यू' नामक अपने नये उपन्यास से चर्चा में आये उपन्यासकार कवि प्रभात रंजन ने बताया कि यह पुस्तक एक प्रेमकहानी है और उन आयामों को छूने का प्रयत्न करती है जो प्रासंगिक हैं.

'कवि कुम्भ' के नए अंक का लोकार्पण मंचासीन साहित्यकार ध्रुव गुप्त, प्रभात सरसिज, रानी श्रीवास्तव, मुकेश प्रत्यूष आदि के द्वारा किया गया. इस अवसर पर पत्रिका की सम्पादक रंजीता सिंह ने कहा कि पत्रिका ने कम समय में साहित्यिक जगत में अपनी पहचान बनाने में सफलता पाई है. जनता को सीधे-सीधे साहित्य से जोड़ने का कार्य कर रही है यह पत्रिका. 

अरविन्द पासवान ने मातृ दिवस के अवसर पर अपनी चिर-परिचित मुक्तछंद शैली को छोड़ते हुए स्नेहपूर्ण छन्दों में बंधना पसंद किया-
मइया की ममता में भूखे प्यासे रहते भी
दिन खिल उठता था, रात भी चमकती थी

अरबिन्द श्रीवास्तव ने रौशनी के बड़े नक्काश साबित हुए-
हम रात के सीने पर करेंगे / रौशनी की नक्काशी
मौसम को देंगे मिजाज / सूखे पत्तों में भरेंगे रंग

मुकेश प्रत्यूष को रात में आकाश में टिमटिमाते तारों में अपनी माँ दिखाई दी -
टिमटिमा रहे तारे जो आकाश में / आँखें हैं पूर्वजों की
.... कैसे कहूँ कि बात ज्ञान की नहीं / आस्था की है.

कासिम खुरशीद न सिर्फ झकझोर देनेवाली शायरी करते हैं बल्कि उनका पढ़ने का ढंग भी ऐसा है मानो वे उन पंक्तियों को जी रहे हों. प्यार से पहले से ही खाली दुनिया में हमारा वर्ताव और भी अफसोसजनक है-
ये दुनिया तो प्यार से इतनी खाली है / और हम हैं कि शैतान बनाते रहते हैं
हम जिनको इन्सान बनाते रहते हैं / वो दिल को वीरान बनाते रहते हैं

मुंगेर से आये कुमार विजय ने रास्तों की परिणति को सबके सामने उजागर कर दिया-
तुमने मुझे समझाया था / कि सारे रास्ते मेरी तरफ आएंगे 
मेरी खिदमत में / मेरे समक्ष / नतमस्तक

सुपौल से आये संजय कुमार संज ने मदारियों के अवतारी बनने के झाँसे में न आने को कहा-
कोई कालपुरुष अब अवतारी न होगा
होगा तो सिर्फ मदारी होगा

मंझे हुए शायर ध्रुव गुप्त ने अपने आशियाँ को आंधियों के बीच लाकर धर दिया-
हर तरफ तेज आँधियाँ रखना / बीच में मेरा आशियाँ रखना
तुम रहोगे जहाँ जमीं है तेरी / मैं जहाँ हूँ तुम वहाँ रखना

ज्योति स्पर्श जहाँ एक ओर अपने युवा प्रेम की उन्मत्त तरंगों को खुल कर अभिव्यक्त करती हैं वहीं दूसरी ओर उतनी ही संजीदगी के साथ  शोषित वर्ग के अभिशप्त जीवन को भी बयाँ करती हैं. यहाँ पहले पक्ष को ही देख लेते हैं-
कुछ- कुछ वैसे ही / कि जैसे पहली बार मुझे
बेधड़क आँखों में देखने की तुम्हारी अदा / मेरे दिल को भा गई
और जिन्दादिली से लिपटती जा रही है / चाहतें

रजीता सिंह ने अपने प्रियतम की आँखों को अपना आईना बना लिया-
करीब आ तेरी आँखों में देख लूँ खुद को
बहुत दिनों से कोई आईना नहीं देखा

अंचित एक गम्भीर युवा कवि हैं और अपनी जगह के साथ-साथ जुड़ी तमाम स्मृतियों को भी पुन: पाना चाहते हैं-
मुझे अपनी जगह वापस चाहिए / जो सब छूट गया है
उसकी स्मृति भी - अक्षूण्ण /  जामुन का एक घना पेड़ 
जिसमें छुप जाता था / आसमान में आधा चाँद

अमीर हमजा ने बुरे ख्याल की आफत को अपने दिल से निकालने  को कहा-
अपने दिल में बुरा ख्याल मत रखना
अपने सअर पे आफत बबाल मत रखना

शम्भू पी. सिंह ने बताया कि गोलियाँ भले ही दो नम्बर की हों लेकिन-
बाजार में बंदूक और गोलियाँ दो नम्बर की भी उपलब्ध है
लेकिन इनसे गिरने वाली सभी लाशें एक नम्बर की ही होती है
फिर वे कहते हैं कि-
आदमी कभी नहीं मरता / गोलियों से मरती है मानवता
सदा के लिए / हमेशा हमेशा के  लिए

प्रणय कुमार ने चुप लोगों की मुँह में जुबान देने की कोशिश की-
लिखते हो क्रांति और  / बन जाते हो भींगी बिल्ली
... याद रखना कि चुप्प लोग / अपराधियों की जमात में ही होते हैं

संजय कुमार कुंदन जैसे उम्दा और सक्रिय शायर का होना एक अद्भुत घटना है. पिछले पैंतीस सालों में करीब हजार के आसपास इन्होंने गज़लें लिख डालीं हैंं. हर गज़ल नायाब और गज़ल का हर शेर वजनी. ऐसा लगता है इस उम्दा शायर पर अभी तक साहित्य के पारखियों द्वारा पूरा ध्यान नहीं दिया गया है. बेशुमार शेरों को लिखनेवाले 'कुन्दन' खुद को बेजुबान ऐलान कर रहे हैं-
हर शख्स बोलता है यहाँ और की जबाँ /कुंदन है एक जिसकी जुबाँ बेजुबान है
फिर उन्होंने सूरज के बहाने बड़ी महीन बात कह डाली -
हमको थमा के शाम की सौगात ढल गया  /सूरज मगर कहीं और जाकर निकल गया

ऋतेश पांडेय ने बूढ़े बरगद के पेड़ को गिरते हुए देखा-
गिर गया बूढ़ा पेड़ मेरे गाँव का / झेल नहीं पाया कल रात का झंझावात
औंधे मुँह गिरा है

रौनक अफरोज आईने को झूठ नहीं बोलते देख थोड़ी परेशान सी दिखीं
लाख सँवर कर जाएँ आप रू-ब-रू / झूठ कभी बोलता आईना ही नहीं
को कह रहे हैं हाले-दिल सुनाने को / जबकि ज़िंदगी में कुछ बचा ही नहीं

'हमन है इश्क मस्ताना' उपन्यास के लेखक विमलेश त्रिपाठी ने बैलों के गले की घंटियों की लय को सुना-
मेरे पथराये सपनों में बैलों के गले की घंटियाँ
घुंघरू की तान की तरह लयबद्ध बज रही हैं
फिर उन्होंने उदासी को कविताओं से लम्बी बताया-
कविताओं से बहुत लम्बी है उदासी
यह समय की सबसे बड़ी उदासी है /जो मेरे पास उड़ती हुई चली आई है

अविनाश अम्न ने आज सच को आदाब कर विदा कर दिया-
झूठ का सजता हरदम है दरबार यहाँ / सच को अब आदाब बजाना पड़ता है

श्वेता शेखर को  किसी के प्यार और साथ की जरूरत समझ में आ गई-
पर समझती हूँ अब कि / बहुत जरूरी होता  है / जीवन में प्यार विश्वास और साथ

योगेंद्र कृष्ण ने घर नहीं होने के फायदे गिनाये-
मैं तो खुश हूँ कि / मेरा कोई घर नहीं 
जो बाढ़ में बह-डूब जाए / या जलजला में ढह जाए

नसीम अख्तर ने दीवार को घर नहीं बल्कि दिल को बाँटनेवाली बताया-
वो घर को नहीं बाँट डालेगी दिल को / जो दीवार घर में उठाई गई है
इधर शमा-ए-उलफत जलाई गई है / उधर कोई आँधी उठाई गई है

ई. गणेश जी बागी ने माँ को ब्रह्मांड बताया-
माँ शब्द नहीं खुद में इक ब्रह्माण्ड होती है 
बुरी हवा को दूर से ही जान लेती है

शिव शरण सिन्हा ने तड़पते आदमी की ताकत को दिखाया-
तड‌पता / एक आम आदमी / बहुत ताकतवर होता  है 
वह पलट देता है / तुम्हारे सारे गणित को 
तो मैं क्यों न लिखूँ / उसके बारे में

एम. के. मधु ने एक कतरा उजास की माँग की-
एक कतरा उजास दे दे / मेरे घने कोहरे को मात दे दे
मेरे और तेरे आँगन के बीच जो उठाये दीवारें / ऐसी नफरत से निज़ात दे दे

प्रमोद निराला ने आदमी से वक्त के नखरे नहीं उठाने को कहा-
नखरे क्यूँ वक्त का उठाता है आदमी 
 वक्त के साथ ही बहा जाता है आदमी

जीतेन्द्र कुमार ने टीपू सुल्तान को मुजरिम बनाकर अपनी अदालत में पेश कर दिया-
..उर्फ टीपू सुल्तान / आपकी अदालत के कटघरे में खड़ा है
उसके हाथों में पाक कुरान है / जो अल्ललह के नाम पाक कुरान की शपथ लेता है

विभूति कुमार ने किसी दिलकश चेहरे पर यकीन करने के पहले पूछा-
यूँ यकीं कैसे करें दिलकश किसी चेहरे पे हम 
याद है हमको यकीन किसी पे आया था कभी

लता प्रासर ने माँ के बिसूरने का कारण पूछा-
हाँ हाँ जब जब पत्ते पीले पड़ जाते / हम कुछ कहते कहते रह जाते
खाने से मना कर देते / माँ क्यों बिसूरती है?

रमेश ऋतम्भर ने रहनुमाओं के छ्द्म को तार-तार कर रख दिया-
आप कृपप्या मेरी मजबूरि को समझिए श्रीमान
मैं कोई व्यक्तिवादी, परिवारवादी, जातिवादी,
सम्प्रदायवादी या राष्ट्रदोही नहीं

राजकिशोर राजन ने व्यर्थ निष्क्रिय विलाप को बुरी तरहसे लताड़ा-
पहली बार नदियों के सूखने / बजबजाते सूअर के खोभाड़
और उन वेश्याओं के नकली बहनापे से  / बुरा लग रहा  / तुम्हारा विलाप

हेमन्त दास 'हिम' दशमलव के बाद किसी प्राकृत संख्या के पहले के शून्यों की गिनती करते दिखे-
बिलकुल शून्य सा था मैं/ एक शून्यता के बारे में सोचता हुआ / एक शून्य से वातावरण में
दशमलव के बाद किसी प्राकृत संख्या के पहले के / असंख्य शून्यों की गिनती करता हुआ

शहंशाह आलम ने शोर को सन्नाटे से ज्यादा खौफनाक बताया-
अगर तुम पूछो / कि आदमी को किससे ज्यादा खौफ खाना चाहिए 
शोर से या सन्नाटे से / मैं कहूँगा शोर से

रानी श्रीवास्तव ने उन बच्चों की बात की जो हाथ में चाँद या चाँदी नहीं बल्कि कुछ और चाहते हैं-
ये वो बच्चे हैं जो / नहीं चाहते चाँद / नहीं चाहते चाँदी की कटोरी 
नहीं चाहते कटोरी में दूध-भात / वो चाहते हाथों में रोटी

जयप्रकाश मल्ल ने अलगाव का राग अलापनेवालों के खिलाफ आवाज बुलन्द की-
वतन हमारा भरा हुआ था / अमन, प्रेम, सद्भाव से 
किसने छेड़ा राग यहाँ पर / नफरत और अलगाव के

संजय कुमार सिंह ने भारत की सुंदर तस्वीर खींची-
हरे भरे हों खेत और खलिहान / घर आँगन में हो खुशहाली
न कोई भूखा, नंगा, फकीर हो / ऐसी भारत की तस्वीर हो 

कविता पाठ का समापन सभा के अध्यक्ष प्रभात सरसिज के काव्य पाठ से हुआ. उन्होंने पेड़ों की बतकही की बात का ताना बाना बुना-
अकेले होते हैं दोनों पेड़ तो / बतकही में लकड़हारों के / गर्म सपनों तक चले आते हैं
हरी पत्तियों से उनके सपनों को  / हवा पहुंचाते हैं

अंत में अध्यक्ष की अनुमति से इस कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा हुई. यह कार्यक्रम दिल्ली, कोलकाता, पटना, मुंगेर, सुपौल, मुजफ्फरपुर, मधेपुरा, जमालपुर आदि स्थानों से आये रचनाकर्म हेतु प्रतिबद्ध साहित्यकारों के अनोखे अनौपचारिक जमावड़े के रूप में हमेशा याद किया जाएगा. राष्ट्रीय स्तर की सबसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों में दशकों से महत्वपूर्ण स्थान पानेवाले दर्जनों साहित्यकार इस कार्यक्रम में उपस्थित थे. 
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आलेख- हेमन्त दास 'हिम' / अरविंद पासवान / गणेश सिंह बागी
छायाचित्र- लता प्रासर / ज्योति स्पर्श
नोट्‌ आलेख में सुधार हेतु सुझाव अथवा इस पर अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट पर कमेंट के द्वारा अथवा ईमेल से दी जा सकती है. ईमेल आइडी है- editorbiharidhamaka@yahoo.com
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कार्यक्रम का संक्षिप्त वृतांत (सौजन्य- शहंशाह आलम)
जनशब्द' द्वारा टेक्नो हेराल्ड, महाराजा कॉम्प्लेक्स, पटना में संपन्न हुआ कवियों का समागम।
अध्यक्षता : प्रभात सरसिज
मुख्य-अतिथि : रानी श्रीवास्तव
ख़ास मेहमान : ध्रुव गुप्त ( पटना ), क़ासिम ख़ुर्शीद ( पटना ), मुकेश प्रत्यूष ( पटना ), रंजीता सिंह ( दिल्ली ), विमलेश त्रिपाठी ( कोलकाता ), ऋतेश पांडेय ( कोलकाता ), रौनक अफ़रोज़ ( कोलकाता )
संचालन : राजकिशोर राजन
सहयोग : शहंशाह आलम
लोकार्पण :
÷ 'जंगल गाथा और अन्य कविताएँ' ( कविता-संग्रह) / कवि : प्रणय कुमार
÷ विद यू, विदाउट यू ( उपन्यास ) / उपन्यासकार : प्रभात रंजन
÷ कविकुंभ ( मासिक पत्रिका ) / संपादिका : रंजीता सिंह
कविता-पाठ :
रानी श्रीवास्तव, रंजीता सिंह ( दिल्ली ), रौनक अफ़रोज़ ( कोलकाता ), ज्योति स्पर्श, श्वेता शेखर, लता प्रासर, प्रभात सरसिज, ध्रुव गुप्त, क़ासिम ख़ुर्शीद, मुकेश प्रत्यूष, संजय कुमार कुंदन, योगेंद्र कृष्णा, शम्भू पी सिंह, प्रणय कुमार, शैलेन्द्र राकेश, राजकिशोर राजन, रमेश ऋतंभर ( मुज़फ़्फ़रपुर ), अरविंद श्रीवास्तव ( मधेपुरा ), कुमार विजय गुप्त ( मुंगेर ),अंचित, विभूति कुमार, अविनाश अमन, नसीम अख़्तर, अरविंद पासवान, शिवशरण सिन्हा, गणेशजी बागी, हेमंत दास हिम, अमीर हमजा, संजय कुमार संज ( सुपौल ) कवि प्रमोद निराला ( जमालपुर ), शहंशाह आलम आदि।









  





































































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